प्रीति सिंह
केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद एक उम्मीद जगी थी कि भारत में पैठ जमा चुकी वीआईपी संस्कृति खत्म होगी। सत्ता में आने के कुछ दिनों बाद मोदी सरकार ने जब लाल बत्ती लगाने पर प्रतिबंध लगाया तो उम्मीद और पुख्ता हो गई। लगा कि सरकार आने वाले दिनों में विधायकों, सांसदों, मुख्यमंत्रियों और पूर्व मुख्यमंत्रियों को मिलने वाली तमाम सुख-सुविधाओं में कटौती करेगी, पर ऐसा नहीं हुआ। अलबत्ता विधायकों के वेतन में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हो गई। आलम यह है कि वो सत्ता में रहे या न रहे लेकिन उनकी सुविधाओं में कोई कमी नहीं होती।
सत्ता की चाहत और वीआईपी कल्चर हर जगह हावी है। यह एक राज्य की समस्या नहीं है। देश के हर राज्यों की यही समस्या है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सरकारों के पास जनता के वेतन-भत्तों में बढ़ोत्तरी करने के लिए पैसे नहीं होते लेकिन अपने विधायकों के वेतन और भत्तों के लिए पैसे की कोई किल्लत नहीं होती। और तो और राज्य सरकारें जब विधायकों के वेतन, सुख-सुविधाओं में इजाफा करती हैं तो कोई भी राजनीतिक दल इसका विरोध नहीं करते। राज्य सरकारें विधायकों को कितना शानदार पैकेज देती है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पिछले सात साल में उनके वेतन में 125 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो चुकी है।
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बीते दिनों नैनीताल हाईकोर्ट ने पूर्व मुख्यमंत्रियों को आवास जैसे अनेक लाभ मुहैया कराने के उत्तराखंड सरकार के कानून को असंवैधानिक बताते हुए बकाया वसूलने का आदेश दिया है। इसके पहले भी ऐसा ही आदेश हाईकोर्ट ने दिया था।
पिछले साल नैनीताल हाईकोर्ट ने देहरादून की एक स्वयंसेवी संस्था रूलेक की याचिका पर अपने तब के आदेश में पूर्व मुख्यमंत्रियों को छह महीने के भीतर सरकारी बंगलों का बाजार दर पर किराया जमा कराने को कहा था, लेकिन राज्य सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्रियों के बचाव का रास्ता निकालते हुए अध्यादेश को मंजूरी दिलवा दी। इस तरह उत्तराखंड पूर्व मुख्यमंत्री सुविधा (आवासीय और अन्य सुविधाएं) अध्यादेश 2019 अस्तित्व में आ गया।
इस अध्यादेश के आने से पूर्व मुख्यमंत्रियों बीसी खंडूरी, रमेश पोखरियाल निशंक, भगत सिंह कोश्यारी, विजय बहुगुणा और दिवंगत एनडी तिवारी को राहत मिल गई, जिन्हें राज्य सरकार का करीब तीन करोड़ रुपये का बकाया भुगतान करने का निर्देश हाईकोर्ट ने दिया था।
उत्तराखंड सरकार ने जो अध्यादेश पारित किया था उसकी मियाद राज्य गठन की तारीख 9 नवंबर 2000 से लेकर 31 मार्च 2019 तक रखी गई थी। इसमें कहा गया था कि इस तारीख के बाद कोई पूर्व मुख्यमंत्री सरकारी आवास या अन्य सुविधाओं के हकदार नहीं होंगे।
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इस अध्यादेश को चुनौती देते हुए इस साल जनवरी में रूलेन ने फिर याचिका डाली, जिस पर फैसला सुनाते हुए हाईकोर्ट ने अध्यादेश को संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में असंगत और अवैध बताते हुए रद्द करने का आदेश दिया है। नैनीताल हाईकोर्ट ने कानून को संविधान में दर्ज समानता के अधिकार के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन बताया था।
इसके पहले उत्तर प्रदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी बंगला खाली करने का आदेश दिया था। अदालत ने उस समय कहा था कि पूर्व मुख्यमंत्री भी आम व्यक्ति हैं न कि “विशेष दर्जे वाला” नागरिक, जो जनता के टैक्स पर जिंदगी भर के लिए गाड़ी, ईंधन, स्टाफ, भत्ते और सरकारी बंगले जैसी सुविधाओं का आनंद उठाता रहे।
उत्तर प्रदेश में भी कोशिश की गई कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को इन सुविधाओं से वंचित न होना पड़े, लेकिन अदालत के फैसले की वजह से उन्हें बंगला खाली करना पड़ा। पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने कार्यकाल में ही पूर्व मुख्यमंत्रियों के लिए तमाम सुविधाएं देने वाला कानून विधानसभा से पास करा लिया था और इसे मौजूदा योगी सरकार ने भी जारी रखा। कोर्ट में योगी सरकार ने दलील दी थी कि पूर्व मुख्यमंत्री अपने आप में एक वर्ग है, तब अदालत ने कहा कि सभी नागरिक समान हैं और संविधान में इस व्यवस्था का अपवाद सिर्फ पिछड़े वर्गों, महिलाओं, बच्चों, एससी, एसटी और अल्पसंख्यकों के लिए रखा गया है।
फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, मायावती, राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह और दिवंगत एनडी तिवारी को बंगला खाली करना पड़ा था।
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सुप्रीम कोर्ट ने ये भी बताया था कि तमिलनाडु जैसै राज्य में पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी आवास देने का प्रावधान नहीं है, लेकिन बिहार और असम जैसे राज्यों ने कार्यकारी निर्देशों के जरिए ऐसे प्रावधानों का रास्ता बनाया है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का दूसरे राज्य की सरकारों को संज्ञान लेना चाहिए था और ऐसा करने से बचना चाहिए था, पर उत्तराखंड की बीजेपी सरकार ने ऐसा नहीं किया, जबकि प्रधानमंत्री मोदी सत्ता में आने के बाद से कई बार कह चुके हैं कि जनप्रतिनिधियों को वीआईपी कल्चर से दूरी बनाने की जरूरत है।
जनप्रतिनिधियों का बंगला प्रेम बहुत पुराना है। गिने-चुने ही लोग है जो खुद से सरकारी आवास खाली करते है। नोटिस के बावजूद भी वह महीनों कब्जा जमाए रहते हैं। तालाबंदी के बीच में पिछले दिनों मध्य प्रदेश में एक अनोखा मामला सामने आया था।
कमलनाथ सरकार में वित्तमंत्री रह चुके तरूण भनोट से तालाबंदी में ही सरकारी बंगला खाली करा लिया गया। राजनीतिक गलियारों में इसकी खूब चर्चा हुुई। कहा गया कि नोटिस मिलने के बजाय भनोट पहले ही खाली कर देते तो अच्छा रहता लेकिन सवाल यह उठा कि आखिर उन पूर्व मंत्रियों का बंगला क्यों नहीं खाली कराया गया जो पाला बदलकर बीजेपी में चले गए हैं। ये अब भी मकानों पर कब्जा जमाए बैठे हैं जबकि अभी विधायक भी नहीं है।
विधायक व सांसद सरकारी आवास खाली करने में काफी ना-नुकुर करते हैं। जिनकी सत्ता पक्ष में अच्छी पैठ होती है वह सत्ता में न होते हुए भी मकानों पर सालों कब्जा जमाए रहते हैं। पिछले साल सितंबर में ब्रिटिश अखबार द गार्डियन ने भारतीय सांसदों के रवैये और सरकारों की कमजोरियों के बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसके मुताबिक नोटिस मिलने के बावजूद दिल्ली के लुटियन जोन के करीब 200 शानदार बंगलों पर पूर्व सांसदों का कब्जा बना हुआ था।
मध्य प्रदेश में भी कमलनाथ सरकार के 15 महीने के कार्यकाल में भी यही मुश्किलें आईं थीं। शिवराज सरकार के कई मंत्रियों ने बंगले खाली नहीं किए थे। ऐसा मामले हर उस राज्य में देखने को मिलता है जब सत्ता बदलती है।
अब विधायकों और सांसदों को मिलने वाले वेतन भत्तों की भी बात करते हैं। एक आंकड़े के अनुसार पिछले सात साल में देश की राज्य विधानसभाओं में चुन कर आए विधायकों के वेतन भत्तों में 125 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो चुकी है।
हर राज्य में वेतन भत्तों की दर अलग-अलग हैं। सबसे ज्यादा भुगतान करने वाले तीन राज्यों तेलंगाना, दिल्ली और मध्य प्रदेश में प्रति माह दो से ढाई लाख रुपये के बीच का वेतन है। सबसे कम वेतन त्रिपुरा और मेघालय में है। देश के सभी राज्यों में विधायकों का औसत वेतन तमाम भत्तों को मिलाकर एक से डेढ़ लाख रुपये का है।उसके अलावा वाहन, ईंधन, फोन जैसी अन्य सुविधाएं भी हैं, पेंशन और फैमिली पेंशन तो है ही।
सांसदों की बात करें तो 2018 में उनके वेतन-भत्ते आदि में वृद्धि की गई थी। कोरोना संकट की वजह से एक साल तक तीस प्रतिशत की कटौती को छोड़ दें तो सांसदों का मूल वेतन ही एक लाख रुपये प्रति माह है। निर्वाचन क्षेत्र भत्ता 70 हजार और ऑफिस भत्ता 60 हजार रुपये दिया जाता है। इनके अलावा बहुत सी अन्य रियायतें और लाभ भी हैं जिनमें आजीवन पेंशन भी शामिल है। आरटीआई के हवाले से प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पूर्व सांसदो की पेंशन पर केंद्र सरकार साढ़े 70 करोड़ रुपये का खर्च कर देती है।
पेंशन पाने वाले पूर्व सांसदों में फिल्मी सितारे और उद्योगपति भी शामिल हैं। कोरोना संकट के दौर में जब खर्चों को कम करने और मितव्ययिता की बातें की जा रही हैं तो केंद्र हो या राज्य सरकारें, सभी को अपने उन फैसलों पर भी फिर से गौर करना चाहिए जो राजस्व पर बोझ बढ़ाने वाले ही साबित होते हैं।