Wednesday - 30 October 2024 - 6:41 PM

हाशिए पर दिग्गज, मुद्दों की जगह लफ़्जो की लड़ाई  

उत्कर्ष सिन्हा 

लोकसभा चुनावो का दौर चल रहा है और विपक्षी दल नरेंद्र मोदी को घेरने में जोर शोर से जुटे भी हुए हैं लेकिन बीते एक हफ्ते में सियासत के सिनेमा में तसवीरे तेजी से बदली हैं. जो कभी एक होने के मंसूबे पाल रहे थे अब अलग अलग लड़ने के बयान दे रहे हैं.  दिल्ली के तख़्त की तलाश में यूपी की राजनीति में भी तेज़ी लगातार बढ़ रही है.

बीते 30 सालों से यूपी की सियासी दंगल में अपनी पहलवानी के दांव  दिखाने वाले  मुलायम सिंह यादव फिलहाल अखाड़े के बाहर एक ऐसे बुजुर्ग पहलवान की तरह बैठे हैं जो मजबूरी में ही सही अखाड़े में उतरेगा तो जरूर मगर उनके अपने ही चेले उनसे पहलवानी के गुर सीखने को तैयार नहीं।

करीब 4 साल पहले समाजवादी पार्टी में जिस तरह संघर्ष चला था उसके बाद कई बार मुलायम सिंह ने पार्टी की कमान फिर से थामने की कोशिश की मगर उनके बेटे अखिलेश यादव ने पिता को सम्मान देते रहने के साथ साथ पार्टी पर अपनी पकड़ भी मजबूत किये रहना बखूबी सुनिश्चित किया।  विधान सभा का चुनाव समाजवादी पार्टी हारी जरूर मगर पार्टी पर अखिलेश ने अपने कब्जे की जंग पूरी तरह से जीत ली।  मुलायम सिंह यादव गाहे बे गाहे पार्टी दफ्तर में तो जरूर मौजूद रहते हैं मगर उनकी हालत असल में परिवार के उस बुजुर्ग की तरह ही हो चुकी है जो दालान में खटिया बिछाएं अपने किस्से सुनाता है मगर उसके सलाहों को मुस्कुरा कर टाल  दिया जाता है।

बीते दिनों ये हवा भी उड़ी कि मुलायम अपनी छोटी बहू अपर्णा यादव को लोकसभा का चुनाव लड़ाना चाहते हैं।  कहा गया की मुलायम कि इच्छा है की अपर्णा संभल सीट से मैदान में उतरे। संभल की सीट समाजवादी पार्टी के लिहाज से सुरक्षित मानी जाती है और खुद मुलायम इस सीट से लोकसभा पहुँच चुके हैं।  ये चर्चा उठी ही थी कि अखिलेश यादव ने संभल से शफीकुर्रहमान बर्क को टिकट थमा दिया। बर्क  भी पुराने कद्दावर समाजवादी है।  अखिलेश से जब अपर्णा की दावेदारी के बारे में पूछा गया तो उनका जवाब साफ़ था – अब सारी सीटों का फैसला हो चुका है और कोई सीट बची ही नहीं है.  मायावती से हाँथ मिलाने का फैसला भी एक बड़ा फैसला था किसकी आलोचना मुलायम सिंह अभी भी करने से नहीं चूकते।

ये  किस्सा ये बताने के लिए काफी है कि फिलहाल मुलायम सपा के लिए महज एक प्रत्याशी है , सपा के रणनीतिकारों की कतार में उनकी जगह ख़त्म हो चुकी है।  लेकिन बदली हुयी समाजवादी पार्टी में मुलायम अकेले हाशिये पर नहीं हैं।  

पूरी  जिंदगी मुलायम के साथ शाना ब शाना  सियासत करने वाले उनके भाई शिवपाल यादव भी फिलहाल सियासत में मैदान में अपने लिए जमीन तलाशने में जुटे हैं. कभी शिवपाल यादव को सपा संगठन की जान माना जाता था।  पार्टी से निकले जाने के बाद कहा गया कि अपने संगठनात्मक कौशल के जरिये शिवपाल यूपी की सियासत के जबरदस्त खिलाडी साबित होंगे।

मगर अलग पार्टी बनाने के बाद भी शिवपाल अपनी राजनैतिक हैसियत नहीं बना सके।  कुछ पुराने वफ़ादारो ने शिवपाल का साथ जरूर दिया लेकिन गठबंधन की राजनीती के इस दौर में किसी दूसरे बड़े सियासी दल ने शिवपाल के साथ आना मुनासिब नहीं समझा। शिवपाल को सबसे ज्यादा उम्मीद  महागठबंधन से बाहर हो चुकी कांग्रेस से थी लेकिन कई बार की चर्चाओं के बाद भी  शिवपाल के हाँथ निराशा ही लगी।

