Tuesday - 29 October 2024 - 2:32 PM

आत्महत्याओं को लेकर सतर्क होने का समय

डा. मनीष पाण्डेय

मानव इतिहास के प्रत्येक समयकाल में आत्महत्याएं सामान्य रूप से घटित होती रही हैं, किन्तु हाल के दशक में इसमें आई तेजी चिंताजनक है। आत्महत्या की घटनाओं में वैसे तो विश्व स्तर पर वृद्धि देखी जा रही, किन्तु भारत की बात करें तो नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो द्वारा इसी साल जनवरी महीने में जारी किए आंकड़े बताते हैं, कि सन 2018 में आत्महत्या के 1 लाख 34 हजार 516 मामले दर्ज किए गए, जबकि 2017 में 1 लाख 29 हजार 887 लोगों ने खुदखुशी की थी, जिसके अलग-अलग कारण रहे|

2018 में 2017 के मुक़ाबले कुल आत्महत्या में 3.6 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई| दिहाड़ी मजदूर, किसान, गृहिणी, नौकरी पेशा, बेरोज़गार, छात्र और उद्यमियों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के अलावे सामूहिक आत्महत्या की प्रवृत्ति में भी तेजी दिखाई दे रही है| पिछले ही कुछ दिनों में सामूहिक आत्महत्या की कई खबरे सामने आईं, जिसमें पूरे परिवार ने एक साथ मौत को गले लगा लिया|

इन स्थितियों को सामान्य नहीं लिया जा सकता, क्योंकि अनेकानेक कारणों से भविष्य में बहुत से लोगों को एकाकीपन, तनाव एवं आर्थिक संकटों से जूझना पड़ सकता है| कोविड 19 महामारी के कारण आर्थिक संकट उत्पन्न होने की आशंकाओं के बीच आत्महत्या की प्रवृत्ति को लेकर अधिक सतर्क होने की जरूरत है|

संबन्धित सामयिक परिदृश्य पर बात करें, तो पिछले कुछ दशकों में वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने दुनिया के विभिन्न देशों में आर्थिक पारस्परिकता को बढ़ाकर सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना में व्यापक परिवर्तन कर दिया है, जिसके परिणामस्वरूप मानव जीवन का समस्त पक्ष आर्थिक गतिविधियों पर केन्द्रित हो गया है| आर्थिक उतार-चढ़ाव के सापेक्ष ही सामाजिक संरचना में व्यापक उथल-पुथल मची है| यहाँ अनियमितता, क्षणिकता और खिचड़ी संस्कृति है|

इस दरम्यान समाज कायिक और वैचारिक प्रकार की आत्महत्याओं के संकट के दौर से गुजर रहा है और इसका सीधा अर्थ है कि बढ़ते आर्थिक मूल्यों के प्रभुत्व के बीच व्यक्ति और समाज दोनों कमजोर हुए हैं| इस संकट का सामना करने के लिए अपेक्षित मूल्य एवं विचारधारा, सभ्यता और प्रतिरोधी क्षमता निरंतर कमजोर हो रही है|

दुनियाभर मे इच्छा मृत्यु की बढ़ती मांग और आत्महत्या की घटनाओ का तात्पर्य है कि जिजीविषा और मानवता सवालों के घेरे में है| वैश्वीकरण के माहौल में बाजार आधारित उपभोक्तावादी संस्कृति ने अपने मुनाफ़े के खेल में भौतिक संस्कृति को चरमोत्कर्ष पर ले जाकर भावनात्मक संस्कृति का लगभग विनाश कर दिया है| परंपरागत संस्थाएं महत्वहीन होती जा रही हैं| सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न अवयवों के हो रहे वस्तुकरण के बीच सम्पूर्ण समाज का अंतरंग संकटग्रस्त हो रहा है, जिसमें मनुष्य के बेबस होकर आत्महत्या की ओर उन्मुख हो जाने की घटनाए लगातार बढ़ रही हैं|

झूठी चेतना और झूठे मांग ने एक शक्तिशाली उपभोग समाज का निर्माण कर दिया है, जहां संस्कृति पण्य वस्तु है और पण्य वस्तु संस्कृति है| इस स्थिति में मानवता का संकट खड़ा है और नई पीढ़ी अपने सामाजिक प्राणी होने की पहचान खो रहा है| एकाकीपन और मतलबपरस्ती अपने हद की ओर बढ़ रही है| इस संदर्भ में अमेरिकी समाज के आधुनिक चरित्र पर केन्द्रित किताब ‘द लोनली क्राउड़’ बड़ी प्रासंगिक है, जिसके अनुसार कैसे हम भीड़ में रहते हुए भी अकेले हैं|

वास्तव में किसी भी आत्महत्या पीछे हमेशा से सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक कारकों की भूमिका रही है| आत्महत्या एक विचलनकारी घटना है जिसे प्रायः मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में समझा जाता है|

