डा. रवीन्द्र अरजरिया
वैदिक संस्कृति में उल्लेखित कर्म का सिद्धांत देश के राजनैतिक परिदृश्य में भी देखने को मिल रहा है। दलगत अखाडों के पहलवान ताल ठोक रहे हैं। जोर आजमाइश में हर तरह के दांव-पेंच अपनाये जा रहे हैं। चुनावी समर में जायज-नाजायज का अंतर मिट गया है। उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने का क्रम निरंतर जारी है। प्रतिद्वंदी के कृत्यों की नकारात्मकता को रेखांकित किया जा रहा है।
भयावह भविष्य का डर दिखाया जा रहा है। कहीं कथित राष्ट्रीयता का यशगान हो रहा है तो कहीं कथित क्षेत्रीयता को बचाने के नारे बुलंद हो रहे हैं। सुविधायें देने के नाम पर लोगों को निकम्मा बनाने की योजनाओं को सरकार में पहुंचते ही पूरा करने की कसमें खाई जा रहीं हैं। स्वार्थ में लिपटी मानवता के दावे और कथित धार्मिकता को हवा देने की भी पर्दे के पीछे से पहल हो रही है।
अतीत में किये गये कार्यों की असफलताओं पर कोई भी बात करने को तैयार नहीं हैं। सफलतायें ही सफलतायें दिखाई जा रहीं हैं। वास्तविकता तो यह है कि असफलतायें तो केवल और केवल ईमानदार नागरिकों के ही खाते में आतीं है और वाहवाही का अंकन राजनेताओं से लेकर अधिकारियों के पन्नों में दर्ज होता है।
उपलब्धियों के चरम पर बैठे लोगों के दावों के पीछे ईमानदार करदाताओं की मंशा की आधार शिला ही है, वरना मुफ्तखोरों की हड्डियों में से कैल्सियम रिस रिस कर बाहर आ जाता। आज कौटिल्य के अर्थशास्त्र से लेकर चाणक्य की नीति तक हासिये के बाहर पहुंच चुकी है।
समाज के सभी क्षेत्रों में राजनैतिक दखलंदाजी बढ़ गई है। विश्वास की धरोहर के रूप में स्थापित धर्म को भी राजनेताओं ने नियंत्रित करना शुरू कर दिया है।
लोकार्थ और परमार्थ के लिये त्याग करने वालों में भी खेमेबाजी शुरू करवा दी हैं। यह खेमे परमसत्ता तक पहुंचने के रास्ते को लेकर होते तो भी बात समझ में आती परन्तु यह तो सत्ता सुख के लिये लाल गलीचा लेकर दौडने वालों के मध्य स्थापित हो गई है। सुख, सुविधा और साधनों की भौतिकवादी सोच को तिलांजलि दे चुके लोग फिर उसी धारे में वापिस आने लगे है। देश में इस समय दो महाकुंभ एक साथ चल रहे हैं।
पहला महाकुंभ वैदिक विधानानुसार हरिद्वार में चल रहा है और दूसरा सत्ता का महाकुभ देश के पांच राज्यों सहित निकाय के मैदानों में नित नये रूप दिखा रहा है। कर्म का सिद्धांत दोनों में ही लागू होता है बशर्ते दोनों में सत्य के विश्लेषण का समय श्रध्दालुओं को दिया जाये।
यहां लोभ, लालच और स्वार्थ से दूर रहने वालों के रूप में श्रद्धालु का अर्थ समझना होगा, जो वास्तविकता की गहराई में गोते लगाकर मोती रूपी समीक्षा ला सके।
हरिद्वार छलकी अमृत बूंदों की प्राप्ति के लिए विकार रहित उपाय खोजे जा रहे हैं तो पांचों राज्यों में सिंहासन पर आसीत होने हेतु साम, दाम, दण्ड, भेद जैसे विकारों को अंगीकार किया जा रहा है। कोरोना काल में राजकोष खाली हो चुके हैं। लोगों के अवसर जा चुके हैं। सरपट दौडती जिन्दगी ने खामोशी के बाद अब किसी तरह रैंगना शुरू किया है। सूखे कुये बन चुके आय के स्रोत फिर से जलयुक्त होने के लिए तडफ रहे हैं।
ऐसे में सरकारों से लेकर बडी कम्पनियों तक ने अपनी नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन कर लिया है। जहां सरकारी तंत्र में सर्विस प्रोवाइडर जैसे संस्थान धडल्ले से प्रवेश कर रहे हैं वहीं बडी कम्पनियां अपने कर्मचारियों पर आर्थिक नकील कसने में लगीं हैं। संविधान की मनमानी व्याख्यायों तो पहले से ही देश में लागू थी, जो पहुंचयुक्त और पहुंचविहीनों के मध्य व्यवहारिक अन्तर दिखाती रहीं हैं।
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आधुनिक संचार माध्यमों के स्वतंत्र रथ पर सवार होकर अफवाहें स्वच्छंद उडान भर रहने लगीं है। इन्ही साधनों का खुला उपयोग हो रहा है। नागरिकों की सोच को प्रभावित करने के लिए मनोविज्ञान के विशेषज्ञों का सहारा लिया जा रहा है। राजनैतिक दंगल में डंका बज चुका है। नगाडे की गूंज फैलने लगी है। हांक लगाई जा रही है।
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घरानों के पहलवानों के पीछे उनके उस्तादों की जमात खडी है मगर कर्म का सिद्धांत तो लागू होकर ही रहेगा। लोगों को अब सब कुछ समझ में आने लगा है। नई पीढी को सुरक्षित भविष्य की चाहत है। विकास के पुरातन मायने बदल चुके हैं। सोच का दायरा विस्त्रित हो चुका है।
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दादा के कहने पर पौत्र का मतदान अब गुजरे जमाने की बात हो गई है। अब तो पौत्र के अकाट्य तर्कों पर दादा का मतदान होता दिख रहा है। ऐसे में अप्रत्याशित परिणामों की आशा बलवती होती जा रही है। ऐसे में कर्म के सिद्धांत का नया अवतार के रूप में अभी से दिखने लगा है। आखिर देश में एक साथ दो महाकुंभ जो हो रहे हैं।