Tuesday - 30 July 2024 - 6:17 PM

डंके की चोट पर : सिलसिला जो बड़ा दर्द देता है

शबाहत हुसैन विजेता

एक रिक्शे पर तीन लाशें लदीं थीं। बिल्कुल वैसे ही जैसे धोबी एक के ऊपर एक कपड़े की गठरियां लादता है। उन लाशों के ऊपर पुलिस का एक सिपाही बैठा था। सिपाही को देखकर यह लग ही नहीं रहा था कि वह अपने जैसे इन्सानों की लाशों के ऊपर बैठा है। रोंगटे खड़े कर देने वाली यह तस्वीर कई बार देखने को मिली है।

रिक्शे पर लदी हुई लाशें पोस्टमार्टम के बाद सिपाही के सिपुर्द की गई थीं, क्योंकि यह लावारिस थीं. पोस्टमार्टम के बाद कोई इन्हें लेने नहीं आया था। क़त्ल और एक्सीडेन्ट का शिकार लोगों का पोस्टमार्टम होता है। पोस्टमार्टम के बाद मरने वाले के रिश्तेदार उसे ले जाते हैं, लेकिन जिनका कोई वारिस नहीं होता उनकी लाशें इसी तरह रिक्शे पर लदकर अपने आखिरी सफर पर रवाना हो जाती हैं

पोस्टमार्टम के बाद लाश को ले जाने के लिये अगर लाश गाड़ी का इन्तजाम किया जाये तो अच्छी खासी रकम लगेगी। लाश लावारिस है तो उसे ले जाने का पैसा कौन दे, इसी सवाल का हल न होने की वजह से लाशें रिक्शे पर सामान की तरह से ले जायी जाती हैं। लाशों पर इत्मिनान से बैठा सिपाही देखने वालों को अमानवीय लगता है मगर सच्चाई अलग है। वर्दी हर बार अमानवीय नहीं होती।

सरकार लावारिस लाश के अन्तिम संस्कार के लिये पांच सौ रूपये देती है। वह भी काफी लिखापढ़ी के बाद, जबकि एक लाश के अन्तिम संस्कार में कम से कम तीन हजार रूपये खर्च होते हैं। इसी वजह से बहुत सी लावारिस लाशों को नदियों में बहा दिया जाता है। पुलिस को लोगों ने सिर्फ वसूली करते देखा है इसलिये इस बात पर कौन भरोसा करेगा कि बहुत सी लावारिस लाशों का अन्तिम संस्कार पुलिस अपनी जेब से करती है।

महंगाई के दौर में आम आदमी का जीना दूभर है। अपना और अपने परिवार का पेट भरना बहुत मुश्किल है। हकीकत यह है कि जेब में पैसा न हो तो जीना छोड़िये मरना भी मुश्किल बात है। खुद की जेब खाली हो तो रिश्तेदार मदद कर देते हैं। दोस्त खड़े हो जाते हैं लेकिन जब लावारिस का टैग लगा हो तब किस्मत में रिक्शा ही लिखा होता है। लाशें कम हों और सिपाही की जेब में एक्सट्रा पैसा हो तो अन्तिम संस्कार का चांस भी होता है, लेकिन लाशें ज्यादा हों तो सिपाही भी उसे नदी में फेंककर फुर्सत पा लेता है। फिर इन लाशों को मछलियां खाती हैं। यह लाशें बैराज में फंस जाती हैं। बहती हुई दूसरे जिलों में चली जाती हैं और सीमा विवाद की वजह बन जाती हैं।

लावारिस जीना एक बात होती है लेकिन लावारिस मर जाना बहुत डरावनी बात होती है। जो जिन्दा रहते हुए पानी से डरते हैं उन्हें लाश बनकर नदियों में बहना होता है, जो जरा सी चोट बर्दाश्त नहीं कर पाते उन्हें नदी में रहने वाले जानवर खाते हैं। जो अपने जिस्म को पाउडर से, क्रीम से, सेन्ट से और न जाने किन-किन चीजों से सजाते रहे उनके लावारिस मर जाने के बाद अगर पुलिस ने भी उन पर रहम न किया और किसी नदी में फेंक दिया तो जिस्म से कभी पतवार लिपट जाती है तो कभी नदी में बहती कोई और गन्दगी चिपट जाती है।

लाश कभी भंवर में फंसती है, कभी बैराज के धारदार लोहे में। वह किनारे आ जाये तो कुत्ते नोचने लगते हैं, नदी की हर लहर डराती है कि पता नहीं कि अगला पल कौन सी तस्वीर दिखाये। वह चाहे भी तो कुछ नहीं कर सकती क्योंकि सांस निकल जाने के बाद जिस्म बेबस हो जाता है।

रिक्शे पर लदी तीन लाशें देखीं तो अचानक बीस साल पुरानी बात याद आ गई। एक पत्रकार साथी के छोटे भाई की बस एक्सीडेन्ट में मौत हो गई थी। उसके घर वाले नहीं चाहते थे कि पोस्टमार्टम हो। लखनऊ के तमाम पत्रकार मेडिकल कालेज में जमा थे। रात को दो बजे डीएम को जगाया गया। डीएम ने बताया कि पोस्टमार्टम नहीं कराया तो कोई मुआवजा नहीं मिलेगा। जब यह लिखकर दे दिया गया कि मुआवजा नहीं चाहिये तब जाकर डीएम ने साइन किये।

अब पोस्टमार्टम हाउस से लाश निकालनी थी। रात को कोई कर्मचारी नहीं था। गार्ड दरवाजा खोलकर खड़ा हो गया कि जाओ और पहचानकर लाश उठा लो। दो पत्रकार अन्दर घुसे। मोमबत्ती जलाकर लाइन से लेटी लाशों के चेहरे देखे गये। लाश पहचानकर बाहर निकाली गई। लाश के पांव की एक उंगली चूहे कुतर गये थे।

भाई की लाश लेकर वह साथी अपने घर रवाना हो गया। बस एक्सीडेन्ट और पोस्टमार्टम हाउस में चूहे से पांव की उंगली कुतरवाने के बाद कम से कम घर वालों तक लाश पहुंच गई। घर वालों ने उसे दफ्न कर दिया।

जिनके वारिस नहीं होते या फिर उन्हें मौत की खबर नहीं हो पाती, उनकी लाशें तो ऐसे ही रिक्शों पर लदकर अपने आखिरी सफर पर निकलती हैं। उन्हें चूहा कुतरे या मछली वह कुछ नहीं कर सकते क्योंकि वह ऐसी दुनिया से जिन्दगी जीकर निकलते हैं जहां पर रिश्तों से लेकर मूल्यों तक को कुतरने का एक सिलसिला चला आ रहा है।

(लेखक न्‍यूज चैनल में पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)

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