संभवतः पहली बार फ्रांसीसी समाजशास्त्री ईमाइल दुर्खीम ने अपने आत्महत्या के सिद्धान्त में इसके लिए समाज को उत्तरदायी मानते हुए बृहद आंकड़ों के आधार पर विभिन्न समूहों, धर्मों और क्षेत्रों आदि में आत्महत्या की विशिष्ट प्रवृत्तियों का उल्लेख किया| इसमें उन्होने कहा कि मनोविज्ञान से आत्महत्या की व्याख्या संभव नही क्योंकि मानव व्यवहार असल में समाज द्वारा गढ़ा होता है|

ईमाइल दुर्खीम ने आत्महत्या के सामाजिक कारणों का विधिवत वर्णन किया ताकि उसके आधार पर सरकारें आत्महत्या की दर को कम कर सकें| इस सिद्धान्त में आत्महत्या के चार प्रकार परार्थवादी, अहंवादी, एनोमिक और फटालिस्टिक की चर्चा की, जो सामाजिक या नैतिक विनियमन और सामाजिक एकीकरण की मात्रा के आधार पर परिगणित है|

इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता आत्महत्याएं समाज और राज्य दोनों को असफलता का आईना दिखाती हैं| अकाल मौत के कारणों में आत्महत्या ऐसी घटना है, जिसे सरकारें नियंत्रित कर सकती हैं, परंतु वैश्वीकरण के अंधानुकरण में फंसी नव-उदारीकृत अर्थव्यवस्था ने हमारे सामाजिक एवं पारिवारिक ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया है, जिसे संभालने में व्यक्ति और संस्थाएं दोनों असफल हैं|

आंकड़ों के मकड़जाल से इसे बाहर निकालकर देखना होगा| ऐसा नहीं है कि लोग आत्महत्या सिर्फ मानसिक कमजोरी या आर्थिक वजहों से कर रहे हैं| दरअसल आज का व्यक्ति अपेक्षाओं और सापेक्षिक अभावग्रस्तता की मन:स्थिति के बोझ तले दबकर अकेला हो गया है| इसे दुर्खीम की अतिशय वैयक्तिकता में देखा जा सकता है, जहां व्यक्ति समाज से कट जाता है| मार्क्स की भाषा में आर्थिक शोषण के दौरान होने वाले अलगाव(एलिनेशन) में भी इसका कारण ढूंढा जा सकता है|

अलगावीकृत और अतिशय वैयक्तिक हो चुका व्यक्ति अपना जीवन निरर्थक समझने लगता है| इन सिद्धांतों का आधार तब का है, जब औद्योगीकरण के कारण सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक संरचना में उथल-पुथल की शुरुवात हुई थी| नई सामाजिक समस्याएँ खड़ी हो रही थी, उन्हे नए ढंग से परिभाषित किया जा रहा था| आज परिवर्तन अपने चरम पर है|

उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों ने मानव जीवन और संस्थाओं का ऐसा स्वरूप बना दिया है, जिसे समझने की स्थिति आने से पहले ही नए परिवर्तन सामने खड़े हो जाते हैं| आज लोग खुद के वैश्विक मानव होने पर गर्व कर सकते हैं, लेकिन हकीकत में अकेले हैं|

परिवार, नातेदारी, मित्र-मंडली, विवाह, स्कूल आदि ताकतवर संस्थाएं तक आत्महत्या रोकने में असफल हो रही हैं| युवा, विद्यार्थी, नवविवाहित, किसान, फ़िल्म जगत और कारपोरेट संस्थानों में काम करते युवा समेत बच्चे तक में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ी है और दुखद है कि ये सामाजिक संवेदनाओं का हिस्सा भी नहीं बन पा रहीं| हमारा समाज आज भी आत्महत्या को व्यक्तिगत और मनोवृत्तिगत कमजोरी ही समझता है|

कभी भारतीय समाज में बड़ा मजबूत रहा नातेदारी और परिवार का ताना-बाना आज जीवन जीने के धैर्य और अदम्य साहस को कायम रखने में असफल हो रहा है, जबकि विपरीत परिस्थितियों से जूझने और संयम का हुनर भारतीयों के स्वभाव में है और इसी वजह से यहाँ की संस्कृति एवं सभ्यता सदियों से निरंतर भी बनी रही|

सन 1990 के बाद से इस देश में नई आर्थिक नीतियों और संचार के साये में हुए तीव्र और ताकतवर बदलाव ने पूरे भारतीय समाज की संस्थाओं और व्यवस्था को झकझोर दिया है, जिससे समायोजन कर पाना मुश्किल हो रहा है| किन्तु, सुखद है कि आत्महत्याओं पर समाज और मीडिया दोनों मुखर हो रहे हैं और यह सहमति बन रही है कि आत्महत्या संस्थागत कमजोरी का परिणाम है| इसे नियंत्रित किया सकता है|

सभ्य और विकसित समाज की कतार में खड़े होने के लिए आत्महत्या की वजहों का निराकरण करने की दिशा में योजना बनानी होगी, तभी नागरिक समाज के कर्तव्य का निर्वहन हो सकता है|

(लेखक दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं) 

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