शबाहत हुसैन विजेता
लखनऊ में कई बार एमएलए रहने के बाद वह एमपी बने. एमएलए थे तो भी बड़े कद्दावर थे. सूबे की सरकार में ताकतवर वजीर थे. एमपी का इलेक्शन लड़े तो भी आराम से जीत गए. वह जिस पार्टी से एमएलए का इलेक्शन लड़ते और जीतते थे उस पार्टी पर फिरकापरस्ती का स्टीकर लगा था. जबकि जिस इलाके से वह सबसे ज्यादा बार जीते वह इलाका मुस्लिम बाहुल्य है.
पार्टी सुप्रीमो ने उनसे बोला कि आप एमपी का इलेक्शन लड़ो. वह इस शर्त पर तैयार हो गए कि उनकी एमएलए सीट पर उनका बेटा लड़ेगा. पार्टी सुप्रीमो ने हाँ में गर्दन हिला दी. इस तरह से बेटा एमएलए बन गया और वह एमपी हो गए.
वह दो बार एमपी रहे. तीसरी बार भी जीत जाते मगर पार्टी सुप्रीमो ने कहा कि अब तुम्हारी जगह कोई और लड़ेगा. वह नाराज़ हो गए. पार्टी ने समझाया. सीट छोड़ दो, फायदे में रहोगे. हम तुम्हें किसी सूबे का मालिक बना देंगे.
उन्होंने बमुश्किल हामी भरी. पार्टी सुप्रीमो को उनकी ना नुकुर पसंद नहीं आयी लिहाज़ा उन्हें कई साल बेरोजगार रखने के बाद अपना वादा निभा दिया.
मुस्लिम इलाके में रहने वाले फिरकापरस्त पार्टी के नेताजी मुसलमानों में भी पसंद किये जाते थे. वह कभी न हारने का फन जानते थे. न वह किसी को नाराज़ करते थे न कोई उनसे नाराज़ होता था. उनके घर पर कोई भी चला जाता था तो उसकी बात भी सुनते थे और जिससे भी काम होता था उसे फ़ौरन फोन भी कर देते थे.
एक बार एमएलए के इलेक्शन में उन्हें अपनी सीट डगमगाती दिखाई दी. दूसरी सियासी पार्टियों ने मुस्लिम कैंडीडेट मैदान में उतारे. यह चेहरे घर-घर में पहचाने जाते थे. इन्हें ईमानदार भी माना जाता था. पार्टी हाईकमान ने उनसे कहा कि अपने इलेक्शन पर खासतौर पर ध्यान दो.
उन्होंने अपने घर पर बैठकर दूसरी पार्टियों के मुस्लिम कैंडीडेट का पूरा ब्यौरा मंगवाया. थोड़ी देर बाद उनके चेहरे पर मुस्कान तैर गई. उन्होंने एक कैंडीडेट को अपने घर बुलवाया. जब वह आया तो उन्होंने उसे अपने कमरे में बुलाकर गले से लगाया. उससे कहा कि तुम बहुत अच्छा इलेक्शन लड़ रहे हो. अच्छी बात यह है कि तुम शिया मुसलमान हो. इस इलाके में शियों के इतने वोट हैं कि अगर तुम्हें सब मिल जाएँ तो तुम एमएलए बन सकते हो. मेरा क्या है हार भी गया तो पार्टी एमएलसी बना देगी. तुम मेरी औलाद की तरह हो. काबिल हो. शिया हो. तुम एमएलए बनने के लायक हो. मेहनत से लड़ो. पैसे की फ़िक्र मत करो. जितना चाहिए होगा मैं दूंगा. उसे चाय पिलाई. चलते वक्त अच्छी खासी रकम भी दी.
दूसरे दिन दूसरी पार्टी का कैंडीडेट उनके घर पर था. उसे भी उन्होंने गले लगाया. उससे कहा कि तुम बहुत अच्छा इलेक्शन लड़ रहे हो. अच्छी बात यह है कि तुम सुन्नी मुसलमान हो. इस इलाके में इतने सुन्नी वोट हैं कि वही तुम्हें एमएलए बना देंगे. हर घर में जाओ. कोशिश करो कि एक भी सुन्नी वोट टूटने न पाए. मेरा क्या है, हार गया तो एमएलसी हो जाऊँगा. तुम मेरी औलाद की तरह हो. तुम जीतो. उसे भी चाय पिलाई और जाते वक्त अच्छी खासी रकम भी दी.
दोनों मुस्लिम कैंडीडेट अपनी-अपनी कम्युनिटी के वोट हासिल करने में जुट गए. दोनों ने पूरी ताकत अपनी कम्युनिटी में झोंक दी. इलेक्शन में दोनों कैंडीडेट ने फिरकापरस्त पार्टी के एमएलए का ज़िक्र भी नहीं किया. इलेक्शन का नतीजा आया तो दोनों हार गए और वह पहले से ज्यादा वोटों से जीत गए थे.
यह बात बहुत पुरानी है लेकिन आज अचानक इसलिए याद आ गई कि मुल्क के एक बड़े नेता को फिरकापरस्त पार्टी की बी टीम माना जाता है. यह मुस्लिम नेता शानदार बोलने वाला है. इस नेता के पास हर सवाल का जवाब है. अपने सूबे में इसने बहुत से स्कूल कालेज खोले हैं. अपने इलाके में सभी मजहबों के लोगों में इसकी पैठ है लेकिन यह दूसरे सूबों में जाता है तो मुस्लिम वोटों को एकजुट करने की कोशिश में जुट जाता है.
इस मुस्लिम नेता ने अब अपने डैने सभी सूबों में फैला दिए हैं. इलेक्शन से पहले इस नेता की विंग यह पता करती है कि किस इलाके में कितना मुस्लिम वोट है. इलेक्शन में अपनी पार्टी से उसी इलाके के मुसलमान को यह पार्टी अपना कैंडीडेट बना देती है. मज़हब के नाम पर वोट पड़ते हैं. कुछ सीटें इस पार्टी के हिस्से में भी आ जाती हैं.
इस नेता को इस बात की फ़िक्र नहीं है कि उसे किसी का बी टीम बताया जा रहा है. उसे फ़िक्र बस सभी सूबों की असेम्बली में अपनी पार्टी का कद बढ़ाना है.
मुल्क में सेक्युलरिज्म को लेकर बहस छिड़ी है. फिरकापरस्ती को लेकर बयान दिए जा रहे हैं. आज़ादी की साँसें लेते हुए मुल्क एक सदी का होने वाला है. आज़ादी की लड़ाई चल रही थी तब दुश्मन सिर्फ अंग्रेज़ था. सबने मिलकर उसे हराया था. अब आपस में दुश्मनी बढ़ती जा रही है. अब आपस में ए टीम और बी टीम तलाशी जा रही है.
मुल्क में मन्दिर और मस्जिद को लेकर जंग छिड़ी है. इबादतगाहों को फिरकापरस्त बनाया जा रहा है. सियासी पार्टियों में फिरकापरस्ती इस हद तक पेवस्त हो गई है कि मुल्क छोटा हो गया है. इंसानी जिंदगियों की कीमत घट गई है.
वह बीस-पच्चीस साल पहले की बात थी जब शिया और सुन्नी कैंडीडेट को उन्हीं की कम्युनिटी तक रोककर उन्हें इलेक्शन हराया गया था और आज हिन्दू-मुसलमान के नाम पर सीटें हराने और जिताने का काम चल रहा है.
मतलब साफ़ है कि सियासत में बदला कुछ नहीं है सब कुछ पहले जैसा है. सियासत की चौपड़ पर आम आदमी तब भी हार का मुंह देखने वाला मोहरा था और आज भी हार जाने वाला मोहरा है.
समझने की बात यह है कि इलेक्शन में मज़हब आखिर मुद्दा क्यों बनता है. कैंडीडेट की सलाहियत को देखकर वोट देने का माहौल क्यों तैयार नहीं हो पाता. एमएलए या एमपी किसी भी मज़हब का हो क्या फर्क पड़ता है. वह किसी भी पार्टी का हो इससे भी क्या फर्क पड़ता है. जो पब्लिक इंटरेस्ट का मतलब समझता हो. जो इलाके की दिक्कतें जानता हो. जो पब्लिक को आसानी से मिल जाता हो. पब्लिक का रहनुमा तो उसे ही बनाया जाना चाहिए.
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जो मन्दिर की बात करता हो. जो मस्जिद की बात करता हो. जो मज़हब के नाम पर बंटवारे के फन में माहिर हो. हो नफरत फैलाने का हुनर जानता हो. जो पैसों के बल पर जीत जाता हो. जो पार्टी के मुखिया के चेहरे पर जीतता हो. जो जीतने के बाद अपने इलाके के लोगों में फर्क करता हो. जो जीतने के बाद अपने इलाके में न जाता हो. जो हर बार अलग जगह से इलेक्शन लड़ता हो. ऐसे लोगों को सियासत से बेदखल करने का बक्त आ गया है. ऐसे लोगों को बताना होगा कि मुल्क जिस भाईचारे की नींव पर खड़ा है उस नींव को कमज़ोर करने का हक़ किसी को भी नहीं दिया जाएगा.