न्यूज़ डेस्क
लखनऊ। कोविड-19 के कारण जारी लाकडाउन ने कलकल बहती चंबल नदी में विचरण करते दुर्लभ प्रजाति के कछुओं को सुरक्षित प्रजनन का मौका दे दिया है।
दरअसल, कोरोना वायरस के प्रसार के बाद हुए लाॅकडाउन ने हर प्रकार की गतिविधि पर रोक लगा दी है। मानव जाति के लिये संकट की इस घड़ी का फायदा उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान मे पसरी राष्ट्रीय चंबल सेंचुरी और अन्य नदियों, तालाबो झीलों मे पाये जाने वाले दुलर्भ प्रजाति के कछुओं को मिला है।
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तस्करों और शिकारियों के लिये बड़े फायदे का सौदा बनने वाले विशाल कछुए न सिर्फ स्वच्छंद विचरण कर रहे हैं वहीं बालू से पटे किनारों पर अपने अंडों की सुरक्षा भी कर पा रहे है।
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देहरादून स्थित भारतीय वन्य जीव संस्थान के संरक्षण अधिकारी डा.राजीव चौहान के मुताबिक लाॅक डाउन मे कछुओं को दो प्रकार से फायदा पहुंचा है। एक और इनका अवैध शिकार रुका है वहीं दूसरी ओर इनके प्राकृतिक वास स्थलों को प्रजनन के लिये संरक्षण प्राप्त हुआ है।
नदियों के आस- पास बालू के किनारों एवं दीपों पर बाटागुर, निलसोनिया गंगेटिका, निलसोनिया ह्यूरम, जियोक्लमस हेमिल्टनाई, पंगशुरा टेक्टा, लिसीमस पंक्टाटा, चित्रा इंडिका जैसी अनेक दुर्लभ प्रजाति के कछुए फरवरी से मार्च के बीच बालू में गड्ढा खोदकर अंडे देते हैं।
मानव गतिविधियों के चलते इनके अंडों को नुकसान पहुंचता था जो लाकडाउन के कारण इस बार नहीं हो सका है। काफी सारे घोसले बच गए जो निश्चित रूप से इनकी जनसंख्या में इजाफा करेंगे।
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उन्होने बताया कि लाॅकडाउन के कारण वाहनों का संचालन बंद होने से कछुओं की तस्करी भी थम गयी है। अवैध रूप से कछुओं का शिकार कर पश्चिम बंगाल की ओर ले जाया जाता था। स्थानीय स्तर पर कछुओं का व्यापार अमूमन नहीं होता इसलिए शिकारियों ने कछुओं को नुकसान नहीं पहुंचाया।
डा. चौहान के अनुसार कई वर्षों से यह देखा गया कि इटावा, मैनपुरी, औरेया से काफी सारे ट्रक हर वर्ष पकड़े जाते थे और उनका अधिग्रहण कर लिया जाता था। दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय उड़ानें रद्द होने की वजह से पालतू कछुओं के रूप में रखने वाली प्रजातियां जिओक्लिमिस हैमिल्टनाई का भी व्यापार बंद होने की वजह से इनकी भी जान बच गई। इनका भी व्यापार यहां से होता देखा गया है।
उन्होने बताया कि भारत में पाई जाने वाली कछुओं की 29 प्रजातियों में से 15 उत्तर प्रदेश में पाई जाती है। इनमें से कुछ प्रजातियां भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के अंतर्गत संरक्षण प्राप्त है।
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ज्यादातर कछुए नदी, नाले, झील, तालाब इत्यादि में पाए जाते हैं। इटावा में बहने वाली नदियों एवं तालाबों झीलों में 10 प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें से सात संरक्षण सूची में दर्ज है।
चंबल सेंचुरी के डीएफओ दिवाकर श्रीवास्तव की माने तो इटावा में पांच नदियों का संगम होने के अलावा कई ऐसे बड़े तालाब हैं, जहां लाखों की तादाद में कछुए पाए जाते हैं। यही वजह है यहां कछुआ आसानी से मिल जाता है। इनको पकड़ कर तस्कर विभाग की व्यापक सक्रियता के बावजूद देश-विदेश में बेचते रहे है। पांच नदियों के संगम वाले इलाके पंचनंदा और चंबल में कछुओं के दुश्मन भरे पड़े हैं।
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चंबल, यमुना, सिंधु, क्वारी और पहुज जैसी नदियों के अलावा अन्य छोटी नदियों और तालाबों से तस्कर कछुओं को पकड़ते हैं। 1979 में सरकार ने चंबल नदी के लगभग 425 किलोमीटर में फैले तट से सटे इलाके को राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य घोषित किया था। इसका मकसद घडियालों, कछुओं (गर्दन पर लाल व सफेद धारियों वाले कछुए) और गंगा में पाई जाने वाली डाल्फिन का संरक्षण था।
अभयारण्य की हद उत्तर प्रदेश के अलावा मध्य प्रदेश और राजस्थान तक है। इसमें से 635 वर्ग किलोमीटर आगरा और इटावा में है। इटावा परिक्षेत्र की नदियों में कछुओं की लगभग 55 जतियां पाई जाती हैं, जिनमें साल, चिकना, चितना, छतनहिया, रामानंदी, बाजठोंठी और सेवार आदि प्रसिद्ध हैं।
पर्यावरणीय संस्था सोसायटी फाॅर कंजरवेशन आफ नेचर के सचिव संजीव चौहान के अनुसार उनका संगठन स्थानीय वन विभाग से मिल करके कछुआ तस्करो के खिलाफ लगातार अभियान चलाये हुए है लेकिन इस लाॅक डाउन के कारण कछुओं का शिकार और तस्करी करने वालो को कही जगह नही मिल सकी है इसलिए कछुओ को संजीवनी मिली है।
मान्यता है कछुओं का मांस इंसानी पौरुष बढ़ाने की दवा का काम करता है। भारतीय कछुओं की खोल, मांस या फिर उसके बने चिप्स की मांग पूरी दुनिया में है। कुछ देशों में कछुए का मांस बहुत पसंद किया जाता है। कछुए के सूप और चिप्स को भी तरह से तरह से बनाकार परोसा जाता है।
चौहान के मुताबिक लॉकडाउन के बाद अब बिल्कुल तस्वीर बदली हुई दिख रही है। कहा यह जा सकता है कि लॉकडाउन में कछुओं को जीवनदान दे दिया है।
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