नवेद शिकोह
“यूपी के आगामी विधानसभा चुनाव में ओवेसी के साथ बसपा का गठबंधन दलित-मुस्लिम कार्ड खेलकर चौका सकता हैं। फिलहाल यूपी में भाजपा के साथ मायावती के मधुर रिश्ते हैं और बिहार में वो ओवेसी के साथ गठबंधन धर्म निभा रही हैं। अलग-अलग दिशाओं के इन नये दोस्तों मे से बसपा किसी एक को आगामी यूपी विधानसभा चुनाव के लिए चुनेंगी।”
दलित और मुस्लिम वोटों की टांगों से चलने वाले हाथी ने सूंड में कमल लेकर खुद को लंगड़ा करने की भूल कर ली है। खाया पिया कुछ नही और गिलास तोड़ा बारह आने का, की तर्ज पर भाजपा से बसपा का सियासी रिश्ता सेट नहीं हो पायेगा। लेकिन दोनों के मधुर रिश्तों की चर्चाओं मे मुस्लिम समाज बसपा से विश्वास का रिश्ता तोड़ लेगा। और फिर बिना बंटे मुस्लिम वोट पूरा का पूरा कांग्रेस, सपा-रालोद के संभावित गठबंधन की झोली में आ जायेगा।
सपा-कांग्रेस का इस तरह का उक्त सपना टूट भी सकता है। उच्च पदस्थ सूत्रों की मानें तो बसपा सुप्रीमों यूपी के आगामी विधानसभा चुनाव में असदुद्दीन ओवेसी के एआईएमआईएम के साथ गठबंधन कर सकती हैं। इस तरह दलित-मुस्लिम का मजबूत सियासी कार्ड खेलकर बसपा यूपी में अपने विरोधियों को कड़ी चुनौती देने की रणनीति तैयार कर रही हैं।
फिलहाल इन दिनों बसपा सुप्रीमों मायावती का मौजूदा रुख़ एक ऐसी पहेली बन गया है जिसे बड़े से बड़ा राजनीतिक पंडित भी नहीं बूझ पा रहे हैं, लेकिन दिमाग़ की बत्ती जलाकर देखिए तो दिखेगा कि मायावती के दोनों हाथो में लड्डू हैं।
उत्तर प्रदेश में राज्यसभा चुनाव में भाजपा द्वारा बसपा के लिए अप्रत्यक्ष रूप से एक सीट छोड़ने के बाद इन दोनो दलों की नजदीकियों की चर्चाएं तेज हुईं। इस बीच बसपा के विधायक टूट कर सपा के नजदीक आये और सपा-बसपा के बीच टकराव-टू का दौर आरम्भ हुआ। मायावती ने खुल कर कह दिया कि हम सपा को हराने के लिए भाजपा को जिता सकते हैं।
यूपी में बसपा ने भाजपा से मधुर सम्बंध बनाये हैं और बिहार में भाजपा के धुर विरोधी असदुद्दीन ओवेसी की पार्टी एआईएमआईएम के गठबंधन संग बसपा चुनाव लड़ रही है।
बहुत कम संभावना ये भी है कि करीब सवा साल बाद यूपी के विधानसभा चुनाव से पहले यदि भाजपा को लगता है कि उसकी स्थिति अच्छी नही है तो वो बसपा के लिए ठीक-ठाक सीटें छोड़कर उसके साथ गठबंधन कर सकती है। अथवा इनके बीच आपसी सामंजस्य फ्रेंडली फाइट कर पोस्ट पोल गठबंधन कर सरकार बनाने का वैकल्पिक रास्ता तैयार रख सकता है।
और यदि भाजपा को लगा कि उसकी स्थिति यूपी में ठीक है और अकेले दम पर दुबारा सरकार बन सकती है तो ऐसे में दोनों के बीच तल्ख रिश्ते बन जायेंगे। ऐसी हालात में बसपा के पास दूसरा मजबूत विकल्प है। जो यूपी में त्रिकोणीय मुकाबले की सूरत पैदा करेगा
एक तरफ बीजेपी, दूसरी तरफ सपा-कांग्रेस, रालोद का संभावित गठबंधन, और तीसरी तरफ बसपा और एआईएमआईएम का मजबूत गठबंधन। जिसमें दलित-मुस्लिम का ये गठजोड़ भाजपा और सपा-कांग्रेस गठबंधन को कड़ा मुकाबला दे सकता है।
बसपा का आधार दलित और मुस्लिम वोट है। लोग कह रहे हैं कि मौजूदा समय में भाजपा से मधुर रिश्तों के बाद बसपा के दामन से पूरी तरह से छिटक कर मुस्लिम वोट एक झटके में सपा-कांग्रेस के संभावित गठबंधन में चला जायेगा। और पूरे का पूरा यूपी का ये बीस फीसद मुस्लिम वोट सपा-कांग्रेस की झोली मे आ जायेगा।
