अभिषेक श्रीवास्तव
आज रात नौ बजे कुछ बड़ा होने वाला है। जैसे पिछले सोमवार कुछ बड़ा होने वाला था। पूरा सावन बड़े-बड़े के चक्कर में कट गया। पिछला पांच साल बड़े के चक्कर में कट गया। हर बड़े के बाद अगला नया बड़ा। अंग्रेज़ी में क्या कहते हैं- द नेक्ट्स बिग थिंग सिंड्रोम । इतना बड़ा-बड़ा पचा कैसे लेते हैं लोग? एक बनारसी इसी चक्कर में फिरंट हो के एक बार एक विदेशी को लतिया दिया था।
हुआ यों कि एक विदेशी को एक बनारसी गाइड चंदुआ सट्टी टहला रहा था, ”लुक, दिस इज़ वजिटेबुल मार्केट… मोस्टक लार्जेस्ट इन वर्ल्डा।” विदेशी ने सोचा दुनिया की सबसे बड़ी सब्जी- मंडी यहां कैसे? अब बनारस के आदमी के लिए तो पूरा ब्रह्माण्ड ही काशी में है, फिर सट्टी वट्टी का क्या कहना लेकिन विदेशी खिसिया गया।
गाइड ने एक आलू दिखाते हुए कहा, ”लुक, दिस इज़ पोटैटो।” विदेशी ने प्रतिशोध में कहा, ‘आमारे यहां तो इतना बारा होता है”, और उसने कोहड़े के आकार जितना दोनों हथेलियों को फैलाकर समझा भी दिया। गाइड चौंका, लेकिन उसकी खुराफ़ात समझ नहीं पाया।
अगली सब्ज़ी बैंगन थी। गाइड ने दिखाते हुए कहा- ”ब्रिन्जल”! विेदेशी ने दोनों हथेलियों को लौकी जितने आकार में फैलाते हुए कहा, ”आमारे यहां ब्रिनजल इतना बारा होता है।” अबकी गाइड को शक़ हुआ कि पट्ठा कहीं बदला तो नहीं ले रहा है। फिर भी पैसे का मामला था, तो उसने सब्र बरता। अगली सब्जी दिखाते हुए बोला, ”दिस इज़ टोमैटो।” विदेशी मूड में था, बिना नापे-तौले हाथ फैलाते बोला- ”वेरी स्मॉल… आमारे यहां तो इतना बारा होता है।” अबकी गाइड फिरंट हो गया। उसने कोहड़े की तरफ दिखाते हुए कहा, ‘सी, ग्रेप हियर।” विदेशी ने इनकार में सिर हिलाया, ”इम्पॉससिबल”!
”तोहरे इहां कोहड़ा जेतना आलू-टमाटर हो सकेला त हमरे इहां अंगूर काहे नहीं हो सकत?” कहते ही पांचफुटिया गाइड उस सातफुटिया विदेशी को उछल-उछल के लपडि़याने लगा। उसे देखकर दो-तीन सब्ज़ी वाले भी लपट गए। सावन में सब किच्चछम किच्चाल हो गया।
लोकतंत्र में बहुमत ने न्याय किया। सिपाही विदेशी को पकड़ कर चौकी ले गए। अगले दिन गांडीव में इस शीर्षक से खबर छपी- ”काशी की संस्कृति को नीचा दिखाने वाले विदेशी धराया, जनता ने की कुटाई”।
बड़ी च़ीजों की सनक कहीं नहीं ले जाती। मनोविज्ञान में इसे बाइपोलर डिसॉर्डर माना जाता है। आस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि देशों में यह मनोविकार सबसे ज्यादा है। अपने यहां जैसे-जैसे न्यू इंडिया बन रहा है, यह मनोविकार तेज़ी से लोगों को चपेट में ले रहा है ।
पिछले दिनों महंतजी ने 22 करोड़ पेड़ लगवाए और गिनीज़ बुक में उत्तर प्रदेश सरकार का नाम लिखवा दिया। पेड़ लगाने के लिए पेड़ उखाड़ना भी पड़ा होगा। मैंने सचिवालय से पता किया तो पता चला कि रोपे तो पौधे गए हैं, बस नाम ”वृक्षारोपण महाकुम्भ” दे दिया गया है ताकि कुछ बड़ा फील हो । ऐन मौके पर एक स्कूल की तस्वी़र मार्केट में गिरी जिसमें एक अध्यापिका एक वृक्ष का मोटा तना पकड़ के बैठी हुई दिख रही है और ऊपर लिखा है वृक्षारोपण अभियान।
बड़े लोग बड़े काम करते हैं। सीधे वृक्ष रोप देते हैं। बड़े नहीं थे तब भी न्यूनतम शाखा लगाते थे। अब तो छप्पन इंच हो गए हैं, तो सबसे ऊची प्रतिमा बनवा दिए। सबसे बड़ी पार्टी बनाने के लिए मिस कॉल लेकर परची काट दिए।
