हेमेन्द्र त्रिपाठी
कांग्रेस की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। केंद्र से लेकर राज्यों में दिन-प्रतिदिन कमजोर हो रही कांग्रेस पर अब उनके सहयोगी दल भी किनारा करने लगे हैं। यूपीए के सहयोगी दलों पर कांग्रेस की निष्क्रियता भारी पड़ती दिख रही है।
पिछले दिनों शिवसेना ने यूपीए अध्यक्ष के लिए एनसीपी प्रमुख शरद पवार के नाम की वकालत की तो कांग्रेस को यह बात नगवार गुजरी थी। महाराष्ट्र कांग्रेस के महासचिव ने सोनिया गांधी को पत्र लिखकर शिवसेना और एनसीपी पर कांग्रेस के खिलाफ साजिश रचने का आरोप लगाया था। कांग्रेस के विरोध के बावजूद भी शिवसेना की यह मांग अब जोर पकड़ती दिख रही है।
इसके कई कारण है। पहला यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया की सेहत का ठीक न होना और दूसरा राहुल गांधी का गैर जिम्मेदाराना रवैया। यूपीए के सहयोगी दलों को लग रहा है कि भाजपा के खिलाफ जिस तरह से यूपीए को दमखम दिखाना चाहिए वह दिखा नहीं पा रहा है। इसलिए बदलाव की मांग की जा रही है।
यदि ऐसा होता है तो एनडीए से अलग हो चुकी कांग्रेस के साथ असहज महसूस करने वाली अकाली दल जैसी पार्टियां भी यूपीए का हिस्सा बन सकती हैं। इससे यूपीए सत्तारूढ़ एनडीए के सामने और मजबूती से खड़ा हो पाएगा। शायद यही वजह है कि यूपीए के सहयोगी दल अब कांग्रेस से दूरी बना रहे हैं।
दरअसल विपक्ष के भीतर यह विचार ऐसे ही नहीं आया है। राहुल गांधी की विदेश यात्रा के चलते जितनी फजीहत कांग्रेस को उठानी पड़ती है उतना ही उसके सहयोगी दलों को भी उठाना पड़ता है। देश में किसान आंदोलन पूरे शबाब है पर और इस बीच राहुल गांधी इटली चले गए। ऐसे मौके पर जब उन्हें अपने सहयोगी दलों को साथ लेकर इस मुद्दे को लेकर केंद्र सरकार के खिलाफ खड़े होने की जरूरत है तो वह गायब हो गए।
यह पहली बार नहीं है। राहुल गांधी ऐसा कई बार कर चुके हैं। भाजपा वैसे भी इस मौके की तलाश में रहती है और राहुल हर बार भाजपा को बैठे-बिठाए मौका दे देते हैं। इसीलिए विपक्ष के अंदर यह विचार जन्म लेता दिख रहा है कि अगर मुख्य पार्टी होने के नाते कांग्रेस अपनी भूमिका सही तरीके से नहीं निभा पा रही है तो विपक्ष को अपने बीच से कोई नया चेहरा राष्टï्रीय राजनीति के लिए प्रस्तुत करना चाहिए। और इस भूमिका के लिए शरद पवार को उपयुक्त पाया जा रहा है।
कई अहम मौके पर विदेश यात्रा पर गये राहुल
विपक्ष के नेताओं का ऐसा मानना है कि राज्यों में विधानसभा चुनाव में सभी क्षेत्रीय दल एनडीए से मुकाबला कर रहे हैं। उन्हें वहां राहुल गांधी की जरूरत नहीं है लेकिन लोकसभा चुनाव में बीजेपी का मुकाबला करने के लिए राष्ट्रीय स्तर की पार्टी और उसके एक नेता का चेहरा तो होना ही चाहिए। इस मौके के लिए क्षेत्रीय दलों से बात नहीं बनने वाली है।
कई अहम मौके पर जब राहुल गांधी को देश में होना चाहिए था तो वो विदेश यात्रा पर चले गये। ऐसे करने से उनकी छवि एक गैर जिम्मेदार नेता की बनती जा रही है। ऐसे में मोदी के खिलाफ धारणा की लड़ाई भी कमजोर होती जा रही है।
