कुमार भवेश चंद्र
चुनावों से पहले ऐसे दावों का जोखिम तो रहता ही है। पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में अभी वक्त है। अब से लेकर अप्रैल-मई के बीच कुछ भी ऐसा हो सकता है जो चुनावी तस्वीर दे।
लेकिन यह इस वक्त की सच्चाई है कि बीजेपी ने ममता बनर्जी और उनकी पार्टी के इर्द-गिर्द इतना मजबूत घेरा बना दिया है कि तीसरी बार सत्ता में उनकी वापसी की राह आसान नहीं दिख रही।
चुनाव में किसी दल की ताकत का आकलन उसके संगठन और जमीन पर उसके समर्थन से किया जाता है। बीजेपी के चाणक्य अमित शाह की नीतियों ने ममता बनर्जी और उनकी पार्टी के लिए चुनौतियां तो खड़ी कर दी है।
इसे उनके समर्थक भी भली भांति समझ रहे होंगे। 2006 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में जीरो पर आउट रहने वाली बीजेपी 2019 में 18 सांसदों वाली पार्टी बन चुकी है।
इसमें एक उपलब्धि यह भी जुड़ गई है कि वह वोट प्रतिशत के मामले में तृणमूल कांग्रेस से बेहद करीब पहुंच गई है। 2019 के लोकसभा के आंकड़े बताते हैं कि ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस को इस चुनाव में 22 सीटों पर सिमट गई थी और उसे 43.3 फीसदी वोट मिले थे।
जबकि बीजेपी ने पहली बार प्रदेश में 18 संसदीय सीट जीतते 40.6 फीसदी वोट हासिल किए। इसके बाद तस्वीर साफ हो जाती है कि वह तृणमूल कांग्रेस को कितना करीबी टक्कर देने की स्थिति में पहुंच गई है।
विधानसभा के चुनावों को लोकसभा से अलग देखने वाले दावे कर सकते हैं कि बीजेपी 2021 में ऐसा कोई करिश्मा नहीं कर पाएगी। ममता की पार्टी के रणनीतिकार तो दावे भी कर रहे हैं कि यदि बीजेपी 10 सीट क्रास कर जाएगी तो वे ट्विटर छोड़ देंगे।
मुमकिन है प्रशांत किशोर किसी नए नाम के साथ ट्विटर पर आगे की यात्रा जारी रखने के बारे में सोच रहे होंगे। खैर. हवा-हवाई दावों और बयानों को पीछे छोड़कर एक बार फिर जमीन की तरफ बढ़ते हैं।
लंबे समय तक वामदलों के शासन में रहने वाली पश्चिम बंगाल की जनता भले ही यथास्थिति में रहने की आदि हो लेकिन 2006 से पहले जब परिवर्तन के लिए ममता ने मुहिम तेज की तो उनकी महात्वाकांक्षा जाग उठी और तीस साल पुरानी सत्ता को पलटकर ममता के हाथ में कुंजी थमा दी थी।
जमीन पर बदलाव की ये हुंकार एक बार फिर सुनाई दे रही है। बीजेपी एक बार फिर उसी परिवर्तन की धार से तृणमूल कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के लिए सियासी मुहिम तेज कर चुकी है।
केंद्रीय गृहमंत्री और बीजेपी के अध्यक्ष रहे अमित शाह ने दो दिनी दौरे में साफ कर दिया कि ममता बनर्जी को हराने के लिए वे किस तरह का हथियार इस्तेमाल करने जा रहे हैं।
बीजेपी न केवल अपने संगठन को नीचे के स्तर तक मजबूत करने की दिशा में तेजी से काम कर रही है बल्कि विरोधी खेमे में भी सेंध लगा रही है। अधिकारी ब्रदर्स का ‘शिकार’ तो बस शुरुआत है।
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टीएमसी और दूसरे विरोधी दलों के जमीनी नेताओं को अपने पाले में करने की ताकत केवल बीजेपी के पास है। केंद्रीय सत्ता का दम और पार्टी का मजबूत खजाना ममता बनर्जी के समर्थकों पर भारी पड़ता दिख रहा है।
कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे पालाबदल किस तरह के दबाव और प्रभाव में किए जाते हैं। बोलपुर में अमित शाह के रोड शो में पार्टी के शौर्य प्रदर्शन को केवल चुनावी शो बाजी समझने वाले शायद भूल कर रहे हैं कि बीजेपी जमीन से लेकर दिखावे की कार्रवाई तक को पूरी शिद्दत से काम करती है।
और इस काम में लगने वाले धन के लिए उसे अब कुछ सोचने की जरूरत नहीं। विरोधी दल इस तरह के आयोजनों की आलोचना कर सकते हैं…चुनाव में धन बल के इस्तेमाल का आरोप लगा सकते हैं लेकिन सच्चाई है कि बीजेपी ऐसी बातों की परवाह नहीं करती।
उसे पता है कि उसके आलोचकों ने ही उसे यहां तक पहुंचाया है। इसीलिए वह ऐसी आलोचनाओं के लिए अवसर प्रदान करती है। जैसे आलोचना हो रही है कि कोरोना की वजह से संसद का शीतकालीन सत्र तो टाला जा रहा है लेकिन पश्चिम बंगाल में चुनावी रोड शो से बीजेपी को परहेज नहीं।
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कई कारणों से आज पूरे देश में बीजेपी के आलोचकों की कमी नहीं है। पार्टी ने आलोचना के लायक कामों की फेहरिश्त भी लंबी करती जा रही है। लेकिन यह सच है कि उसके कार्यकर्ताओं में जो जुनून दिख रहा है और उसके नेताओं में जो जोश दिख रहा है, वह दूसरे दलों में गैरहाजिर है।
जोश और जुनून के साथ एक सामाजिक समीकरण के जरिए अपनी राह आसान करने की रणनीति ने भी बीजेपी को हिंदी पट्टी में कामयाबी दिलाई है। पश्चिम बंगाल की मिश्रित आबादी पर वह सामाजिक समीकरण को साधने की दिशा में भी तेजी से काम कर रही है।
झारखंड से लगे आदिवासियों के लिए उनके पास पुख्ता कार्यक्रम और नीतियां हैं तो यूपी-बिहार से पलायन कर बंगाली हुए नागरिकों तक पहुंच बनाने के प्रयास भी जारी हैं।
पश्चिम बंगाल के सिंहासन पर अपना दावा ठोकने के लिए बीजेपी के दिग्गज नेताओं की फौज से लेकर संघ परिवार से जुड़े सारे संगठन ने अपने घोड़े खोल देने की योजना बना ली है।
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पार्टी के प्रदेश का मुखिया दिलीप घोष खुद संघ की पृष्ठभूमि से आते हैं। जाहिर है बीजेपी के इन कठिन प्रयासों को बेअसर करने के लिए ममता बनर्जी का तमतमाता गुस्सा काफी नहीं रहने वाला है।
वक्त रहते ममता ने इस चुनौती को गंभीरता से नहीं लिया तो बीजेपी उनका खेल खराब कर देगी और तब तृणमूल कांग्रेस और विपक्षी दलों के पास इस चुनाव के परिणामों की समीक्षा के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा।