लेखक अनुराग शुक्ला
कभी हिंदुस्तानी देहात की गर्मी का सौंदर्य बड़ा भीषण हुआ करता था। रंभाती गाय-भैसों की आवाज़। धूप बहुत तीखी ,लेकिन नज़र भीचकर देखी गई मृग मरीचिका में भी बहुत सारी ऊब,आलस्य और रचनात्मकता झिलमिलाती नजर आती थी। तभी कंही इस कोने,कंही उस कोने से और कंही थोड़ा तेज वॉल्यूम में एक दूसरे को ओवरलैप करती आवाज़ आती थी-
छोड़ दो आँचल जमाना क्या कहेगा….। और उस आलस्य- अवसाद भरी झिलमिलाहट में कुछ सितारे टंक जाते थे। …ये आकाशवाणी है और आप सुन रहे हैं विविध भारती। मनचाहे गीत में अगली फरमाइश है,कैथनपुरवा-सतनपुरवा के गोलू,रमेश मीना,गुड़िया और उनके दोस्तों की। इसी गाने को सुनने के लिए शोलापुर महाराष्ट्र से लिखते हैं बबली भाई, नितिन गायकवाड़ और गिरधर अंतुले। तो आइए सुनते हैं फ़िल्म शराबी का ये गीत। जिसे आवाज़ दी है किशोर कुमार और आशा भोंसले ने। गीतकार हैं अनजान। और बप्पी दा के टनटन संगीत के साथ गाना बजने लगता था-
मुझे नौलक्खा माँगा दे रे ओ सैयां दीवाने ….
मुझे नौलक्खा माँगा दे रे ओ सैयां दीवाने …
तुझे मैं तुझे मैं ….तुझे मैं तुझे मैं
तुझे गले से लगा लुंगी ओ सैयां दीवाने
मुझे अंगिया सिला दे रे ओ सैयां दीवाने..।
और फिर कंही दूर छप्पर और नीम की मिलीजुली छाँह में लेटे दद्दू की सुखनिंदिया में सलमा सितारे की झिलमिल चुनरिया लहराने लगती थी और वे वंही से उबासी लेते हुए बोलते थे बाज़ा का थोड़ा आवाज़ दिहो हो। आवाज़ 2 से तीन पर आ जाती थी और…जया प्रदा की अमिताभ से डिमांड अभी भी जारी रहती थी।
…हो किरणों से ये मांग मेरी सजा दे
पूनम के चंदा की बिंदिया मंगा दे…
पूनम के चंदा की बिंदिया का बिम्ब न जाने दद्दू में क्या भर देता था और वे हरहा (पशु,गाय भैंस) खोलने के लिए तैयार हो जाते थे। गोसेवा को तब कल्ट स्टेटस नहीं मिला था,लेकिन लोग पशुओं को चराने के लिए निकलते थे।हरहा चराना पशुओं की कुपोषण मुक्ति योजना थी और चराने वालों का मनोरंजन कार्यक्रम। ताश की गड्डी और रेडियो। जिसके साथ कोई अपना बेसुर मिलाते हुए गाता था- अगर मैं भुला दूं तेरा प्यार दिल से,वो दिन आखिरी हो मेरी ज़िंदगी का…। जीवन में बहुत सी उदासी थी लेकिन विविध भारती से रफी साहब या मुकेश निकल आते थे और मन रे तू काहे न धीर धरे या चल चला ओ साथी चल चला सुनकर जिंदगी में एक दार्शनिक किस्म की उम्मीद भर देते थे। ओह रे ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में टाइप।
तब तक 2:30बज जाते थे और भाभी भी -आज की मुलाकात बस इतनी…संग गुनगुनाकर थोड़ा रागात्मक हो जाती थी और तेल फुलेल लेकर बार बांधने बैठ जाती थीं। सास बहू ननद भौजाई सब। अलता, सेंदुर सब। यही तब का मेकअप था और उस ऊबी दोपहर को विविध भारती की मदद से गुंथी गई चुटिया रंगीन कर देती थी। सस्ती गम वाली बिन्दियां और बोरोलीन को मुंह पर लगाकर वीविध भारती सुनती ये औरतें सांझ से कुछ पहले ही चूल्हों से धुंवा उठा गोधूलि को निमंत्रण दे देती थी।
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डूबते सूरज और दीया-बाती की रोशनी के बीच उनका चेहरा -गोधूलि के धूमिल स्वर में ,दीपक के स्वर में दीप्ति सी जैसा हो जाता था। बाद में इन्हीं औरतों और उनके बाद कि पीढ़ी ने एक दीवाने के साथ शहरों में आशियाना ढूंढा। ऐसा घर बनाया जिसमें धरती पे खुली खिड़की और खिड़की पे खुला अम्बर होना था। शहरों में स्त्री पुरुष के रिश्तों में आता खुलापन और पब्लिक स्पेस की थोड़ी सी बढ़ोत्तरी ने 116 साल चांद की रातें और तुम्हारे कांधे के तिल ने क्या बदला वो बाद कि बात है लेकिन विविध भारती ने उस पीढ़ी का पूरा साथ दिया जो इस उलझन में जी रही थी कि-
अब मैं राशन की दुकानों पे नज़र आता हूँ
अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूँ।।
अब हम रेडियो पर ट्रैफिक जाम की सूचना लेते हैं। मुर्गा बनते हैं, बकरा बनते हैं। लेकिन बताशा बुआ,पौने नौ के समाचार,हवामहल और सुगम संगीत के बीच के वक़्त में बजती ग़ज़ल-
जब आँचल रात का लहराए और सारा आलम सो जाए,
तब मुझसे मिलने शमा जला तुम ताजमहल में आ जाना
ने हमें बहुत सारी तमीज बख्शी। तो खुदा करे कि हमारी ये थोड़ी बहुत तमीज और शऊर बना रहे,ताजमहल में किसी से मिलने जाना किसी लिस्ट का मोहताज न रहे। और हां ये शमां भी जलती रहनी चाहिए-एक शहंशाह ने बनवा के हंसी ताजमहल हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक। तो फिर अंत मे शुक्रिया ,विविध भारती।
(यह लेख उनके फेसबुक वाल से लिया गया है)