अभिषेक श्रीवास्तव
होमियोपैथी का बुनियादी सिद्धांत है कि जहां मर्ज़ है, दवा भी वहीं है। भौतिकी में इसे कहते हैं कि किसी कार्य का कारण आउट ऑफ फ्रेम नहीं होता। समाज और दर्शन वाला कहेगा कि जवाब वहीं है जहां सवाल है। अगर ऐसा वाकई है, तो जवाब मिलता क्यों नहीं? सलमान खान की प्रेरणा से कहें तो- जग घूम्या थारे जैसा न कोई।
बिना जग घूमे थोड़े पता चलेगा कि कोई टक्कर में है भी या नहीं। एक जगह सिर गड़ाये रहकर सोचना शुतुरमुर्ग का काम है, आदम नस्ल का नहीं।
तो महीने भर चुनाव और उसे कराने वाले केचुआ (केंद्रीय चुनाव आयोग) पर माथा खपाने के बाद हम जग घूमने निकले और सीधे पहुंचे तिब्बत की सीमा पर। अव्वल तो वहां पर्याप्त ठंडक है, दिमाग ठंडा रहता है। दूजे, चीन की ओर से आती विकास की हवाओं से सबक मिलता है कि कैसे अतिरिक्त आबादी होते हुए भी तानाशाहों के राज में सुखी रहा जा सकता है।
हिमाचल के किन्नौर जिले में छितकुल स्थित हिंदुस्तान के आखिरी ढाबे से दस किलोमीटर पहले एक गांव पड़ा। नीचे रुपिन नदी, ऊपर रक्छम नाम का गांव। सफ़ाई के मामले में राष्ट्रपति से पुरस्कृत। खुले में सिगरेट पीना मना है।
विकीपीडिया कहता है कि इधर भारत की सबसे साफ़ हवा मिलती है।
इससे पहले मैं दो बार रक्छम आ चुका हूं। यह तीसरा दौरा था। कभी दो-तीन दर्जन घरों वाला यह गांव आज हजार से ज्यादा आबादी का हो चुका है। पहले मंदिर का रास्ता बाहर से दिखता था। अब जाकर खोजना पड़ता है। पहले मंदिर में सन्नाटा होता था। उस दिन मंदिर के चबूतरे पर तीन लोग बैठे मिले। उनके सामने बहीखातानुमा तीन रजिस्टर रखे थे।
तीन व्यक्तियों के बीच सबसे पहले और सबसे ज्यादा बोलने वाला नेता होता है। यहां नेता निकले खजान सिंह नेगी। अपना परिचय देते हुए उन्होंने बताया कि वे सनातनी हिंदू आदिवासी हैं। मतलब? ‘’जय श्रीराम वाले हैं… हमारा भगवान राम है।‘’
प्रांगण उनके कुलदेवता का था। रजिस्टर कुलदेवता का। रजिस्टर के बारे में उन्होंने दिलचस्प बात बतायी। गांव में एक कमेटी है। कमेटी के वे खुद अध्यक्ष हैं। बाकी बैठे दो पहाड़ी पदाधिकारी। ये तीन मिलकर कमेटी चलाते हैं।
हर घर कमेटी का सदस्य है जो देवता को हजार रुपया महीना चढ़ावा चढ़ाता है। इससे जो कोष बनता है, उससे जरूरतमंद परिवार को साढ़े बारह परसेंट ब्याज पर कर्ज दिया जाता है। कर्ज भी ऐसे-वैसे काम का नहीं।
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खजान सिंह ने बताया कि किसी को दारू पीने के लिए दो सौ रुपया चाहिए तो कर्ज नहीं मिलेगा। शादी-ब्याह हो, बच्चे का एडमीशन हो, तब कर्ज मिलेगा। अधिकतम एक लाख। जिसने कर्ज नहीं चुकाया, जिसने कोई गलत काम किया, उसके लिए एक ही सज़ा है- देशनिकाला।
जाहिर है उनका आशय तड़ीपार से रहा होगा।
कौन निकालता है देश से बाहर? जवाब आया- देवता। कमेटी कौन चलाता है? जवाब आया- देवता। कमेटी का चुनाव होता है या नहीं? ‘’जी, होता है, देवता करवाते हैं।‘’ जब से कमेटी बनी है, देवता चुनाव करवा रहे हैं और एक ही कमेटी चुने जा रहे हैं।
