केपी सिंह
राजनीति में अध्यात्म का बघार लगाते हुए उत्तर प्रदेश के सन्यासी सीएम योगी आदित्य नाथ कार्यों से लेकर प्रवचनों तक में अटपटेपन के लिए पहचाने जाने लगे हैं। उन्होंने हाल में एक भाषण में ज्ञान दिया कि समाजवाद के दिन खत्म हो गये हैं। अब देश और प्रदेश में केवल रामराज चलेगा।
उनकी इस बेतुकी बयानबाजी के पीछे वह नादानी है जिसके तहत वे समाजवाद को समाजवादी पार्टी समझते हैं वरना उनसे यह सवाल करने का मन होता है कि क्या भगवान रामचंद्रजी राजा की भूमिका में स्वयं समाजवादी नही थे। समाजवाद किसी शासन की लाक्षणिक पहचान को बताता है। जबकि रामराज से उस कालखंड का पता चलता है जब अयोध्या के राज्य सिंहासन पर भगवान रामचंद्रजी विराजमान हुआ करते थे।
देखा जाये तो सर्वशक्तिमान राजा होकर भी रामचंद्रजी के काम करने का तरीका जनवादी था। ऐसा न होता तो उनके मन में खुद को गणमान्यों और कुलीनों तक समेटे रहने की बजाय आम जनता से जुड़ने और समाज के अंतिम व्यक्ति के उत्थान की अभीप्सा क्यों होती। क्या वे वनवासिनी सबरी के जूठे बेर खाते, क्या वे वनवासी वानर जाति के लोगों का विश्वास जीतकर उन्हें अपना बनाने में अपनी ऊर्जा खपाते और उन्हें क्या जरूरत थी कि राजा बनने के बाद वे रात के अंधेरे में लोगों के बीच यह जानने के लिए भटकते कि आम जनता उनकी राज्य व्यवस्था को कितने नंबर दे रही है।
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प्रगतिशील रुझान, जनवाद, समाजवाद और साम्यवाद जैसी अवधारणाओं को लेकर यह आमफहम राय बनी हुई है कि भारतीय समाज का पहले इनसे कहीं कोई सरोकार नही रहा जब तक कि आयातित करके भारतीय समाज में ऐसे विचार थोपे नही गये। हालांकि भारतीय समाज में प्राचीन कथाओं को शोषक वर्ग के चश्मे से रचा गया है। लेकिन संपूर्णता में यह समाज भी आदिकाल से ही प्रगतिशील व जनवाद का पक्षधर रहा है क्योंकि यह रुझान दुनियां के हर कोने में मानव समूहों के लिए कुदरती हैं।
शोषक समाज की वर्ग चेतना हावी होने के बावजूद पुराने साहित्य और संस्कृति में प्रगतिशीलता के तत्व प्रचुरता में विद्यमान हैं। राम कथा के जनवादी आयाम का नमूना यहां ऊपर की पंक्तियों में बताया जा चुका है। कृष्ण की तो पूरी कथा जनवादी है। कृष्ण ने कंस के राज का अंत किया और महाभारत की लड़ाई की भी लड़ाई के वे ही मुख्य विजेता रहे। लेकिन उन्होंने न मथुरा का राज सिंहासन हथियाने की चेष्टा की और न ही हस्तिनापुर का। वे ग्वालों यानि कमेरों के लिए खुशहाल दुनियां की तलाश में रहे जिसकी परिणति द्वारिका में उनके द्वारा स्थापित कम्यून के रूप में सामने आई।
दुर्भाग्य यह है कि जनवाद के देशी ठेकेदारों ने भी अपनी विचारधारा को विदेशी होने की बदनामी से छुटकारा दिलाने वाला कोई प्रतिकार सामने नही रखा। उन्होंने भारतीय संस्कृति में निहित जनवाद की जड़ें सामने लाने की बजाये राजनीतिक अवधारणा को आयातित और थोपा हुआ साबित करने में योगदान उधार के मुहावरों और प्रतीकों से लोगों को समझाने की शैली के जरिये किया। जो मकड़ी के जाल की तरह अपने ही खिलाफ कसा गया चक्रव्यूह साबित हुआ।
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बिडंबना यह है कि भौतिकवादी होने के कारण जिन्हें पापी समझने की गलती की जाती है, अगर नैतिक व्यवस्था का पालन धर्म, अध्यात्म की पहली शर्त हो तो अमल में वही लोग सर्वाधिक पुण्यात्मा साबित हुए हैं। निश्चित रूप से वामदलों के अभी तक के मुख्यमंत्री, मंत्री, यहां तक कि केंद्र में गृहमंत्री रहे इंद्रजीत गुप्ता और लोकसभा में अध्यक्ष रहे सोमनाथ चटर्जी ज्यादा ईमानदारी, सादगी पसंद साबित हुए हैं। जबकि वे तृष्णा, लोभ आदि मानोविकारों को शांत करने और त्याग के अभ्यास के लिए अलग से कोई साधना या तपस्या नही करते।
