नेता धर्मगुरुओं के तलवे चाट रहे हैं। गुंडे खादी पहनकर नेता बन रहे हैं। धर्मगुरू यह तौलने में लगे हैं कि किसके समर्थन से ज्यादा फायदा है। सड़कों पर रोड शो चल रहे हैं नेता और अभिनेता सब बिज़ी हैं। अभिनेता इंटरव्यू कर रहे हैं और पत्रकार कमरों में बैठकर सर्वेक्षण कर रहे हैं कि किसको कितनी सीटें मिलने वाली हैं। हर पार्टी का यही दावा है कि सरकार उसी की बन रही है, जिसके ज़रिये सरकार चुनी जानी है और जिसके लिए सरकार बनाई जानी है उसकी राय मशविरे की ज़रुरत किसी को नहीं है। यह कौन सी डेमोक्रेसी की तस्वीर तैयार हो रही है।
इंसानों को बांटने का क्रम लगातार जारी
मज़हब के नाम पर इंसानों को बांटने का क्रम लगातार जारी है। मन्दिर-मस्जिद और चर्च मज़हब के बजाय सियासत का मुद्दा बनते जा रहे हैं. जिन लोगों की कोई हैसियत नहीं थी वह इबादतगाहों की सियासत कर सेलीब्रिटी बन गए हैं. धर्म की चादर ओढ़ने वाली एक साध्वी आतंकवाद के नाम पर नौ साल सीखचों में काटकर रिहा हुई तो बड़े गर्व से बताया कि बाबरी मस्जिद तोड़ने वालों में वह शामिल थी।
मुम्बई में हुए आतंकी हमले को नाकाम करने की कोशिश करते हुए शहीद हुए हेमंत करकरे को इस साध्वी ने अपने श्राप का शिकार बताया। कोर्ट ने अभी इसे बरी नहीं किया है मगर यह संसद की सीढ़ियाँ चढ़कर खुद क़ानून बनाने वालों में शामिल होने की जुगत में लगी है। क्या वाकई ऐसे ही तैयार होती है डेमोक्रेसी।
सोशल मीडिया पर नफ़रत की आंधी
सोशल मीडिया पर नफ़रत की आंधी चल रही है। पढ़े-लिखे और समझदार समझे जाने वाले लोग इस आंधी का संचालन करने में लगे हैं। कई बड़े अफसर और नामचीन पत्रकार भी हिन्दू-मुसलमान की जंग में कूद पड़े हैं। मज़हब के नाम पर न सिर्फ इंसानी बंटवारा किया जा रहा है बल्कि यह मानकर चला जा रहा है कि इस मज़हब के लोग इस पार्टी को वोट देंगे और इस मज़हब के लोग इस पार्टी को वोट देंगे। यही बंटवारा विकास का आधार बनाया गया है। इसी बंटवारे के हिसाब से चुनावी गणित तय किया जा रहा है। इसी गणित के हिसाब से वोट मांगे जा रहे हैं।
सरोकार का मतलब खत्म हो चुका
पुराने दौर में सियासत मिशन हुआ करती थी। जब मिशन थी तब बहुत मुश्किल थी। जनप्रतिनिधि जन को पहचानते थे। आम आदमी अपने नेता के पास आसानी से पहुँच जाया करता था। जो नेता लगातार जनता के बीच रहता था वह आसानी से चुनाव जीत जाया करता था। वक्त के साथ सियासत में भी बदलाव आया। यह मिशन से प्रोफेशन बन गई। इसमें ग्लैमर का तड़का भी लग गया। जो अभिनेता पहले प्रचार के लिए आते थे वह खुद चुनाव लड़ने लगे।
जो गुंडे सियासी लोगों की मदद करते थे वह खुद नेता बनने लगे। वक्त बदलता गया और इलेक्शन महंगा होता गया। यहाँ का व्यक्ति वहां से चुनाव लड़ने लगा। लड़कर जीतने लगा। विकास का मतलब खत्म होने लगा। इस बार यहाँ से चुनाव अगली बार वहां से चुनाव। ऐसे में जन सरोकार खत्म होने लगे। आम लोगों के काम ठप्प होने लगे। सरकारें अब भी बन जाती हैं मगर सरोकार का मतलब खत्म हो चुका है।
इलेक्शन करीब लाने के लिए नहीं दूर जाने के लिए होता है
दो दशक पहले तक नेता धर्मगुरुओं की चौखट पर चलकर खुद जाता था अब धर्मगुरू नेता से मुलाक़ात का वक्त मांगने लगा है। पहले आम आदमी अपने काम से राजधानी आता था तो अपने जनप्रतिनिधि के सरकारी आवास पर ठहरता था। उसका काम भी आसानी से हो जाता था।
