न्यूज डेस्क
चुनावी बॉन्ड (इलेक्टोरल बॉन्ड) को लेकर संसद में शुक्रवार के जमकर हंगामा हुआ। संसद में विपक्षी दलों ने चुनावी बॉन्ड को औपचारिक भ्रष्टाचार का स्रोत कहा तो वहीं भारतीय जनता पार्टी ने इसका पलटवार करते हुए कहा है कि विपक्षी दल इसे बेवजह का मुद्दा बना रहे हैं। हालांकि केन्द्र सरकार ने जब चुनावी बॉन्ड लाने की घोषणा की थी तो उसने दावा किया था कि इससे चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता आयेगी। फिलहाल हम आपको बताते हैं कि आखिर क्या है इलेक्टोरल बांड और राजनीतिक पार्टियों के लिए क्यों होता है बेहद खास।
क्या है चुनावी बॉन्ड
केंद्र की मोदी सरकार ने चुनावी चंदे को पारदर्शी बनाने के लिए वित्त वर्ष 2017-18 के बजट में इलेक्टोरल बॉन्ड शुरू करने का एलान किया था। चुनावी बॉन्ड से मतलब एक ऐसे बॉन्ड से होता है, जिसके ऊपर एक करेंसी नोट की तरह उसकी वैल्यू लिखी होती है। यह बांड व्यक्तियों, संस्थाओं अथवा संगठनों द्वारा राजनीतिक दलों को रकम दान करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
इलेक्टोरल बॉन्ड एक हजार, दस हजार, एक लाख, दस लाख तथा एक करोड़ रुपये के मूल्य के होते हैं। सरकार की ओर से इस बॉन्ड को जारी करने और उसे भुनाने के लिए भारतीय स्टेट बैंक को अधिकृत किया गया है, जो अपनी 29 शाखाओं के माध्यम से यह काम करता है। इतना ही नहीं इलेक्टोरल बॉन्ड को लाने के लिए सरकार ने फाइनेंस एक्ट-2017 के जरिये रिजर्व बैंक एक्ट-1937, जनप्रतिनिधित्व कानून -1951, आयकर एक्ट-1961 और कंपनी एक्ट में कई संशोधन किए गए थे।
मोदी सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को दो जनवरी 2018 को अधिसूचित किया। इसके अनुसार कोई भी भारतीय नागरिक या भारत में स्थापित संस्था यह चुनावी बॉन्ड खरीद सकती है। चुनावी बॉन्ड खरीदने के लिए संबंधित व्यक्ति या संस्था के खाते का केवाइसी वेरिफाइड होना आवश्यक होता है।
जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 29ए के तहत पंजीकृत राजनीतिक पार्टियां तथा पिछले आम चुनाव या विधानसभा चुनाव में जनता का कम से कम एक फीसद वोट हासिल करने वाली राजनीतिक पार्टियां ही चुनावी बॉन्ड के जरिये पैसे ले सकती हैं। चुनावी बांड पर बैंक द्वारा कोई ब्याज नहीं दिया जाता है।
्र
राजनीतिक पार्टियां नकद चंदे के रूप में दो हजार से बड़ी रकम नहीं ले सकती हैं। चुनावी बॉन्ड पर सरकार की दलील है कि बॉन्ड पर दानदाता का नाम नहीं होता है, और पार्टी को भी दानदाता का नाम नहीं पता होता है। सिर्फ बैंक जानता है कि किसने किसको यह चंदा दिया है। इसका मूल मंतव्य है कि पार्टी अपनी बैलेंसशीट में चंदे की रकम को बिना दानदाता के नाम के जाहिर कर सके।
15 दिनों तक होता है मान्य
इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे जाने के बाद यह केवल 15 दिनों तक मान्य रहता है। इस संबंध में केंद्र सरकार का कहना था कि कम अवधि की वैधता के कारण बांड के दुरुपयोग को रोकने में मदद मिलती है। इसका मतलब है कि इन्हें खरीदने वालों को 15 दिनों के अंदर ही राजनीतिक दल को देना पड़ता है और राजनीतिक दलों को भी इन्हीं 15 दिनों के अंदर इसे कैश कराना होगा।
शुरु से रहा है विवादों में
आरटीआई के हवाले से एक रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने वित्त मंत्रालय को दो मौकों पर राज्य विधानसभा चुनावों के लिए समय से पहले बिक्री को मंजूरी देने के लिए विशेष विंडो खोलने को कहा। जबकि नियम के मुताबिक बॉन्ड की बिक्री के लिए एक विशिष्ट वार्षिक अवधि निर्धारित है। वहीं 2017-18 में सबसे ज्यादा 222 करोड़ रुपये (95 फीसद) के बॉन्ड भारतीय जनता पार्टी को मिले।
यह भी पढ़ें : 91 फीसदी से ज्यादा चुनावी बॉन्ड एक करोड़ रुपये के खरीदे गए
यह भी पढ़ें : दिल्ली में पानी की शुद्धता विवाद मामले में सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा
जतायी गई थी आपत्तियां
एक अन्य आरटीआई से मिले दस्तावेज के मुताबिक भारतीय रिजर्व बैंक और चुनाव आयोग ने इस योजना पर आपत्तियां जताई थीं, लेकिन केन्द्र सरकार द्वारा इसे खारिज कर दिया गया था। आरबीआइ ने 30 जनवरी, 2017 को लिखे एक पत्र में कहा था कि यह
योजना पारदर्शी नहीं है, मनी लांड्रिंग बिल को कमजोर करती है और वैश्विक प्रथाओं के खिलाफ है। इससे केंद्रीय बैंकिंग कानून के मूलभूत सिद्धांतों पर ही खतरा उत्पन्न हो जाएगा। वहीं चुनाव आयोग ने दानदाताओं के नामों को उजागर न करने और घाटे में चल रही कंपनियों (जो केवल शेल कंपनियों के स्थापित होने की संभावनाएं खोलती हैं) को बॉन्ड खरीदने की अनुमति देने को लेकर चिंता जताई थी।
कानून मंत्रालय ने दिया सुझाव
एक अन्य आरटीआइ द्वारा प्राप्त किए गए दस्तावेजों के मुताबिक, कानून मंत्रालय ने सुझाव दिया था कि न्यूनतम वोट शेयर की आवश्यकता या तो 6 फीसद होनी चाहिए (मान्यता प्राप्त 52 राज्य और 8 राष्ट्रीय दलों के लिए) या बिल्कुल नहीं ( वर्तमान आवश्यकता 1 फीसद है)। जबकि यह स्पष्ट नहीं है कि 2,487 गैर-मान्यता प्राप्त दलों में से 1 फीसद वोट शेयर कितनों का है।
वहीं कुछ लोगों ने यह भी आरोप लगाया है कि चूंकि इन बॉन्ड को बेचने वाला भारतीय स्टेट बैंक खरीदार की पहचान जानता है, इसलिए सत्ता में सरकार आसानी से यह पता लगा सकती है कि बॉन्ड किसने और किसके लिए खरीदा है। सुप्रीम कोर्ट इन बॉन्ड की वैधता पर एक याचिका पर सुनवाई कर रहा है।
यह भी पढ़ें : जेएनयू ने फीस बढ़ाने की क्या वजह बताई
यह भी पढ़ें : 91 फीसदी से ज्यादा चुनावी बॉन्ड एक करोड़ रुपये के खरीदे गए