देवता पर सवाल उठाना गुनाह है। देशनिकाला मिल सकता है। जैसे कल्पा में देवता के मंदिर के बाहर एक दिशानिर्देशक बोर्ड लगा है। क्या पहन कर आा है, कैसे भीतर जाना है, सब कुछ लिखा है। सबसे नीचे लिखा है- आज्ञा से, देवता।
यहां कभी कोई अपराध हुआ ही नहीं, कि किसी को देशनिकाला दिया गया हो। हां, 2002 के नवंबर में पूरे गांव को आग निगल गई थी। सब नष्ट हो गया था। एक दर्जी ने प्रेस ऑन छोड़ दिया था। बिजली गई और आई। आग लग गई। उसके बाद लोगों ने मिलकर पूरे गांव का विकास किया और सरकार ने सारी सुविधाएं दीं।
देसी दारू बनाने का लाइसेंस तक मिला हुआ है हर घर को। हर आदमी न्यूनतम पांच-सात लाख का सेब बेचकर बमबम है। भाजपा को वोट देता है और देवता से गांव की कमेटी का चुनाव करवाता है।
मने देवता के जिम्मे सारे काम हैं। राम केवल हर पांच साल पर काम आते हैं। दोनों की भूमिकाएं तय हैं। देवता लोकतंत्र के चुनाव में रुचि नहीं लेता, राम कमेटी के चुनाव से कोई मतलब नहीं रखते। ग्लोबल और लोकल का कामयाब संगम। इसीलिए यहां के लोगों को न चुनाव आयोग की चिंता है, न इससे फ़र्क पड़ता है कि उनके यहां वनाधिकार कानून या पेसा कानून क्यों नहीं लागू है।
देश को राम की चुनी कमेटी चलाए, गांव को कुलदेवता की चुनी कमेटी। एक ही कमेटी के बार-बार चुने जाने का लफड़ा ही खत्म।
लोकतंत्र का यह टू टायर मॉडल मेरे मन में पांच दिन से अटका पड़ा है। समस्या केवल एक है। केंद्रीय स्तर पर देवता की आज्ञाएं और चुनाव संहिता आदि को लागू करवाने के लिए देवता का एक केंद्रीय मंदिर ज़रूरी है। बिना मंदिर के देवता को स्थापित करना थोड़ा हवाई काम होगा। इसके लिए सबसे पहले एक केंद्रीय मंदिर बनाया जाए। फिर देवता की आज्ञाएं जारी हों और चढ़ावा वसूलने का फ़रमान जारी हो। फिर देवता कमेटी बना दें।
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कमेटी देश को चलावे, जैसे खजान सिंह रक्छम को चलाते हैं। नाम में क्या रखा है। केंद्रीय चुनाव आयोग की जगह चाहें तो दैवीय निर्वाचन आयोग रख दीजिए। बाकी हर गांव के अपने कुलदेवता तो हैं ही, इसलिए मॉडल का लोकल संस्करण लागू करने में कोई अड़चन नहीं है। समस्या केवल केंद्र के स्तर पर है।
मुझे लगता है एनडीए सरकार को सब कुछ भूलभालकर सबसे पहले अपना ध्यान राम मंदिर निर्माण में लगाना चाहिए। राम मंदिर एक बार बन गया, तो राष्ट्रीय देवता का जन्म हो जाएगा। फिर उन्हीं की आज्ञा से चुनाव होंगे और गलत लोगों को देशनिकाला भी दिया जाएगा। दैवीय आदेशों में कहीं कोई विरोध की गुंजाइश नहीं होगी। मनुष्य निमित्त मात्र रह जाएगा।
मानव जीवन का लक्ष्य और है ही क्या? महर्षि मार्क्स से लेकर वेदव्यास तक सब कह गए हैं कि मनुष्य निमित्त मात्र है। असल लक्ष्य तो रामराज्य है। कोई इसे समाजवाद कहता है, कोई हिंदू राष्ट्र। सरकार को बात समझनी चाहिए। रक्छम के खजानजी से अपने प्रधानजी को प्रेरणा लेनी चाहिए।
( लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं )