Thursday - 14 November 2024 - 2:31 AM

व्यंग्य / बड़े अदब से : आखिर क्या करे चौथा बंदर !

 

उसको एक पेड़ की डाल पर सिर पर हाथ रखे, बेहाल देखकर दिल पसीज गया। वह बूढ़े से भी ज्यादा बूढ़ा लग रहा था। हताश और निराश भी। उसकी आंखों में एक विश्वास था कि मीडिया के किसी आदमी की नजर एक दिन उस पर जरूर पड़ेगी।

मैंने उसे हैलो कहा। वह हल्के से मुस्काया। मैंने अपना कैमरा सम्भाला। उसने अच्छा सा पोज दिया। फोटो से निपटने के बाद उसने बैठने का इशारा किया। बातचीत का सिरा मैं ढूंढ ही रहा था कि वह ही बोल पड़ा- शहर में अब रहने वाला नहीं है।

हर जगह तो आदमी ने अपने लिये मकान खड़े कर लिये और हमें बेघर बना दिया। पत्रकार महाशय, बात शुरू करने से पहले मैं अपना इंट्रोडक्शन दे दूं। मैं कोई मामूली बंदर नहीं हूँ।

मैं तो उन तीन बंदरों का भाई हूँ जो अपने हाथों को मुंह, कानों और आंखों पर रखते हैं। मैं भी उनके साथ बैठा था लेकिन तब इतना न तो भ्रष्टाचार था न महंगाई और न प्रदूषण। समझ में नहीं आता था कि अपना हाथ कहां पर रखकर मनुष्य जाति को कल्याण का संदेश दूं।

एक लाठी वाले बााबा ने मुझे समझाया कि तू इन तीनों की देखभाल कर, बाद में जरूरत पड़ी तो तुम्हें भी काम पर लगाया जाएगा। वो लाठी वाले बाबा भी न जाने कहां चले गये।

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मैं तो इसी इंतजार में रहा कि कभी न कभी देश सेवा के लिए उन तीनों के साथ बैठ जाऊंगा। वो कुछ देर ठहरा और बोला, तुम इंसान लोग आजकल कहाँ दुबक गए हो l न शोर है न गाड़ियों का धुआं।

कालोनियों का जंगल खड़ा है पर श्मशानघाट जैसी खामोशी है। ये चल क्या रहा है। सड़कें खाली पड़ी हैं। पर्यावरण के नाम पर लाखों पेड़ लगाये गये पर उन्हें पानी देने वाला कोई नहीं है। ये कैसी महामारी है? सरकार ने गायों के लिए गोशालाएं बनवा दीं।छुट्टा के लिए कांजी हाउस। हमारे लिए टूटी मड़इया भी नहीं। हमारे पुरखों ने तो कभी भगवान की सेना में काम किया धा लेकिन न कोई पूछ, न कोई पेंशन। घर तक छीन लिये गये। किसी ने मुझे मंदिर तक पहुंचा दिया। दबंगई तो हर जगह है। मंदिर पर जिन बंदरों का कब्जा है वे दूसरों को आने नहीं देते। लोग मंदिर में बसने वाले बंदरों को ही भगवान का रूप मानते हैं लेकिन बाकी को दौड़ा लेते हैं।

मुझे इसका जवाब आज तक नहीं मिला। और हां, तुमने मंदिरों में भी ताला जड़वा दिया। ये तुम लोग कभी थाली पीटते हो तो कभी दीये जलाकर पटाखे फोड़ते हो।

इससे हमें दिक्कत होती है। हर कोई अपना मुंह बांधे हुए है। पहले इंसान हमें डंडी के बल पर नचाते थे और आज खाकी वाले डंडे से उन्हें नचा रहे हैं। मजा तो पहले बहुत आया लेकिन अब अच्छा नहीं लगता।

मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि इस देश को क्या हो गया है। लोग दूरी बना कर चलते हैं। सोशल डिस्टेंसिंग के चलते अब अपने तीनों भाइयों के साथ कैसे बैठ पाऊंगा? हमारे वास्ते भी किसी वैक्सीन की खोज काहे नहीं की गयी? आखिर इंसान से हमें भी तो फैल सकता है।

बूढ़े बंदर की बातें सुनकर मैं भी सोच में पड़ गया। अपने पाठकों पर छोड़ता हूँ कि वे मुझे बताएं कि चौथा बंदर किस बुराई के खात्मे का प्रतीक बन सकता है।

Radio_Prabhat
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