कुमार भवेश चंद्र
कहते हैं सिनेमा समाज का आइना है। उसके आज को बताता है। उसके आने वाले कल के लिए रास्ता दिखाता है। लेकिन समाज को रास्ता दिखाते दिखाते सिनेमा कहीं भटक सा गया है। उद्योग बनकर यह केवल पैसे और शोहरत कमाने का जरिया बनकर रह गया है। बेशुमार दौलत और शोहरत की चाहत ने सिनेमा से मनोरंजन के साथ उसके सामाजिक सरोकारों को छीन लिया है।
मनोरंजन और प्रयोग के नाम पर हिंसा और सेक्स की भरमार है और सामाजिक सरोकारों के नाम पर साल में कुछ गिनी चुनी फिल्में ही हमारे हिस्से आ पाती हैं। इस बीच टीवी के बाद ओटीटी प्लेटफार्म पर काम के विस्तार ने बॉलीवुड में काम के विस्तार के साथ साथ रोजगार की असीमित संभावनाओं को जन्म दिया है। लेकिन सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद बालीवुड में नेपोटिज्म के प्रभाव की चर्चा ने चिंता बढ़ा दी है।
समाज को राह दिखाने वाला सिनेमा खुद ही समाज की बुराइयों का शिकार हो जाए, तो चिंता होना स्वाभाविक ही है। और खास तौर पर तब, जब ये नेपोटिज्म जानलेवा बन जाए। अभी ये साबित नहीं हुआ है कि तेजी से लोकप्रियता की ओर बढ़ रहा अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत किन हालातों का शिकार हुआ लेकिन अगर उसकी जान जाने की वजह नेपोटिज्म बताई जा रही है तो ये चिंता की बात है.. और चर्चा करने की बात है।
बालीवुड में कामयाब परिवारों के बच्चों को आगे आते देखना अभी तक किसी तरह का डर और शंका नहीं पैदा करता था। हमने वह दौर भी देखा है जब राजकपूर परिवार से एक के बाद अभिनेता आए और लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचे। दर्शकों ने उन्हें सिर माथे बैठाया। उनकी फिल्में हिट हुई। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि राजकपूर के परिवार से होने के बावजूद कुछ अभिनेताओं को अधिक कामयाबी नहीं मिली।
खुद राजकपूर के भाई रणधीर कपूर अधिक कामयाब नहीं हो पाए। ऋषि कपूर के दूसरे भाई राजीव कपूर भी कामयाबी का स्वाद चख नहीं पाए। इंडस्ट्री में अपने पांव जमा चुके लगभग सभी निर्देशकों-अभिनेताओं ने अपने बच्चों को आगे बढ़ाने का अवसर दिया। लेकिन शोहरत और कामयाबी केवल उन्हीं को मिल पाई जिनके अंदर प्रतिभा थी.. क्षमता थी। आज अनेक उदाहरण है कि अपनों को बढ़ाने की कोशिश तब तक कामयाब नहीं होती जबतक कि उसके पास प्रतिभा नहीं हो। नई प्रतिभाओं के मुकाबले उनके पास ‘लांच’ होने का अवसर जरूर होता है।
यानी शुरुआत करने का मौका उनके लिए उपलब्ध रहता है। वैसे भी फिल्म निर्माण की लागत लगातार बढ़ती जा रही है। कोई भी निर्माता भारी रकम निवेश के बाद उसकी वापसी के लिए चिंतित रहता है। और यह स्वाभाविक भी है। इंडस्ट्री के बाहर से आने वाली प्रतिभाओं को इस परीक्षा से गुजरना होता है कि वे किसी फिल्म में लगने वाली भारी रकम की वसूली का दम रखते हैं या नहीं। यानी उन्हें दर्शक पसंद करेंगे या नहीं। अगर उन्हें पसंद नहीं किया गया ता भारी रकम डूब जाएगी। ये डर भी इंडस्ट्री के निवेशकों को नए लोगों पर पैसा लगाने से रोकता है।
फिल्म उद्योग के इस अर्थशास्त्र को भी समझना जरूरी है। लेकिन ऐसा नहीं कि उद्योग के लोग यह जोखिम नहीं उठाते हैं। पिछले तीन चार दशक की ही बात करें तो माधुरी दीक्षित और कंगना रनौत से लेकर तापसी पन्नू इसके उदाहरण हैं। नए लोगों पर इंडस्ट्री के इसी भरोसे ने हमें मनोज वाजपेयी से लेकर आकाश आयुष्मान खुराना जैसे अभिनेता दिए हैं।
सवाल उठता है कि फिर ऐसा क्या है जिसको लेकर इंडस्ट्री के आउटसाइडर सवाल खड़े हैं। और अगर ये सवाल उठ रहे हैं तो ये केवल धुंआ नहीं है। इसके पीछे की आग को समझना पड़ेगा। कंगना रनौत के ‘पंगे’ से कोई तो मैसेज है। कोई बैठे बैठाए किसी से यो पंगा क्यों लेगा। यह भी समझने की बात है। इंडस्ट्री में जहां मिलजुल कर सब कुछ हो जाता है वहां कोई आवाज उठा रहा है तो उसे पागल कहके नजरंदाज करना भी ठीक नहीं।
यह एक सच्चाई है कि बालीवुड लंबे समय तक अंडरवर्ल्ड के प्रभाव या दबाव में रहा। उनके इशारे पर हीरोइनें बदल सकती थी। उनके इशारे पर रिलीज की डेट तय हो सकती थी। इस सच्चाई को सभी जानते हैं। लेकिन अब वो अंडरवर्ल्ड ध्वस्त हो चुका है। अब ‘इनरवर्ल्ड’ ने इंडस्ट्री को अपने हिसाब से चलाना शुरू कर दिया है।
ये ‘इनरवर्ल्ड’ इतना प्रभावी है कि यही तय करने लगा है कि कौन कहां जाएगा और कितनी दूर जाएगा। इंडस्ट्री से जुड़े तमाम संगठनों और संस्थाओं तक पर इनकी दखल है। इंडस्ट्री में इनकी कंपनियों का दबदबा सबसे अधिक है। ये सबकी कीमत तय करते हैं। फिल्मों की रिलीज की तारीख पर इनका कब्जा है। ये लोग किसी सुपरपावर की इंडस्ट्री के कायदे कानून तय करते हैं। ये लोग सत्ता तक पहुंच रखते हैं। ये सत्ता के बदलने पर अपनी चाल बदल देते हैं। और ये मुंबई की कर्मठ पुलिस पर दोस्ती का दबदबा रखते हैं। अकूत पैसा और पहुंच इनकी सबसे बड़ी ताकत है।
अब सवाल उठता है कि ऐसे लोगों पर अंकुश कैसे लगाया जाए? यह सवाल परेशान करने वाला जरूर है लेकिन दुनिया में ऐसी कोई बीमारी नहीं जिसका इलाज नहीं। अगर नेपोटिज्म जैसी सामाजिक बुराई एक चमकदार उद्योग को मलीन करने लगा है तो इसका इलाज भी करना ही होगा। फिल्म उद्योग को रेगुलेट करने के लिए अब नियामक बैठाना होगा। वह रेगुलेटर तय करेगा कि खेल का नियम क्या होगा? यकीन मानिए अब केवल फिल्मों को रिलीज करने के लिए सेंसर बोर्ड से काम नहीं चलने वाला। जिन मामलों में इनरवर्ल्ड ने अपनी दखल बढ़ा दी है उनमें उस नियामक के नियमानुसार हस्तक्षेप से इंडस्ट्री की गंदगी का कुछ हिस्सा तो साफ हो ही जाएगा। लेकिन सवाल ये भी है कि क्या केंद्र सरकार इसकी गंभीरता को समझ रहा है। क्या मनोरंजन उद्योग से जुड़ा महकमा इसको लेकर चिंतित है?
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