स्वामी विवेकानंद कहते थे कि धर्म की रक्षा के लिए मंदिरों में जाने से ज्यादा जरूरी है भूखों का पेट भरने के लिए काम करना। शोषित, पीडि़त जनता के बीच रहने की वजह से वामपंथियों के आचरण में जो बदलाव होता है उससे वे किसी और की तुलना में धर्म के ज्यादा नजदीक पहुंचकर स्वामी विवेकानंद को चरितार्थ करते रहे हैं।
हालांकि यह भी सही है कि योगी निर्विकार भले ही न हों लेकिन कुल मिलाकर उन्हें भी मानवीय मूल्य प्यारे हैं। अगर उन्हें तो भी समाजवाद और साम्यवाद से बैर है तो किसी को यह गलत फहमी नही होना चाहिए कि वे शोषण और अत्याचार के पक्षधर हो सकते हैं। लेकिन उनकी चेतना साफ नही है जिससे गुमराह हो जाना उनकी नियति सिद्ध हो रहा है।
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समाजवाद और जनवाद का नाम जुबान पर आते ही उनकी राष्ट्रवादी नस तड़क उठती है। ऐसे वातावरण में उन्होंने होश संभाला है जिसमें हर समय बताया जाता है कि ये विदेशी विचारधाराएं हैं जिनका उददेश्य भारत को नुकसान पहुंचाना है। सोवियत संघ के दौर में वामपंथी क्रांतियां दूसरे देशों में निर्यात की जाती थीं। इससे कम्युनिष्टों को लेकर भारत सहित दूसरे देशों में काफी गलत धारणाएं पनपीं।
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दूसरे कम्युनिष्टों ने एक बड़ी चूंक यह की कि वे हिंदुओं के साथ तो धर्मनिरपेक्षता का खेल खेलते रहे लेकिन इस्लाम की रूढि़वादिता के मामले में उन्होंने समर्पणकारी रुख अपनाया। इसी तरह वे इतने अधिक अनुकरणवाद में डूब गये कि सचमुच मास्को में अगर बारिश होती थी तो दिल्ली में भी कम्युनिष्ट छाता लगा लेते थे। उन्होंने सिरे से भारतीय धर्म, अध्यात्म, साहित्य और संस्कृति को नकारने की मुद्रा ओढ़े रखी बजाय इनमें प्रगतिशील पक्षधरता के तलाशने के।
खैर वामपंथी अब अप्रासंगिक हो चुके हैं। लेकिन आध्यात्मिक अनुभूतियों पर आधारित शासन व्यवस्था कायम करने का दावा करने वालों के लिये नैतिकता की बड़ी लाइन अभी भी चुनौती है। भाजपा को इससे छुटकारा नही मिल सकता।
भाजपा के हुक्मरानों को कम से कम भौतिकतावादियों की तुलना में अपने आप को अधिक ईमानदार, सयंमी और त्यागी साबित करना पड़ेगा। गरीबों को अधिकार देकर उन्हें दरिद्रनारायण की सेवा के कर्तव्य को ज्यादा जिम्मेदारी से निभाना पड़ेगा। अगर वे समाजवाद को कोस कर इस जिम्मेदारी से बरी होने का उपक्रम करना चाहते हैं तो उनका इहलोक और परलोक दोनों बिगड़ सकते हैं।
अपने मंत्रियों, सांसद, विधायक से लेकर अधिकारियों और कर्मचारियों को भ्रष्टाचार और वैभव की होड़ के मामले में अनदेखी के जरिये रियायत दी जाने से जो हो रहा है उसे रामभक्ति नही कहा जा सकता। जन शिकायतों के निस्तारण को लेकर भी यूपी सरकार का रवैया भ्रष्टाचार के साथ-साथ अन्याय को बढ़ावा देने वाला है। रामनिष्ठ योगी को सोचना चाहिए कि इसीलिए तो भगवान राम ने जनभावनाओं को परखने के मोर्चे पर खुद को झोंक रखा था। सही समाजवादी शासन का ही दूसरा नाम रामराज है। समाजवाद और रामराज में अंतर करने की प्रवंचना से बचकर सीएम योगी को समाजवाद के नये प्रतिमान स्थापित करके ही रामराज को सार्थक करना चाहिए। जिसे लेकर उनसे उनके शतप्रतिशत ईमानदार होने की वजह से अधिक उम्मीदें हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)
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