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लेकिन मायावत जैसी परिपक्व नेत्री ऐसा नहीं होने देंगी। भाजपा से किसी किस्म का कोई गठजोड़ नहीं हो सका तो बसपा ओवेसी की एआईएमआईएम को कुछ सीटें देकर यूपी में दलित-मुस्लिम समीकरण का कार्ड खेल सकती है।
मौजूदा समय में भाजपा से सकारात्मक रिश्तों के संकेत देखकर कोई बसपा सुप्रीमों मायावती को कंफ्यूज कह रहा है, तो कोई कह रहा है कि वो भाजपा के गठबंधन का हिस्सा बनने जा रही हैं। व्यंग्यात्मक लहजे में ये भी कहा जा रहा है कि पहले मजबूरी का नाम महत्मा गांधी था पर अब मजबूरी का नाम मोदी-योगी है। पिछले आठ-नौ वर्षों में बसपा का जनाधार लगातार कम होता जा रहा है।
सत्ता में वापसी के लिए वो अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंदी और धुर विरोधी सपा तक के साथ समझौता करने के बाद भी सफल नहीं हुईं। केंद्र और यूपी में भाजपा की सरकारे हैं। अपने आधार उत्तर प्रदेश में आक्रामक विपक्षी की भूमिका मे ना आने के पीछे तमाम मजबूरियां हैं। सीबीआई और ईडी जैसी एजेंसियों की तलवार कभी भी लटक सकती है।
इन तमाम दुश्वारियों में भी बसपा सुप्रीमों एक परिपक्व राजनीतिज्ञ की तरह मोहरें बिछा रही हैं। उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में बसपा अकेले लड़ेगी, भाजपा के गठबंधन का हिस्सा बनेगी या बसपा का किसी और दल के साथ गठबंधन होगा !
ये तमाम प्रश्न यश्र प्रश्न बन गये हैं। राजनीतिक पंडित कह रहे हैं कि यूपी की राजनीति में मायावती के सियासी बयान देखकर लग रहा है कि वो खुद कनफ्यूज हैं या फिर दूसरों को कनफ्यूज किया गया है।
उत्तर प्रदेश को देश की राजधानी की धुरी कहा जाता है। दशकों सत्ता पर काबिज रहने वाले कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल को हाशिये पर लाकर यूपी में अपनी जड़ें फैलाने वाले सपा-बसपा को हल्के में लेना नादानी है। मोदी वेब के दौरान ये दोनों दल फूंक-फूंक के कदम रखते रहे हैं। अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए ये हर प्रयोग और हर समझौता करते रहे हैं।
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बसपा सुप्रीमों मायावती और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की निष्क्रियता का भी गहर अर्थ है। इधर चार-पांच वर्षों में भाजपा का तेजी से बढ़ता जनाधार इन क्षेत्रीय दलों के कार्यकर्ताओं को भी ले उड़ा है। इसलिए ये सरकार के खिलाफ सड़क पर उतर कर अपने बौने हो चुके जनाधार की नुमामश नहीं करना चाहते।
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बावजूद ऐसी विपरीत स्थितियों मे भी इन दोनों ही दलों के मुखिया हाथ पर हाथ रखे नहींं बैठे रहे। होमवर्क और सियासी डेस्क वर्क के साथ पर्दे के पीछे से बिसात बिछा रहे हैं और अपने-अपने अच्छे दिनों का इंतज़ार कर रहे हैं।
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यूपी के आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा से मुकाबले के लिए कोई भी दल अकेले ताल ठोकने की स्थिति में नहीं हैं। सपा और रालोद साथ है और इनकी कांग्रेस के साथ खिचड़ी पक ही रही है। बसपा की भाजपा के साथ चलने की उम्मीद बहुत कम है पर ओवेसी को साथ लेकर मायावती अपने विरोधियों को कड़ी चुनौतियां दे सकती हैं।