अभिषेक श्रीवास्तव
‘’लोकतंत्र में विपक्ष का होना, विपक्ष का सक्रिय होना, विपक्ष सामर्थ्यवान होना, ये लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त है। और मैं आशा करता हूं कि प्रतिपक्ष के लोग नंबर की चिंता छोड़ दें। देश की जनता ने उनको जो नंबर दिया है, दिया है, लेकिन हमारे लिए उनका हर शब्द मूल्यवान है। उनकी हर भावना मूल्यवान है। और सदन, जब हम उस चेयर पर बैठते हैं, एमपी के रूप में बैठते हैं, तब पक्ष-विपक्ष से ज्यादा निष्पक्ष का स्पिरिट बहुत महत्व रखता है। अब मुझे विश्वास है कि पक्ष और विपक्ष के दायरे में बंटने के बजाय निष्पक्ष भाव से जनकल्याण को प्राथमिकता देते हुए हम आने वाले पांच साल के लिए इस सदन की गरिमा को उच्च… ऊपर उठाने में प्रयास करेंगे।‘’
इस स्तंभ का आरंभ ऐसे शुभ मुहूर्त में हो रहा है जब श्रीमुख से ये अनमोल मोती झरे हैं। नयी लोकसभा की पहली बैठक से ठीक पहले सदन के बाहर प्रधानमंत्री ने जब मुंह खोला, तो तन, बदन से लेकर दिल-ओ-दिमाग तक सब कुछ अमृतवर्षा में भीग गया।
हमारे एक बनारसी मित्र होते तो इसे ‘सांगोपांग मोमेंट’ का नाम देते- सांगोपांग बयान में सांगोपांग नहान। सचमुच, ऐसा लगा गोया गढ़मुक्तेश्वर से ढोकर लाए बाल्टी भर गंगाजल से लोकतंत्र के मंदिर की चौखट को चौकीदार ने खुद धो दिया हो, जिस पर पांच साल पहले मत्था टेक कर उसने कांग्रेसमुक्त भारत की सौगंध खायी थी।
भीतर जब प्रोटेम स्पीकर ने उनका नाम शपथ लेने के लिए पुकारा, तो रामानंद सागर कृत रामायण का दृश्य चरितार्थ हो गया। अधर में टंगे 302 देव श्रीराम के ऊपर आकाश से पुष्पवर्षा करते हुए समवेत् स्वर में महो महो किए जा रहे हैं। हमें महो महो की जगह मोदी मोदी सुनाई दे रहा था, लेकिन था वो महो महो ही। जब सबका विकास हो रहा है तो भाषा कैसे पीछे रहेगी। सदन की गरिमा को ऊपर उठाने का सवाल था। पक्ष विपक्ष से ज्यादा निष्पक्षता की स्पिरिट का सवाल था। पक्ष-विपक्ष का दायरा ही खत्म हो गया था। 302 की आवाज़ 545 का आभास देती थी। राहुल गांधी की गैर-मौजूदगी के बगैर। इसी को कहते हैं दूसरे की भावनाओं का मूल्य समझना।
भावना दरअसल नाजुक होती है। तुरंत ठेस पहुंच जाती है उसे। प्रकृति और दुनिया-जहान के रहस्यों को जानना-समझना इसीलिए कुछ आध्यात्मिक धाराओं में वर्जित किया गया है। बेकार माना गया है। दुनिया को निस्सार माना गया है। नाव पर चढ़ेंगे ही नहीं तो नाव डूबेगी कैसे? रावलपिंडी से गायक बनने बंबई आए आनंद बख्शी इस बात को बखूबी समझते थे। इसीलिए सन् इकहत्तर का चुनाव समझ में न आने के बाद उनकी कलम से बरबस एक पत्रकारीय वाक्य फूट पड़ा, ‘’ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ, क्यों हुआ…।‘’ पांच ‘डब्लू’ एक ‘एच’ यानी कुल छह बुनियादी सवालों पर टिकी पत्रकारिता के दो सवाल उन्होंने जानबूझ कर अपनी रचना में छोड़ दिए- किसके साथ हुआ और किसने किया।
