डा. रवीन्द्र अरजरिया
ज्ञान के बिना जीवन पशुवत है, स्वामी विवेकानन्द का यह आदर्श वाक्य सामाजिक मर्यादाओं, अनुशासन और अनुबंधों को रेखाकित करने के लिये पर्याप्त है। समाज और सामाजिकता के मध्य मानवीयता की स्थिति वर्तमान में हिचकोलें ले रही है।
संस्कार नाम की संस्था कही विलुप्त सी हो गई है। भविष्य की सुरक्षा के अंश शिक्षा संविधान से बाहर होते चले जा रहे हैं। स्वास्थ्यपरक क्रियाकलापों को पाठ्यक्रम के अनिवार्य अंग की गरिमा से निष्कासित कर दिया गया है।
शारीरिक शिक्षा, बुकक्राफ्ट, मिट्टी का काम, बागवानी जैसी रोजगारमूलक पढाई आज प्राथमिक और माध्यमिक पाठशालों से लुप्त हो गई है। परम्परागत प्रार्थना, पीटी, आसन, खेल, साप्ताहिक बाल सभा, जैसे कारक हाशिये पर पहुंच चुके हैं। कथित आधुनिकता को स्वीकारने की ललक में तर्कसंगत पद्धतियों त्यागने का क्रम चल निकला है। सह-शिक्षा के मापदण्डों ने विकृतियों को हवा दी है।
सेवा के नाम पर स्वास्थ और शिक्षा के रास्ते घुसपैठ करने वाले लोगों को सात समुन्दर पार से निरंतर निर्देशित किया जा रहा है। नवनिहालों का भविष्य संवारने की मृगमारीचिका दिखाने वालों को आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक संरक्षण देने का काम देश के जयचन्द बखूबी कर रहे हैं। विचार चल ही रहे थे कि तभी मुख्यद्वार के बाहर तेज आवाज में गूंजी हार्न की आवाज ने व्यवधान उत्पन्न कर दिया। खिडकी से देखा।
आवास के बाहर शिक्षाजगत के जानेमाने विचारक पुष्पेन्द्र सिंह गौतम अपनी कार से उतर रहे थे। इस युवक ने कम समय में ही शिक्षा जगत में नई परिभाषा गढने का काम किया है। जहां एक ओर कैम्बिज विश्वविद्यालय के साथ एमओयू साइन करके अंग्रेजी विषय को अपने विश्वविद्यालय में पूर्णता तक पहुंचाने की पहल की वहीं मैकेनिकल जैसे विषय की शिक्षा के साथ उसके व्यवहारिक ज्ञान और धनार्जन के साधन भी उपलब्ध कराये।
छात्रों को ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ स्वावलम्बी होना सिखाया। उनकी सफलताओं का आकार लम्बा होता तब तक वे मुख्यद्वार पर लगी कालबेल का बटन पुश कर चुके थे। हमने आगे बढकर गेट खोला।
भारतीय संस्कृति के अनुरूप वे आगे बढकर चरण स्पर्श करके हेतु झुके। हमने उन्हें कांधे से पकड कर उठा लिया। उन्होंन अपनत्व भरी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि हमें हमारे अधिकार से वंचित न करें। हम निरुत्तर हो गये।
अनेक शिक्षण संस्थानों, विश्वविद्यालय और संगठनों को गति देने वाले पुष्पेन्द्र की सरलता, सहजता और अधिकारबोध एक साथ मुखरित हो उठा। अभिवादन, कुशलक्षेम और आसनग्रहण करने के निवेदन की औपचारिकताओं के बाद हम आमने-सामने थे।
नौकर ने चाकलेटी वर्फी की प्लेट के साथ पानी के गिलास सामने रखी टेबिल पर सजा दिये। शिक्षा की दशा और दिशा पर चर्चा चल निकली। कुछ दिनों बाद ही 5 सितम्बर यानी शिक्षक दिवस आने वाला है।
गुरू को भगवान से बडा, भगवान से पहले और भगवान से ऊंचा बताने वाले व्याख्यानों की गूंज से सर्वपल्ली डाक्टर राधाकृष्णन के जन्म दिवस को मनाने की औपचारिकतायें पूरी की जायेंगी। हमने अपने मस्तिष्क में चल रहे विचारों को उन तक पहुंचाया।
मानसिक गुलामी को विश्लेषित करते हुए उन्होंने कहा कि स्वाधीनता के लिए हमें आज भी संघर्ष करना पड रहा है। गोरों की अंग्रेजी एक विषय तक ही सीमित नही रह गई बल्कि कथित संभ्रान्तता का परिचायक हो गई है।
बडी अदालतों से लेकर केन्द्र सहित सभी प्रमुख विभागों में अंग्रेजी के बिना काम करवाना संभव ही नहीं है। साइवर क्रान्ति के नाम पर तो केवल और केवल अंग्रेजी ही रह गई है। राजभाषा हिन्दी सहित सभी क्षेत्रीय भाषायें अस्तित्वहीन की जा रहीं है।
गैर हिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी वहां की अपनी परम्परागत बोली पर एबीसीडी ने कब्जा जमा लिया है। हमने उन्हें अंग्रेजी के दायरे से बाहर लाते हुये शिक्षा के सार्थक स्वरूप और संभावनाओं पर दृष्टिकोण रखने के लिए कहा।
युवा शिक्षाविद् के चेहरे पर चिन्ता की लकीरें उभर आयीं। कुछ पल खामोश रहने के बाद उन्होंने कहा कि शिक्षा के पुरातन मूल्यों की ओर ही हमें लौटना पड रहा है परन्तु दुखद यह है कि हमें सुखद भविष्य के वे ही रास्ते अंग्रेजी में सुझाये जा रहे है जो कभी हमने उन्हें संस्कृत में सिखाये थे।
योग का योगा होकर लौटना, इस्कान से कृष्णभक्ति की रीति सीखना, जीवन जीने की वैदिक कला को अंग्रेजी में लिखने वालों की ओर आकर्षित होना, हमें अपनी मूर्खता पर हंसने और सब कुछ खोकर थोडा पाने पर हंसने के लिए बाध्य कर रहा है।
आज अंग्रेजी में लौटने लगे हैं शिक्षा के वैदिक मूल्य। हम उन्हें आधा अधूरा पाकर ही निहाल हुए जा रहे हैं और वे हमारे समूचे को शोध की भट्टी में पकाकर कुंदन बनाने में जुटे हैं। उनका चेहरा आवेश से तमतमाने लगा। शब्द ठहर गये। हमने पानी का गिलास उनकी ओर बढाया।
उन्होंने एक ही झटके से पूरा पानी पीने के बाद गिलास टेबिल पर रख दिया। तभी नौकर ने एक बडी सी ट्रे के साथ कमरे में प्रवेश किया। टेबिल पर गर्मागर्म काफी के प्याले और कुछ भोज्य पदार्थ की प्लेटें सजायी जाने लगीं। तब तक हमें अपने विचारों को पुष्ट करने हेतु काफी सामग्री मिल चुकी थी। सो काफी और भोज्य पदार्थों का सम्मान करने की दिशा में अग्रसर हो गये।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है ये लेख उनके निजी विचार है)