एक झटके में बड़े-बड़े नोट ही बंद कर दिए और उससे बड़ा दो हज़ार का ले आए। महंतजी अयोध्या में रामजी की सबसे बड़ी मूर्ति बनवा रहे हैं। प्रधानजी बड़ी-बड़ी रैली करवा देते हैं। उनके दोस्त डोनाल्ड को भी भारी भीड़ का शौक है ।
बड़प्पन एक बात है, बड़ापन दूसरी बात। हमारे प्राचीन शास्त्रों में कहते थे कि डाली फल से जितनी ज्या्दा लदी होती है, उतनी झुकी होती है। शास्त्र कहते हैं कि पूरा ब्रह्मांड, पंचमहाभूत हमारे भीतर है। यह बड़प्पन वाली बातें थी। अब समय बदल चुका है। आज डाली फल से लदी होगी तो सबसे ऊंची होगी। हर फल डाली की लंबाई को बढ़ाता है। अब ‘मैं’ ही ब्रह्मांड है । यह बड़ापन है।
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जब इस भाव का बोध हो जाता है तो आदमी शाखा नहीं लगाता, सीधे पेड़ लगाता है। घर में नहीं रहता, जंगल में चला जाता है। घर में तो आदमी रहते हैं। जंगल में शेर रहते हैं। आदमी को बड़ा बनना है, तो शेर बनना है। अकेले जाने में डर लगता है इसलिए साथ में किसी बियर को ले लेता है। प्रधानजी बनारसी को कभी गाइड नहीं बनाते। उसके खतरे जानते हैं।
प्रधानजी के दोस्त बराक जंगल में जाकर शेर बनने के बियरवा के फंदे में सबसे पहले आए थे। भला हो स्वीडन वालों का कि उन्हें नोबल देकर बैठे-बिठाए बड़ा बना दिए। प्रधानजी को भी नोबल चाहिए। उससे कम पर वे नहीं मानेंगे। मैग्सेंसे वैग्सेसे तो मामूली चीज़ है। ये सब रवीश जैसों के लिए वो छोड़ दिए हैं। खुश रहो सब एक-एक लेमनचूस लेकर। मेरा क्या है, फ़कीर हूं, झोला उठा के चल दूंगा।
कहते हैं कि प्रधानजी का झोला अब तक किसी ने नहीं देखा। बड़ा ही होगा। सबसे बड़ा। माल्या फाल्या तो अटैची लेकर गए थे। अटैची की दिक्कत ये है कि उसमें आप अंडबंड सामान नहीं रख सकते। झोले में धनिया, मिर्चा, टिंडा, टमाटर, कोहड़ा के साथ नकद, चिलम, कपड़ा-सपड़ा सब कुछ भर सकते हैं।
झोला समाजवाद का प्रतीक है। माल-असबाब में फ़र्क नहीं बरतता। सबको झेल लेता है। हो सकता है प्राचीन भाषाशास्त्री में यह झेला रहा हो, कालांतर में झोला हो गया हो।
तीन दिन बाद ‘मिशन मंगल’ आ रही है। चंद्रमा के बाद अब मंगल की बारी है। नासा सोच ही रहा था, यहां अक्षय कुमार ने कर दिखाया। नासा के मुताबिक वाया चंद्रमा, मंगल तक जाना होगा। चांद पर स्टेशन बनाना होगा, फिर वहां से मंगलयान छोड़ना होगा। जैसे पांडिचेरी जाने के लिए लोग चेन्नई उतरते हैं। वैसे ही ।
सोचिए अक्षय कुमार किसे अपने साथ ले जाएंगे सबसे पहले? जो सबसे बड़ा होगा। जिसका झोला सबसे बड़ा होगा। पहले झोला चांद पर छोड़ देंगे, फिर वज़न कम कर के मंगल पर निकल लेंगे।
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आदमी जंगल ऐसे ही नहीं जाता है। जंगल में मंगल के सपने बुनता है। प्रधानजी की जंगल बुक आज रिलीज़ हो रही है। आज बड़ा दिन है भाई। क्या जाने अगला बड़ा दिन मंगल बुक के नाम हो। बड़े पहियों की बड़ी बात…।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं )
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