फिलहाल शिवपाल यूपी की सियासत में अकेले खड़े हैं जहाँ कहने को तो उनके साथ 50 राजनीतिक दल है मगर उनमे से कोई नाम ऐसा नहीं है जिसकी पहचान हो।  यहाँ तक कि पीस पार्टी जैसे दल ने भी शिवपाल के साथ जाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।  अब शिवपाल अपने वजूद की लड़ाई फिरोजाबाद में लड़ेंगे जहाँ उनके सामने प्रो रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव सपा के प्रत्याशी हैं।शिवपाल फिलहाल अपनी सीट जीतने के अलावा दूसरी सीटों पर सपा को कितना नुकसान पहुंचा पाएंगे यही उनके भविष्य का फैसला करेगा।

प्रियंका गांधी के आने के बाद कांग्रेस में उत्साह तो जरूर आया मगर एक के बाद रद होने वाले दौरों की खबर ने  ये इशारा जरूर कर दिया कि पार्टी संगठन अभी इस हाल में ही नहीं कि कोई नेता चमत्कार कर सके।  राहुल और प्रियंका भी इस हालत को बखूबी समझ रहे हैं, इसलिए  कांग्रेस भले ही पूरे प्रदेश में चुनाव लडने का दावा कर रही हो मगर उसकी रणनीति करीब 15 सीटों पर ही मजबूती से लड़ने  में है , जिसमे करीब 10  सीटें हासिल करने की उम्मीद कांग्रेस को  है।

कांग्रेस अपना वोट प्रतिशत बढ़ने के साथ साथ चुनाव के बाद की संभावनाओं को ध्यान में रख रही है इसीलिए वह सपा बसपा गठबंधन के खिलाफ मुखर नहीं है. कांग्रेस ने तो एक कदम आगे बढ़ते हुए गठबंधन के लिए 7 सीटें छोड़ने का एलान भी कर दिया।

कांग्रेस का ये एकतरफा प्रेम मायावती को रास नहीं आ रहा और इस घोषणा के फ़ौरन बाद मायावती ने कांग्रेस को एहसान न करने की सलाह देते हुए कह दिया की कांग्रेस को सभी 80 सीटों पर लड़ जाना चाहिए। माया के सुर से अखिलेश ने भी सुर मिलाया और कहा कि गठबंधन अकेले दम  पर ही  मोदी को हारने की ताकत रखता है।  

इस बीच कांग्रेस की रणनीति पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं. महज दो लोकसभा सीटों पर हल्का प्रभाव रखने वाले महानता दल और यूपी की सियासत में वजूद खो चुके दागी नेता बाबू सिंह कुशवाहा को 7  सीटें  देना  सियासी पंडितो  के  गले नहीं उतर रहा।  लोग ये भी पूछ रहे हैं कि इस समझते से कांग्रेस को आखिर हासिल क्या होने वाला है ?

प्रियंका फिलहाल प्रचार में उतर चुकीं है। प्रयाग राज से वाराणसी तक की उनकी गंगा यात्रा लोगो का ध्यान भी खींच रही है।  प्रियंका की गंगा यात्रा दरअसल एक सांकेतिक युद्ध है जिसके जरिये वे मोदी के नमामि गंगे परियोजना और मोदी के गंगा पुत्र होने के दावों को चुनौती दे रही हैं।

इन सबके बीच नरेंद्र मोदी ने अपने चतुर राजनितिक कौशल  से कांग्रेस को  फिलहाल एक बार फिर पीछे धकेल दिया है।  मोदी अपने पर हुए प्रहार को ही अपना अस्त्र बनाने में माहिर हैं।  राहुल गाँधी ने बीते कुछ महीनो से चौकीदार चोर है के जिस नारे को धार दी थी , मोदी ने उसे ही अपना ब्रह्मस्त्र बनाने की कवायद कर दी है. एक साथ पूरी भाजपा चौकीदार नाम से ट्विटर पर आ गयी है।  मोदी इससे पहले भी चायवाले के विशेषण को खूब भुना चुके हैं।

मोदी की यह शैली कितनी कामयाब रहती है इसका उदहारण गुजरात विधान सभा के चुनावो में देखने को मिला था जब मणि शंकर अय्यर के द्वारा प्रयोग किये गए “नीच” शब्द को उन्होंने खूब भुनाया।  गुजरात में लड़खड़ाती भाजपा को इसके बाद सरकार बनाने में कामयाबी मिल गई।

नामांकन का दौर शुरू होने के बाद सियासत के रंग और भी खिलेंगे. गठबंधन की घोषणाओं का दौर ख़त्म हो चुका है और अब मैदान में लड़ाई शुरू है।  लेकिन जमीनी लड़ाई के इस वक्त में भी सियासी आसमान आरोप प्रत्यारोप नारों की शक्ल में खूब  रंगीन रहेगा ।

Radio_Prabhat
English

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com