अब पांच साल तक उसकी शक्ल देखने को भी तरस जाता है। नेता भी अब अपने क्षेत्र के लोगों को नहीं पहचानता है क्योंकि अब जीत के तरीके बदल गए हैं। अब व्यक्ति नहीं पार्टी जीतती है। अब मुद्दे नहीं मजहबी गणित का चुनाव होता है। अब विकास नहीं पड़ोसी देश मुद्दा होता है। अब इलेक्शन करीब लाने के लिए नहीं दूर जाने के लिए होता है।
शहीद के नाम पर वोट मांगे जाने लगे
अब सेना को लेकर सियासत होने लगी है। अब शहीद के नाम पर वोट मांगे जाने लगे हैं, जिसे धरती का स्वर्ग कहा जाता है वह कश्मीर अब सियासी मुद्दा बन गया है। धारा 370 को लेकर वह लोग ज्ञान बघार रहे हैं जो इसके बारे में जानते तक नहीं। किसी को यह फ़िक्र नहीं की जो कश्मीरी पंडित कई दशक से अपने घरों से बेदखल हैं, वह कैसे अपने घरों पर वापस पहुंचें। उन्हें तो बस यह फ़िक्र है कि फुटपाथ पर ड्राई फ्रूट्स बेच रहे किसी कश्मीरी को पीटकर वह खुद को देशभक्त साबित कर लें।
मुल्क में अमन कैसे लौटे
फ़िक्र इस बात की नहीं है कि मुल्क में अमन कैसे लौटे। फ़िक्र बस इस बात की है कि कैसे वह अदालत के खिलाफ शोर मचाकर खुद को सबसे ताकतवर साबित कर सकें। फ़िक्र बस इस बात की है कि मन्दिर-मस्जिद के नाम पर हंगामा कर खुद को चर्चित कर लें। फ़िक्र बस इस बात की है कि कैसे लोगों को इस कदर बाँट दें कि वह विकास का मतलब भूल जाएँ। महंगाई पर शोर न मचे इसलिए यह साबित किया जा रहा है कि भारत का नाम दुनिया में बड़े सम्मान से लिया जा रहा है।
रोज़ शहीद हो रहे सैनिकों के परिवारों की सुरक्षा का मुद्दा न उठे इसके लिए बस यही कोशिश है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में पड़ोसी देश के चंद चिरकुटों का नाम चलता रहे। अपनी नाकामियां सामने न आ जाएँ इसके लिए बस यही कोशिश है कि दूसरी सभी पार्टियाँ देशद्रोही साबित हो जाएँ।
जितनी जल्दी समझ जाओ उतना ही बेहतर
झूठ की बुनियाद में सच को दफ्न करने की तैयारी चल रही है। सुरक्षा के आश्वासन में कभी भी और कहीं भी क़त्ल कर देने की धमकी छुपी है। मुल्क में रहना है तो मेरे हिसाब से रहो का मैसेज आम किया जा रहा है। बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों को धमकाकर रखने का काम सौंपा गया है ताकि अल्पसंख्यक अपना हक़ न मांग पाए और बहुसंख्यक खुद को सबसे ताकतवर समझकर सरकार के सामने हाथ न फैलाए। हक़ किसी को नहीं देना है यह नीति तय कर ली गई है। नीति तय करने वाले की नियत सबके सामने है।
मगर सब खामोश हैं क्योंकि अब दरवाज़ा खटखटाकर वोट मांगने का चलन खत्म हो चुका है। रोड शो में नेता अब ऐसी शक्ल के साथ हाथ जोड़कर वोट मांगता नज़र आता है कि पहचान लो मेरे पीछे इतनी ताकत है। मुझे ही चुनना। मैं जीतूंगा तो यह जुड़े हुए हाथ तुम पर नहीं उठेंगे। मेरे हाथ नहीं उठे तो एक हद तक तुम भी सेफ रहोगे। जीतकर मैं उस संविधान की कसम खाऊँगा जो तुम्हें भी बहुत सी बातों की गारंटी देता है। समझ रहे हो ना… जितनी जल्दी समझ जाओ उतना ही बेहतर है। डेमोक्रेसी में समझदार होना भी ज़रूरी होता है।
(लेखक पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)