के पी सिंह
जातिवाद प्रेरित गिरोहबंदी देश में संवैधानिक शासन के लिए बड़ी चुनौती बनती जा रही है। एक ओर हाल में उग्र राष्ट्रवाद का उभार चर्चाओं कें केंद्र में था दूसरी ओर देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में जातिवाद उभार हिंदुत्व की छतरी को छेदने लगा है।
पहले दलित और पिछड़े वर्तमान शासन के खिलाफ जातिवाद और भेदभाव को लेकर मुखर थे, अब ब्राहमणों को लग रहा है कि इस शासन द्वारा उनके दमन और उत्पीड़न का सुनियोजित कुचक्र रचा जा रहा है। सरकार के कर्ता-धर्ता उनकी चरम तिक्तता देख हतप्रभ हैं।
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की जातिगत पैतरे की राजनीति ने अभी कुछ समय पहले तक उत्तर प्रदेश मे कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की वह गत बना दी थी कि दोनों पार्टियों को प्रदेश में पैर रखने तक की जगह नही मिल पा रही थी। पर अंततोगत्वा राष्ट्रवाद के तूफानी सैलाब में जातिगत उफान तिनके की तरह बह गया।
हिंदुत्व के नाम पर कमल निशान पर 2019 में वोटों की ऐसी वर्षा हुई कि सपा-बसपा के वजूद पर बन आई। अनुमान किया गया था कि यह इतना गहरा घटाटोप है कि शायद कई दशकों तक उत्तर प्रदेश में दूसरी पार्टियां अब इससे न उबर पायें। पर बिल्लियों में तब्दील हो चुकीं भाजपा की प्रतिद्वंदी पार्टियों का भाग्य एकाएक बलवती नजर आने लगा क्योकि ऐसी उथल-पुथल सामने आ गई है जो उनके लिए छींका टूटने की उम्मीद पैदा करने वाली है।
भाजपा ने हिंदुत्व को ट्रंपकार्ड के रूप में इस्तेमाल करते हुए भी उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में एतिहात बरता था और गफलत से बचने के लिए केशव मौर्य के चेहरे को आगे करके तब पार्टी द्वारा चुनाव लड़ा गया था। इसी क्रम में स्वामी प्रसाद मौर्य को उनके चुभते बोल का दर्द नजर अंदाज करके भाजपा में शामिल किया गया था। ओमप्रकाश राजभर जैसे लोगों से केर-बेर का संग जानते हुए भी काफी भाव देकर गठबंधन किया गया था।
पर चुनाव बाद लगा कि भाजपा असलियत पर आ गई है और रुख पलटकर उसने किसी पिछड़े नेता की बजाय मुख्यमंत्री पद के लिए योगी आदित्यनाथ का वरण कर लिया | इससे अप्रत्यक्ष तौर पर जो संदेश दिया गया योगी ने उसके प्रति कायल रहने की भंगिमा जताते हुए उक्त संदेश पर अपने को खरा साबित करने की कोशिश कार्य प्रणाली में की।
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नतीजा यह निकला कि भाजपा के हिंदुत्व की सींवने फटने लगीं। इसका परिणाम तीन महत्वपूर्ण उपचुनावों में भाजपा की ताबड़तोड़ पराजय के रूप में सामने आया था। फिर भी योगी आदित्य नाथ ने अपनी मानसिकता नही बदली। तब ठाकुर-ब्राहमण का हनीमून सिर चढ़ कर बोल रहा था।
इसी से उत्साहित होकर जब लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा ने गठबंधन किया तो दोनों के हौसले काफी बुलंद थे लेकिन पुलवामा में सीआरपीएफ के कारवां पर आतंकी हमले के बाद राजनीतिक फिजा ऐसी बदली कि जातिगत पहचानों का द्वंद प्रचंड राष्ट्रवादी तूफान में पूरी तरह तितर-बितर हो गया।
इससे जब उत्तरप्रदेश में भी पार्टी की स्थिति बेहद शक्तिशाली हो गई तो योगी ने पूरी निरंकुशता और मनमानी के साथ काम किया। भाजपा के पिछड़े नेता तक अपने समाज की उपेक्षा को लेकर गुबार निकालते नजर आये फिर भी योगी ने कान नहीं धरे। उलटे जुबान खोलने वाले सीतापुर के राकेश राठौर जैसे विधायकों को संगठन से नोटिस जारी करा दिये। ओमप्रकाश राजभर को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया।
लेकिन सवर्णवाद आखिर छलावा साबित हुआ। ठाकुर-ब्राहमण के सनातन सत्ताद्वंद की ग्रंथि फिर विकास दुबे के बहाने उभर आई है। प्रदेश में बढ़ी हत्याओं के शिकार लोगों में ब्राहमणों का जोड़ लगाकर जाति विशेष के सफाये की तोहमत सत्ता पर मढ़ी जा रही है। मुददा कानून व्यवस्था का है (किसी जाति का नही) जो सरकार की बचकानी हरकतों की वजह से पटरी पर नही आ पा रही है।
