माल्टा से शाह उर्फी रज़ा जैदी
दहशतो से वहशतो मे बदलती दुनियां के बीच की कडी है, कोरोना। बस यही लगता है पूरी दुनियां को परेशान देखकर! कभी बड़े रोम साम्राज्य का हिस्सा रही सरज़मीने मालिता, जिसे अब माल्टा कहते है, आज वहशत मे जी रही है। समन्दर की लहरे सर उठाकर दूर दूर तक पर्यटको को तलाश कर के साहिलो पे अपना दम तोड रहीं है।
जिन सड़को, होटल व रेस्टोरेन्टस पर जहां दुनियां भर के लोगो का जमावडा रहता था वही आज मौत क सन्नाटा पसरा हुआ है!
खास तौर पर अगर कोई यूरोपियन या अमरीकी किसी ऐशियन या अफ्ररीकी को सामने से आता देख लेता है तो रास्ता बदल देता है ! और हवांगहो नदी के तहजीबी बाशिन्दगान (चाइनीज) का तो यहाँ और भी बुरा हाल है, लोग उनसे ऐसा डर रहे है जैसे वो कोरोना को अपने बैग मे लिऐ घूम रहे है!
ऐहदे क़दीम के बढे बढे चर्चो जिनकी ना थकने वाली घंटियां खामोश है! मैने एक टापू पर बाईबिल(इंजील)के मारूफ संत पाल का वो खामोश मज़ार भी देखा जो लहने दाऊदी मे लहरो की आवाज़ मे तन्हा आवाज़ मिला रहा था और साँपो के ज़हर का मोजज़ा इस सबूत के साथ बता रहा था कि माल्टा के साँपो मे आज भी ज़हर नही होता!
अलग़रज़ वहशतो के इस दौर में जहाँ
इंसान ने इंसान के लिए मज़हब ओ तहज़ीब के नाम पर अपने दरवाज़ों को बंद क्या किया मानो खुदा को ही नाराज़ कर दिया । सनमकदो से लेकर कलिसाओ,मस्जिदो से लेकर सिनेगाग समेत सारे खुदाई घरो के दरवाजे बंद हो गये।आज खौफे खुदा हर इंसान किसी न किसी बहाने खुदा को याद कर रहा है!
पर ऐन मौके पर मुझे इमाम जाफर सादिक़ अलै० का वो कौल याद गया कि खुदा की इबादत न किसी लालच मे करो और न किसी खौफ मे, उसकी इबादत इसलिए करो कि वो लाईक़ ए इबादत है।
कल ही रात हमारे एक दोस्त का बर्मिघम,लंदन से फोन आया और उन्होने अपने चचाज़ाद भाई डा० आबदी साहब जिनकी उम्र तक़रीबन पैसठ-सत्तर साल की थी उनकी कोरोना से मौत के बारे मे बताया तो ये उनकी आवाज़ मे मौत के दर्द से ज्यादा बीमारी का खौफ था।
मैने कहा कि कोई जवान तो नही मरा उस पर बोले नही भाई कई जवान भी मर चुके है हालात बहुत खराब है। मैने कहा कि चलो इसी बहाने लोग अल्लाह को याद करने लगेंगे। इस पर उन्होने कबीर का पैगाम्बरी दोहा सुना कर फोन काट दिया –
दुख में सुमिरन सब करै सुख मे करे न कोई
सुख मै सुमिरन गर करै तो दुख काहे को होऐ।