Saturday - 26 October 2024 - 3:25 PM

डंके की चोट पर : आज मोदी गिरे तब नेहरू फिसले थे

शबाहत हुसैन विजेता

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी माँ गंगा के बुलावे पर बनारस गए तो प्रधानमंत्री बन गए और उसी माँ गंगा के बुलावे पर कानपुर गए तो वहां उनके पांव फिसल गए।

प्रधानमंत्री के पांव फिसलने का वीडियो देखते ही देखते सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं आने लगीं। समर्थन या विरोध अपनी जगह लेकिन किसी के भी गिरने पर उसका मजाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए। पांव किसी का भी फिसल सकता है और लड़खड़ाने से कोई भी ज़मीन पर गिर सकता है।

कहा भी गया है कि गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलें। जो भी चलता है वह कभी न कभी गिरता ज़रूर है। बचपन में चलना शुरू करने वाला बच्चा भी बार-बार गिरता है, फिर संभलकर चलने लगता है। संभलकर चलने वाला भी अक्सर ठोकर खाकर या फिर लड़खड़ाकर गिरता ही रहता है।

इस बार गिरने वाला देश का प्रधानमंत्री है तो सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल हो गया है। इतिहास पर नज़र दौड़ाएं तो नरेन्द्र मोदी पहले प्रधानमंत्री नहीं हैं जो लड़खड़ाकर गिर गए हों। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी संसद की सीढ़ियां चढ़ते वक़्त बुरी तरह से लड़खड़ा गए थे। उनके पीछे अगर कालजयी रचनाकार और सांसद रामधारी सिंह दिनकर न होते तो वह भी मोदी जी की तरह ज़मीन पर गिर गए होते।

पंडित नेहरू जैसे ही लड़खड़ाए वैसे ही पीछे से रामधारी सिंह दिनकर ने उन्हें संभाल लिया और पंडित नेहरू गिरने से बच गए। नेहरू जी ने दिनकर जी का आभार जताया तो दिनकर जी ने कहा कि धन्यवाद की ज़रूरत नहीं है क्योंकि जब भी राजनीति लड़खड़ाती है तो साहित्य उसे संभाल लेता है।

पीएम मोदी भी कानपुर के गंगा घाट पर गिरने से बच सकते थे बशर्ते उनके साथ ढाल के रूप में दिनकर रूपी कोई साहित्यकार होता लेकिन दुःखद यह है कि मौजूदा दौर की सियासत में साहित्य के लिए कोई स्थान ही नहीं बचा है।

पंडित नेहरू से लेकर नरेन्द्र मोदी तक अगर लगातार राजनीति साहित्य की छत्रछाया में रहती तो शायद बार-बार राजनीति को मुंह के बल न गिरना पड़ता। समझदार सलाहकार न होंवे की वजह से कभी एनआरसी के ज़रिए सरकार लड़खड़ाती है और कभी सीएबी के जरिये पूर्वोत्तर भारत में मुंह के बल गिरती है।

हिन्दुस्तान की राजनीति इन दिनों मुंह के बल गिरी हुई है और कोई भी ताक़त ऐसी नहीं है जो उसे उठाकर फिर से चलने के लायक बना सके। देश भुखमरी से जूझ रहा है। प्याज़ 100 रुपये किलो का आंकड़ा पार कर चुकी है, आटा 26 रुपये और दूध 56 रुपये किलो बिक रहा है, लेकिन दूसरे देशों से आये 4 करोड़ शरणार्थियों को भारत में बसाने के लिए सरकार सीएबी लेकर आयी। राजनीति ने तय किया कि शरणार्थियों के रूप में भारत आये सभी गैर मुसलमानों को भारत की नागरिकता दी जाएगी। 4 करोड़ वोटों के लालच में गले तक क़र्ज़ में डूबे देश में जनसंख्या में अचानक इज़ाफ़ा कर लिया गया।

एक तरफ सरकार चाहती है कि जनसंख्या नियंत्रण के कानून को सख्ती से लागू किया जाए तो वहीं दूसरी तरफ 4 करोड़ लोगों की जनसंख्या को एक साथ बढ़ा लिया गया। वास्तव में गंगा घाट पर गिरने से ज़्यादा यह गिरना है। यह सरकार की लड़खड़ाती व्यवस्था है कि देश का पूर्वोत्तर हिस्सा बुरी तरह से जल रहा है। यह सरकार का घुटनों के बल चलना है कि 17-17 साल के बेगुनाह और निहत्थे लड़कों को पुलिस ने गोली मार दी। यह सरकार की लड़खड़ाहट है कि तीस हजारी कोर्ट में वकील वर्दीधारी पुलिस वालों को तमाचे मारें और यह सरकार का औंधे मुंह गिर जाना है कि वर्दीधारी पुलिसकर्मी किसी यूनीवर्सिटी में लड़कों और लड़कियों पर समान रूप से लाठीचार्ज करें।

देश शर्मनाक दौर से गुज़र रहा है। छात्र पीटे जा रहे हैं। नौकरी पेशा लोगों की पेंशन छीनी जा रही है। जानवरों के नाम पर इंसान काटे जा रहे हैं। मॉब लिंचिंग की जा रही है। ड्यूटी से लौटती डॉक्टर की रेप के बाद जलाकर हत्या की जा रही है, रेप पीड़िता का सड़क पर एक्सीडेंट कराया जा रहा है। सरकारी स्तर पर हिन्दू और मुसलमान का फ़र्क़ किया जा रहा है।

संविधान की अनदेखी भी लड़खड़ाकर गिरना है। संविधान की अनदेखी तभी होती है जब राजनीति को साहित्य की छत्रछाया नहीं मिलती। संविधान तभी लज्जित होता है जब वह समझदार लोगों के बजाय नादानों के हाथ में चला जाता है।

भारतीय राजनीति संविधान के साथ जिस तरह के बचकाने व्यवहार के बाद भी मुस्कुरा रही है उससे यह बात बिल्कुल साफ है कि राजनीति तो पूरी तरह से गिर चुकी है। वह ऐसा गिरी है कि उठने और मुंह दिखाने के लायक भी नहीं है, व्यक्ति तो गिरकर फिर भी खड़ा हो जाता है।

राजनीति और साहित्य का मेलजोल अगर फिर से कायम न हो सका तो एनआरसी और सीएबी उसकी जगह ले लेंगे और तब सिवाय पछताने के कुछ भी हाथ नहीं लगेगा क्योंकि राहत इंदौरी ने कहा भी है कि लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में, यहाँ पे सिर्फ हमारा मकान थोड़े है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)

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