होना तो यह चाहिए था कि कायदे के एक-दो एनकाउंटर से ही पूरे प्रदेश में तहलका मच जाता लेकिन अब जबकि एनकाउंटर को रुटीन बना दिया गया है तो आये दिन मुठभेड़ में बदमाशों के मारे जाने या घायल होने के बावजूद कहीं पुलिस का सिक्का जमता नही दिख रहा है। उधर खंडित सोच का परिणाम है कि व्यवस्था के बिगाड़ पर समग्रता में बहस की स्थिति नही बन पा रही जो कोढ़ में खाज की हालत उत्पन्न कर रही है।
पिछड़ों और दलितों में उन्हें अलग-थलग किये जाने की घर करती भावना को लेकर अगर सत्ता समय रहते संवेदना दिखा सकी होती तो शायद उसने अभी तक नकारात्मक जाति विमर्श का निदान पा लिया होता। पर अब वह तब चेती है जब ब्राहमणों के असंतोष का विस्फोट हुआ।
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हड़बड़ाहट में भाजपा के ब्राहमण विधायकों से संपर्क कर उनका मन टटोला जा रहा है। इतिहास गवाह है कि भारतीय समाज में जब शिखर पर बेचैन हालात बनते है तो गाज किसी शम्बूक पर गिरती है। क्या स्वामी प्रसाद मौर्य को इसकी आड़ में दंडित कराने का समाधान स्वरूप फार्मूला इसी इतिहास को दोहराने के लिए है।
कल्याण सिंह तक को नोटिस में नही लिया
बात ओमप्रकाश राजभर की नही है, अनुप्रिया पटेल की भी नही है और स्वामी प्रसाद मौर्य की भी नही। भाजपा के धीर-गंभीर और अत्यंत वरिष्ठ नेता कल्याण सिंह तक को अपनी पार्टी की सरकार में दलितों-पिछड़ों की उपेक्षा देखकर विचलित होना पड़ा। 2 वर्ष पहले जब वे राजस्थान के राज्यपाल थे, पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह की लखनऊ में आयोजित श्रद्धांजलि सभा में उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था।
उस समय उन्होंने तहसील, थाना से लेकर जिला प्रमुखों तक की प्रशासनिक पोस्टिंग में प्रतिनिधित्व के मामले में पिछड़े-दलितों के साथ न्याय न किये जाने पर वेदना जताई थी और उन्हें अपना हक हासिल करने के लिए संघर्ष के मैदान में उतरने को ललकारा भी था। पर उस समय उनकी शिकायत दूर करने की कोई वैसी पहल नही की गई जैसी आज ब्राहमणों के मामले में की जा रही है।
भाजपा विधायक बोले-बैकवर्ड का लायसेंस कैसे बनेगा
भारतीय जनता पार्टी के सीतापुर से एक विधायक हैं राकेश राठौर जो साहू समाज से आते हैं। कुछ महीने पहले उनका एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें वे अपने एक सजातीय कार्यकर्ता से कह रहे थे कि तुम्हारे लायसेंस की सिफारिश तो मैं कर दूंगा लेकिन तुम्हारा लायसेंस बनेगा नही।
इस सरकार में काम सिर्फ अपर कास्ट के होते हैं, पिछड़े और दलित तो केवल ताली बजाने और थाली पीटने के लिए हैं। इसके बाद राकेश राठौर को पार्टी ने नोटिस जारी कर दिया पर तो भी उन्होंने अपना बयान वापस नही लिया है। राकेश राठौर तो खुलकर गुबार निकालने वालों में हैं लेकिन भाजपा के ज्यादातर बैकवर्ड एमएलए व्यक्तिगत बातचीत में इसी तऱह ़की पीड़ा छलकाते हैं।
स्वामी प्रसाद मौर्य की बर्खास्तगी की मांग क्यों
प्रदेश के श्रम मन्त्री स्वामी प्रसाद मौर्य पहले बसपा में थे और उनकी पहचान वहां मिशनरी कार्यकर्ता के रूप में थी।भाजपा में आने के वाबजूद उनके तेवर पूरी तरह बदल नहीं पाए हैँ। गत वर्ष रायबरेली के अप्टा गांव में 5 ब्राह्मण युवकों की एक संघर्ष में मौत हो गयी थी।
राज्य सरकार ने इसे उनकी हत्या का मामला मानते हुए उनके परिजनों को आर्थिक सहायता की घोषणा की थी पर स्वामी प्रसाद मौर्य ने उन्हें हमलावर ठहरा दिया था। तब से पूरे प्रदेश में ब्राह्मण समुदाय उनसे नाराज है। अब ब्राह्मणों को संतुष्ट करने के लिए मौर्य को मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने की मांग फिर उठायी जा रही है।