Wednesday - 30 October 2024 - 11:54 AM

आत्मनिर्भर भारत में कराहते ग्रामीण

रूबी सरकार

बड़ा़ मलहरा विकास खण्ड (जिला. छतरपुर) का छोटा सा गांव बरेठी। वंशकार और अहिरवार समुदाय के लगभग तीन सौ परिवार यहां रहते हैं। इस गांव में सौ फीसदी पलायन है, जो हरियाणा, पंजाब और दिल्ली शहर में जाकर चौकीदारी, निर्माण कार्य आदि में लगे थे।

ये सभी कोविड-19 की वैश्विक महावारी के कठिन वक्त में तीन-तीन दिन पैदल चलकर या बस आदि पर लदकर अपने गांव पहुंचे। अब बाघ की तरह घात लगाये इनके दरवाजे पर भूख खड़ी है। सरकार के प्रबंध विहीन नीति से इनका पेट नहीं भर रहा है।

इसी गांव का रहने वाला कालीचरण चिलचिलाती धूप में दरवाजे पर बैठकर सूपा बना रहा था। परिवार का कोई सदस्य इनका साथ नहीं दे रहे थे। कालीचरण ने बताया कि इस बस्ती में अधिकांश वंशकार हैं और इस समय किसी के पास कोई काम नहीं है। यहां लोगों के पास खेती भी नहीं है। क्या करें, कैसे जीये, हमें यह बताने वाला भी कोई नहीं है। उसने बताया, कि वंशकारों के पास बांस से कलाकृति बनाने का जो हुनर था, वह सब पलायन के चलते खत्म हो चुका हैं। हमारे जैसे एक-आध बुजुर्ग ही होंगे, जो अभी तक इस हुनर को जिंदा रखे हैं। शाम को इसे बाजार में बेचकर दस-बीस रूपये कमा लेते हैं। कालीचरण किसानों से महंगे दामों पर बांस खरीद कर लाता हैं, फिर उससे सूपा, टोकरी आदि बनाता है। इसे बेचने के बाद वह किसान को बांस का पैसा वापस करता है।

50 वर्षीय सुम्माबाई कहती है, कि कभी इतने सारे लोग गांव में इकट्ठा नहीं हुए। सब दिनभर इकट्ठे होकर पेड़ के नीचे बैठे रहते हैं। सामाजिक दूरी का यहां कोई मायने नहीं है। पानी के लिए यहां लोग तरस रहे हैं। तीन सौ परिवारों के लिए एक हैण्डपम्प है। वह भी गांव की जल सहेलियों के प्रयास से संभव हो पाया है। जरूरत पड़ने पर जल सहेलियां स्वयं इसकी मरम्मत भी कर लेती हैं। चूंकि पलायन करने वाले सभी सदस्य इस समय गांव में है। इसलिए पानी का संकट और गहरा गया है। ऐसे में बार-बार हाथ धोने की बात इनसे कौन करे, जब इनके पास पीने के लिए पानी नहीं है।

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लीला अहिरवार पति और 5 बच्चों के साथ हरियाणा से गांव लौटी हैं। वह वहां पति के साथ टाइल्स का काम कर रही थी। वह कहती है, चलते-चलते रास्ते में उसका चप्पल टूट गया था। उसे नंगे पांव चलना पड़ा। पैर में छाले पड़ गये। रास्ते में उसके पैसे भी खत्म हो गये। गांव पहुंचे तो खाली हाथ। वह बताती है, सरकार ने दावे बहुत किये थे, लेकिन गांव में काम अभी तक नहीं मिला। उल्टे जो राशन मिला, उसमें कर्मचारी कटौती कर लेते हैं।

जबकि सरकार की ओर से दावा किया गया था, कि अपने-अपने गांव लौटे सभी प्रवासी मजदूरों का उनके हुनर के हिसाब से पंजीयन होगा। उन्हें सरकार की ओर से प्रशिक्षण दिया जायेगा। जिससे वे स्वयं और गांव को आत्मनिर्भर बनाये। यह भी कहा गया कि पलायन रोकने के लिए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत मजदुरों को काम मिलेगा। काम तो दूर, अभी तक गांव में किसी का श्रमिक पंजीयन ही नहीं हुआ है। पहले पंजीयन होगा, फिर कौशल के अनुरूप काम मिलेगा। हालांकि पंजीयन न होने वालों में केवल बरेठी के मजदूर नहीं है, बल्कि बड़ा मलहरा के भगुवां, चौधरीखेड़ा और सपलपट्टी जैसे असंख्य गांव है, जहां मजदूरों का पंजीयन नहीं हुआ है।

इधर सरकार दावा कर रही है, कि मध्यप्रदेश ने कुल 17 लाख 10 हजार ,186 मजदूरों को सर्वे में चिन्हित किया है। सरकार का दावा है, कि मध्यप्रदेश पहला राज्य हैं, जिसने प्रवासी मजदूरों का प्रामाणिक सर्वे पूरा किया है। बरेठी में अधिकतर लोगों के पास जॉब कार्ड नहीं है। 40 वर्षीय बलदेव ने बताया, कि गांव के सभी लोगों का जॉब कार्ड सरपंच ने अपने पास रखवा लिया है। कई साल पहले उन्होंने हमसे जॉब कार्ड ले लिया था, फिर वापस नहीं किया।

28 वर्षीय रमेश ने बताया, वह हरियाणा में चौकीदारी करता है और हालात सुधरने के बाद वह वापस जाना चाहता है। वजह गिनाते हुए उसने कहा, यहां सामंती प्रथा आज भी जिंदा है। सामंतों के सामने न हम बैठ सकते हैं, न चप्पल पहनकर उनके सामने से गुजर सकते हैं। अगर उनकी बात नहीं मानी, तो वे सबके सामने बुरी तरह मारते हैं। हमें सबके सामने दबंगों ने बहुत मारा। समुदाय में किसी के पास इतनी हिम्मत नहीं है कि वे आगे आकर हमें पीटने से रोक सके। इससे तो अच्छा है, कि शहर में पन्नी का घर बनाकर रहे। इसके अलावा यहां काम भी नहीं है। गुजारा कैसे होगा।

परमार्थ समाज सेवी संगठन के सचिव संजय सिंह बताते हैं, कि किसी तरह मजदूर गांव तो पहुंच गये, लेकिन अब इन्हें गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए काम की आवश्यकता है। ताकि वे अपना पेट भर सकें। वर्तमान में निहायत ही खराब परिस्थितियों में ये अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। अभी सरकार को ग्रामीण अर्थव्यवस्था को किसी तरह पुनर्जीवित करना होगा।

आंकड़ों के मुताबिक बुंदेलखण्ड के जिलों से जितना पलायन है। उनमें सबसे ज्यादा छतरपुर जिले से है। लगभग 80 फीसदी ग्रामीण परिवारों कां कम से कम एक सदस्य पलायन पर जाता है।

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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