सारा दर्शन इसी छूटने में छुपा है। किसने किसके साथ किया। यह सवाल आत्मघाती है। इसका संधान भावनाओं को उभार सकता है। लेनदेन की प्रक्रिया में कर्ता गौण रहे, सौदे के लिए यह स्थिति हमेशा फायदेमंद होती है। इसीलिए आनंद बख्शी इस पर गए बगैर सीधे भीतर की ओर पलट जाते हैं। यूटर्न ले लेते हैं- ‘’जब हुआ, तब हुआ…।‘’ कुछ समकालीन विद्वान इस नियतिवाद से अनुप्राणित तो हैं, लेकिन संदर्भ गलत चुन लेते हैं। राजीव गांधी के अनन्य दोस्त रहे सैम पित्रोदा उन्हीं में एक हैं। बात तो सही बोले, लेकिन संदर्भ गलत चुन लिए- हुआ तो हुआ। यह बात उन्हें चुनाव परिणाम के बाद कहनी चाहिए थी।
आज जितने भी नेता प्रौढ़ या बुजुर्ग दिखते हैं, साठ-सत्तर के दशक में युवा रहे होंगे। वे वाया राजेश खन्ना भावनाओं की नज़ाकत से वाकिफ़ हैं। जानते हैं ‘किसने’ और ‘किससे’ का सवाल पूछा नहीं जाता। चुपचाप निस्वार्थ भाव से अमर प्रेम किया जाता है। तो चुनाव संपन्न हो गया, अब आगे बढ़ा जाए। ‘’ओ छोड़ो, ये न सोचो’’- जैसा बख्शी साहब ने कहा था। नतीजों के कुल छब्बीस दिन बाद आज सदन शुरू हुआ है तो सब पर अंग्रेज़ी वाला ‘बेटर सेंस प्रिवेल’ कर गया है।
इस मामले में राहुल गांधी अव्वल ऋषि हैं आधुनिक भारत के। उन्होंने सोचना ही नहीं, होना भी छोड़ दिया है। वे जानते हैं संसद जाना मोक्ष की राह में अवरोध है। सो आए ही नहीं। ग़ालिबन, ‘’डुबोया मुझको होने ने…।‘’ दूसरे छोर पर खड़े चेयरमैन सीताराम हैं। उनकी विचारधारा का सारा दर्शन ही भौतिकवाद पर टिका है। न होना उन्हें सैद्धांतिक तौर पर गवारा नहीं है। होंगे, तभी तो कुछ और पैदा होगा। मसलन, पदार्थ से चेतना। मने गारंटी नहीं है, फिर भी पदार्थ का होना तो स्वयंसिद्ध है। चेतना की देखी जाएगी। तो सत्र से पहले उन्होंने एक बात कही जो इधर बीच पैदा हुए ऐतिहासिक ब्रह्मवाक्यों की कतार में शायद दूसरे स्थान पर रखी जा सकती है।
वे बोले- ‘’लेफ्ट इज़ यूज़्ड टु पीरियॉडिक ऑबिचुअरीज़, वी आर अलाइव एंड किकिंग’’। हिंदी में तर्जुमा कुछ यों होगा- वामपंथ को रह-रह कर पढ़े जाने वाले मर्सिये की आदत पड़ चुकी है, लेकिन हम जिंदा हैं और किकिंग हैं। किकिंग के लिए हिंदी में शब्द खोजना टेढा काम है। भाव से काम चलाइए। भाव ही प्रमुख है। शब्द नहीं। भाव भी संचारी नहीं, स्थायी है। वही अंकल सैम वाला है- ‘’हुआ सो हुआ’’। अब सोचना बेकार है। अपना तो टेम्पो टाइट है।
लोकतंत्र का यह क्षण वाकई सांगोपांग है। कहीं कोई आह तक नहीं। चूं तक नहीं। न कोई सवाल। एकदम निर्द्वंद्व। यह शुद्ध कबीराना मोमेंट है। कबीर कहते हैं:
अवधू ऐसा ग्यान विचारै
भेरैं बढ़े सु अधधर डूबे, निराधार भये पार।
ऊघट चले सु नगरि पहूंते, बाट चले ते लूटे
एक जेवड़ी सब लपटांने, के बांधे के छूटे।।
तो सदन की कार्रवाई शुरू होती है अब…!
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं )