के पी सिंह
उत्तर प्रदेश पुलिस के महानिदेशक ओपी सिंह ने मुस्लिम समाज की सड़क घेरकर नमाज अदा करने की परंपरा को रोकने के लिए सार्वजनिक स्थानों पर किसी भी ऐसे धार्मिक आयोजनों पर जिससे लोगों को परेशानी हो रोक का सर्कुलर पूरे प्रदेश के लिए जारी कर दिया है। यह व्यवस्था पहले मेरठ और अलीगढ़ में कर दी गई थी जब बजरंगियों ने सड़क पर नमाज के जबाव में सड़क रोककर आरती और कीर्तन के कार्यक्रम शुरू कर दिये थे।
इसके बाद जब अधिकारी उन्हें रोकने पहुचे तो उन्होंने साफ तौर पर यह मांग रख दी कि पहले सड़क पर नमाज न होने देने का भरोसा दिलाया जाये इसके उपरांत वे पीछे हटेंगे। आखिर में अधिकारियों को घुटने टेकने पड़े।
निश्चित रूप से यह सब भारतीय जनता पार्टी के दिग्विजयी एजेंडे के तहत हो रहा है। इसके लिए बाकायदा रणनीति के तहत काम किया जा रहा है। भाजपा को यह पता है कि अपनी विचारधारा के पक्ष में जनमत संगठित करने के लिए कौन सी हलचल प्रभावी होगी और चुन-चुनकर ऐसी हलचलों को सामने लाया जा रहा है। भाजपा इस कारण यह कर पा रही है क्योंकि वह अपने विचारों और लक्ष्य में स्पष्ट है। जबकि दूसरे दोहरेपन के कारण असमंजस के शिकार रहते हैं।
वे परंपरागत राजनीतिक फार्मूलों से भाजपा को मात देना चाहते हैं लेकिन ऐसे फार्मूलों की धार भौथरी पड़ चुकी है। कांग्रेस का लक्ष्य मध्य मार्ग के आधार पर धर्मनिरपेक्ष राज्य का संचालन करना है लेकिन यह समझाने की बजाय कि धर्म निजी आस्था का मामला है जिसकी राज्य में मिलावट कैसे ठीक नहीं है उसके नेता खुद मंदिरों-मंदिरों में जाकर अपने को अधिक कट्टर धार्मिक साबित करने में लग गये जो कि निहायत फरेब था।
मायावती मनुवाद से मुक्त समाज व्यवस्था पर आधारित राजनीतिक निजाम चाहती हैं लेकिन उन्हें मनुवादी ही आकर्षित करते हैं क्योंकि जब बोली लगाकर टिकट बांटने की नीति उन्होंने अपना रखी है तो यह उनकी मजबूरी है। इसके कारण उन्होंने वर्ण व्यवस्था के खिलाफ खड़े होने की मौलिक पहचान खत्म करके बसपा की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
समाजवादी पार्टी का भी आचरण पूरी तरह दिशाहीन है। जिसके कारण वह अपने साथ लोगों को संगठित करने के लिए कोई कशिश पैदा नहीं कर पा रही है। दूसरी ओर बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे मूल सवालों पर अपनी सरकारों की विफलता के बावजूद भाजपा अपने सिद्धहस्त एजेंडे की बदौलत प्रतिद्वंदियों से कोसों आगे निकलती जा रही है।
बहरहाल यह सार्वजनिक व्यवस्था के प्रबंधन के लिए उत्तर प्रदेश के डीजीपी द्वारा जारी सर्कुलर का एक पहलू है लेकिन दूसरी ओर यह भी सच है कि विकास की जरूरतों और यातायात व्यवस्था जैसे तकाजों के मद्देनजर धार्मिक भावना के नाम पर सड़कों के ऊपर रूकावट पैदा करने को बहुत सहन नहीं किया जा सकता भले ही मामला नमाज का हो या भजन का।
इन्हीं कारणों से जयपुर के सौन्दर्यीकरण के लिए राजस्थान की तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने जब अतिक्रमण कर बनाये गये पूजा स्थल ढ़हाने शुरू किये तो अपने ही लोग उनके खिलाफ खड़े हो गये। सार्वजनिक व्यवस्था के निरपेक्ष दृष्टिकोण से धार्मिक हठवादिता पर रोक लगाने का प्रयास किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं होता।
इमरजेंसी में जब काग्रेंस ने दिल्ली और आगरा को सुव्यवस्थित करने के लिए अतिक्रमण विरोधी अभियान चलाया तो धर्म विशेष के लोगों में जो गुस्सा फैला उसी का नतीजा उसे 1977 के चुनाव में सत्ता से अपदस्थ होकर भोगना पड़ा। यह मिसाल राज्य के धर्मनिरपेक्ष रहने के औचित्य को मजबूती प्रदान करती है। लेकिन यह बात भी सही है कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर तुष्टिकरण नहीं होना चाहिए जिससे यह अवधारणा बदनामी के लिए अभिशप्त हुई है। इसी नजरिये से पश्चिम बंगाल में धर्मनिरपेक्षता के लिए ममता बनर्जी के ‘‘जिहाद’’ का समर्थन नहीं किया जा सकता।
उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक स्थानों पर धार्मिक आयोजनों पर पाबंदी का कदम धर्मनिरपेक्ष राज्य की कार्रवाई की एक अच्छी मिसाल बन सकता है बशर्ते इसका ईमानदारी से अनुपालन हो। सड़क के किनारे सरकारी जमीन पर पूजा स्थल बनाकर अतिक्रमण करने का रिवाज भी कुछ वर्षो से बढ़त पर है। ऐसा नहीं है कि बीजेपी का राज हो जाने से अचानक यह होने लगा हो।
पहले भी इस तरह की गुस्ताखियों के मामले में सरकारों से लेकर अधिकारी तक धर्मभीरूता दिखाते थे जिसके कारण ऐसा करने वाले प्रोत्साहित होते रहे। सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी जमीन पर बनाये जा रहे नये पूजा स्थलों को लेकर कठोर रूख अख्तियार किया लेकिन प्रशासन का सहयोग न मिल पाने की वजह से मामला टांय-टांय फिस्स हो गया। यह सिलसिला अब और तेज हो गया है जिसके कारण हर शहर कस्बे में बढ़ती गाड़ियों के मद्देनजर मार्ग चैड़े करने में भारी बाधा आ रही है।
इसके साथ-साथ इन तथाकथित मंदिरों पर भंडारे, लंगर आयोजित करने की परंपरा भी चल पड़ी है। जिससे सप्ताह में कुछ दिन घंटों सड़कें जाम बनी रहती हैं। लखनऊ में तो इतनी इंतहा हो गई है कि लोगो की ट्रेन औ फ्लाइट तक छूटने लगी हैं। एम्बुलेंस तक भंडारों में फंस जाती है। क्या डीजीपी साहब का यह आदेश ऐसे आयोजनों पर भी प्रभावी होगा यह देखने वाली बात है।
जहां तक हिन्दू धर्म का सवाल है उसकी व्यवस्थायें बहुत स्पष्ट हैं। हिन्दुओं के मंदिर लगभग निर्जन स्थान पर बनाये जाते हैं जहां पवित्रता बनाये रखने की पर्याप्त व्यवस्था हो। मंदिर में मूर्तियों के अलावा एक सभा भवन भी होता है जिसमें सत्संग चलता रहे ताकि भक्तों के ज्ञान को समृद्ध किया जा सके। इसलिए ऐसी जगह मंदिर बनाना हिन्दू आस्था में कतई मान्य नहीं है जहां स्थान संकुचित हो और आसपास से लगातार आने वाले गुबार मंदिर को मलिन करते रहें।
संवैधानिक मस्तिष्क का अभाव हिन्दू समाज की एक ऐसी कमजोरी साबित हुआ है जो कई बिडम्वनाओं के लिए जिम्मेदार है। आखिर धर्म का भी एक विधान होता है और हिन्दू धर्म का विधान तो बहुत वृहद के साथ-साथ सूक्ष्म भी है। हिन्दू शास्त्रों में भगवान के केवल चैबीस अवतार बताये गये हैं। अगर यह समाज विधान के तहत काम करने वाला होता तो इसमें आसाराम बापू जैसे स्वयंभू अवतारों को मान्यता मिलना कैसे संभव होता।
राजनीतिक कारणों से हिन्दू धर्म के विधान के साथ बहुत मनमानी हुई है। एक समय तो दर्जनों शंकराचार्य पनप गये थे। जगतगुरू की उपाधि हिन्दू धर्म में केवल शंकराचार्य ही धारण कर सकते हैं जबकि यहां तमाम छुटभैये कथावाचक तक अपने को जगतगुरू लिखने लगे जिन्हें कोई नहीं टोक रहा। हिन्दू धर्म का विधान है कि संत किसी भी जाति का हो सकता है लेकिन महामंडलेश्वर आदि धार्मिक पद का अधिकारी केवल ब्राह्मण बन सकता है। इस व्यवस्था के पीछे कोई संकीर्ण जातिवाद नहीं है।
दरअसल शुरूआत में ब्राह्मण संवर्ग में आना स्वैच्छिक था। जो ब्राह्मण के लिए अनिवार्य नियम संयम और वर्जनाओं को स्वीकार करे वहीं ब्राह्मण बन सकता था। एक तरह से ब्राह्मणों का जीवन अत्यंत प्रतिबंधित था। इसलिए लोग ब्राह्मण होने का व्रत अपनाने के लिए आगे नहीं आते थे। जैसे जिस परिवार में कई पीढ़ियां सैनिक बन चुकी हो उसकी संतानों में सेना में जाने की स्वतःस्फूर्त भावना घर कर जाती है वैसे ही ब्राह्मण परिवार की संताने जब पीढ़ी दर पीढ़ी अपने गौरव के लिए यह व्रत अपनाने को आगे आती रही तो ब्राह्मण बनने की व्यवस्था ने जन्म आधारित रूप ले लिया।
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इस सिलसिले के कारण ब्राह्मणों के डीएनए में प्रतिबंध शामिल हो गये। इसलिए धार्मिक पदाधिकारी बनाने में यह विचार रखा गया कि इसके लिए आवश्यक नियम संयम का निर्वाह ब्राह्मण परिवार का ही कोई व्यक्ति कर पायेगा। खासतौर से मंदिरों के साथ जब वैभव जुड़ गया तो इसे और बल मिला क्योंकि उस समय के कर्णधारों ने सोचा कि दूसरे समुदाय के लोग वैभव के आकर्षण में पदाधिकारी बनने को तो आगे आ सकते हैं लेकिन शायद कठिन व्रत के जीवन के निर्वाह में वे आगे चलकर कच्चे पड़ जायेंगे जिससे धर्म का क्षय होगा।
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इसके बावजूद यह स्वेच्छाचार ही है कि राजनीतिक कारणों से महामंडलेश्वर आदि की रेवड़ियां आप किसी को भी बांट रहे हैं। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई धर्म सत्ता के सहारे न तो बढ़ता है और न मजबूत होता है। ऐसा होता तो बाहरी आक्रमणकारियों के प्रकोप से जिस तरह भारत से बौद्ध धर्म विलुप्त हो गया उसी तरह से ब्राह्मण धर्म भी हो जाता।
बौद्ध धर्म का दर्शन अत्यंत श्रेष्ठ था लेकिन कालांतर में उसमें कुरीतियां पनप गई और सहजयान, भैरवीचक्र जैसे रहस्यवाद ने उसका पतन कर दिया। इस कारण आक्रांता एक बार उसका सफाया करके चले गये तो वह फिर खड़ा नहीं हो पाया। कोई धर्म उसके चलाने वालों की त्याग तपस्या से मजबूत होता है। इसलिए जो लोग हिन्दू धर्म के बहुत शुभचिंतक हैं उनको इसकी नैतिक प्रतिष्ठा का ध्यान रखना चाहिए।
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किसी ऐसे स्वेच्छाचार को वे बढ़ावा न मिलने दें जो उसके नैतिक बल के लिए घातक सिद्ध हो। अघोषित रूप से आज जबकि यह देश और प्रदेश हिन्दू राष्ट्र जैसा ही रूप ले चुका है तो यह चर्चा बहुत समीचीन है। बीजेपी के राज में वास्तविक सुव्यवस्था की तड़प दिखाई जायेगी तभी हिन्दू प्रतिष्ठा उज्जवल होकर सामने आयेगी।