राहुल गांधी की विदेश यात्राओं में कई ऐसी यात्रा हैं जो उन्होंने ऐसे मौकों पर कीं जिस वक्त मुख्य विपक्षी पार्टी के नेता होने के नाते उनका देश में मौजूद रहना ज्यादा जरूरी था। इन यात्राओं को टाला जा सकता था।
राहुल गाँधी की विदेश यात्राओं का मुद्दा लोकसभा में भी उठा। उस समय एक सवाल के जवाब में सरकार की ओर से पिछले साल यह बताया गया था कि 2015 से 2019 के बीच राहुल गांधी ने 247 बार विदेश यात्राएं की हैं। इस वजह से कई बार तो कांग्रेस पार्टी को ही अपने कार्यक्रमों स्थगित करना पड़ा है।
हाल ही में राहुल की विदेश यात्रा भी इसी वजह से चर्चा में हैं कि अव्वल किसान आंदोलन शबाब पर है। दूसरा खुद कांग्रेस की स्थापना दिवस भी था लेकिन इन दोनों मौकों को नजरअंदाज करते हुए राहुल गांधी विदेश यात्रा पर निकल गये।
इसी तरह पिछले सालयानी 2019 में दिसंबर महीने में जब विपक्षी दलों समेत पूरा देश एनआरसी और सीएए के खिलाफ सड़क पर उतर गया था तो राहुल गांधी देश में मौजूद नहीं थे। वह दक्षिण कोरिया की यात्रा पर थे।
कुछ और घटनाओं का जिक्र करना जरूरी है। दिसंबर 2012 में निर्भया मामले में पूरे देश में आंदोलन चल रहा था तब भी राहुल गांधी विदेश चले गए थे। हां, उस वक्त सत्ता में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी। 2015 में मोदी सरकार बनने के बाद भूमि अधिग्रहण बिल पर विपक्ष एकजुट हो रहा था तब भी राहुल सदन में मौजूद नहीं थे। वह करीब दो महीने विदेश में रहे थे।
उसी साल सिंतबर माह में बिहार में विधानसभा के चुनाव प्रचार के दौरान राहुल विदेश चले गए थे। उस समय उनका खूब मजाक उड़ा था। 8 नवंबर 2016 को जब मोदी सरकार ने हजार और पांच सौ रुपए के नोट पर प्रतिबंध लगाया तो पूरा देश बैंक और एटीएम के कतार में खड़ा हो गया।
राहुल गांधी ने जोरदार तरीके से नोटबंदी का विरोध किया लेकिन कुछ समय बाद ही वह विदेश चले गए। विपक्ष ने उनके इस यात्रा पर चुटकी ली थी। इसके अलावा 2019 में अक्टूबर माह में महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजे आने से पहले ही वह विदेश चले गए थे। इन दोनों राज्यों के चुनावों में भी राहुल ने कुछ खास रूचि नहीं ली थी।
नए चेहरे के तलाश में विपक्ष
शरद पवार के नाम पर कई क्षेत्रीय दलों के नेता सहमति पहले भी जता चुके हैं। कांग्रेस को लेकर इन दलों में कोई उत्साह इसलिए नहीं दिख रहा है क्योंकि विधानसभा चुनावों में उसका स्ट्राइक रेट काफी घटता जा रहा है। इसका ताजा उदाहरण बिहार है। जब उसने दबाव के जरिए 2015 के मुकाबले आरजेडी से कहीं ज्यादा सीटें छुड़वा लीं लेकिन उस पर कामयाबी दर्ज नहीं कर पाई।
बिहार नतीजे आने के बाद आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी को कहना पड़ा कि, ‘कांग्रेस ने 70 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे, लेकिन 70 चुनावी रैलियां तक नहीं की। राहुल गांधी मात्र तीन दिन के लिए आए और प्रियंका गांधी तो आईं भी नहीं। जब चुनाव प्रचार जोरों पर था तो राहुल गांधी शिमला में प्रियंका गांधी के घर पर पिकनिक मना रहे थे। उन्हें इस पर गंभीर होकर विचार करना चाहिए।’