अभिषेक श्रीवास्तव
यूरेका यूरेका… गाय को माता मानने वाली करोड़ों की आबादी ने समवेत स्वर में यह नारा लगाया जब ह्यूस्टन से सियारों की हाउडी हाउडी में अनायास ही उसके बाप का पता चल गया। धन्य है यह धरा जिसे सात दशक बाद अपने पुरखों का पता मिला। नोटबंदी से लेकर बैंक विलय तक से पैदा हुए दर्जनों ज़ख्मों ने हंसते हुए पुकारा – “तुम जो मिल गए हो, तो ये लगता है, कि जहांsss मिल गया!”
पूरा देश नवीन निश्चल हुआ पड़ा है। बिना चले फिरे ही नया सा महसूस कर रिया है। सवाल यह नहीं है कि पापा यानी पिता यानी फादर की खोज की किसने। निमित्त किसी को तो बनना ही पड़ता है। अबकी बड़का बाऊ निमित्त बन गए।
उन्होंने हमें पहचान करवाई कि देखो बेटा, ये तुम्हारे पापा हैं। ठीक से पहचान लो। आगे से लवंडई मत करना। तुम जहां पढ़ रहे हो, ये उस स्कूल के प्रिंसिपल रह चुके हैं। बाप हैं तुम्हारे। कायदे में रहो वरना…!
बाप का पता चलना केवल अपनी औकात का पता चलना नहीं होता। यह एक इमोशनल मामला भी है। बाप ही बेटों के आदर्श होते हैं। बाप हरामी तो बेटा दर हरामी। बाप साधु तो बेटा फकीर। बहुत असर पड़ता है खून का। और अपने वाले पापा के खून में तो व्यापार है। तो सोचो, बच्चों के खून में क्या होगा? दो कदम आगे? दलाली? हम अपनी ज़बान क्यों गंदी करें, लेकिन…
… एक बात है, अपने वाले पापा मेहनत जबर करते हैं। एक मिनट फुरसत नहीं है उनके पास कि अपने नाकारा बच्चों को देख सकें। अब इतने पैदा कर के रख भी तो छोड़े हैं। कोई बाढ़ में डूब रहा है। कोई आज़ादी का नारा लगा रहा है। कोई कुछ नहीं मिला तो मीम बनाए दे रहा है। बड़े हरामी लौंडे हैं भाई साब!
एक बार लड़कों ने अपने नए नवेले फादर से पूछा कि फादर आपका मनपसंद पास्टाइम क्या है यानी खाली वक़्त में आपको क्या पसंद है? फादर ने नवीन निश्चल की तरह मुस्काते हुए कहा – नन! अब लौंडे शैतान थे, अंग्रेज़ी के none को nun समझ लिए और कौआ बन के कान ले उड़े। खुशवंत सिंह के विपुल साहित्य संग्रह में यह कथा दर्ज है।
कहने का आशय ये कि बाप की प्राप्ति या खोज के बाद लड़के रुकते नहीं, संधान करते रहते हैं। बाप चाहे कितना ही फकीर क्यों न हो, लड़के उसकी फकीरी का अनर्थ निकाल के मौज लेते हैं और बाप चुप रहता है। जैसे अपने फादर चुप हैं आजकल लड़कों की कारस्तानी पर। कोई मसाज करवा रहा है, कोई माताहारी के चक्कर में फंसा पड़ा है, कोई बलात्कार कर रहा है, मने अपने अपने पास्टाइम का सब दुरुपयोग कर रहे हैं लेकिन फादर जी चुप हैं।
बड़ी मुश्किल से तो किसी ने पापा बनाया इतने सारे बच्चों का, हल्का सा चूं चां की तो गद्दी गई। धृतराष्ट्र भी सोच रहा होगा स्वर्ग में कि कहां अपन इतनी मेहनत कर बैठे कौरवों की सेना उपजाने में, वो भी बिना देखे समझे। कौन जानता था कि कलियुग वाला दो आंखों वाला धृतराष्ट्र बिना मेहनत के, केवल चश्मा पहन के करोड़ों का बाप बन जाएगा। सीताराम बाज़ार वाले रामलाल जी सही कहते थे – आदमी वही जो हिले न डुले, बैठा बैठा तुले!
खैर, चूंकि बाप अब मिल गया है और गायरूपी मां को तो स्वामी श्रद्धानंद ही दे गए थे हमें। तो परिवार पूरा हो चुका है। अब स्पष्ट है कि हमारे पितरों की भूमि यही है जहां अपने पुरखे पैदा हुए। कहीं और जाने की जरूरत नहीं है। अब ऐसा है कि जिनके जिनके पुरखे यहां पैदा नहीं हुए थे, बाहर से आए थे, वे सीधा कट लें। राखीगढ़ी का कंकाल जाग गया है।
जब तक माता का पता था तब तक यह देश मातृभूमि रहा। अब पिता मिल गए हैं, तो इंडिया फादरलैंड यानी पितृभूमि बन चुका है। जर्मनी की तरह। पितृभूमि पर वही रह सकता है जिसके पितर यहां जन्म लिए हों। बाकी कैंप में रहें या जहन्नुम में जाएं।
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एनआरसी ऐसे ही नहीं करवाया जा रहा। पूरी योजना और विचार है इसके पीछे। ध्यान दीजिएगा, फादर की घोषणा तब करवाई गई है जब अनागरिकों को छांटने की पूरी तरकीब हरकत में लाई जा चुकी थी। अब अगला कदम बस इतना है कि भारत माता का जेंडर बदल दिया जाए, उसे मातृभूमि की जगह पितृभूमि बना दिया जाए। समस्या हल।
इसे कहते हैं गाय का गाय और चाय का चाय। दोनों रह गया। जो कोई इस जोड़े में से एक को भी मां या बाप नहीं मानेगा उसे बाहर जाना ही होगा। हिन्दुस्तान में रहना है, तो फादर फादर कहना है।
( लेखक स्वतंत्र पत्रकार और व्यंग्यकार हैं)
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