शबाहत हुसैन विजेता
अयोध्या बार-बार खून में नहाती रही। मन्दिर और मस्जिद के नाम पर इंसान-इंसान के बीच नफरत की सौदागरी चलती रही। मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम पर सरकारें बनाई और गिराई जाती रहीं। मामला इस अदालत से उस अदालत के बीच झूलता रहा। एक मेज़ से दूसरी मेज़ पर फाइलें खिसकती रहीं। दलील और वकील के बीच इंसानियत कराहती रही। चंद लोगों ने इसे बिजनेस बना लिया। मज़हब के नाम पर चंद लोगों के बैंक बैलेंस बढ़ गए लेकिन नतीजे में कभी गोधरा हुआ तो कभी कई और घर झुलस गए।
हिन्दुस्तान की सुप्रीम अदालत ने अयोध्या का चैप्टर क्लोज़ कर दिया है। अयोध्या में मन्दिर बनेगा यह हुक्म तो अदालत ने दिया मगर ताला खोलने और मस्जिद ढहाने पर नाराजगी भी ज़ाहिर कर दी है। अयोध्या में मन्दिर बने, बनना भी चाहिए लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ ही यह बात भी तय हो गई कि लोग अदालती डंडे के बगैर कुछ सोचने समझने की ताकत नहीं रखते। अदालत ने तो हिन्दू- मुसलमान दोनों को यह मौक़ा दिया था कि आपसी बातचीत से मामला तय कर लो मगर लम्बी बैठकें कुछ भी हल नहीं कर पाईं।
सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया तो आम आदमी ने राहत की सांस ली कि सैकड़ों साल से चल रही जंग खत्म हुई लेकिन बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के वकील ज़फ़र याब जीलानी ने अयोध्या मामले में पुनर्विचार याचिका की बात कहकर यह साबित कर दिया कि कुछ लोगों को सुकून पसंद नहीं है।
जीलानी साहब तो बाबरी मस्जिद के वकील रहे हैं। उनसे पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने मस्जिद के हक़ में कोर्ट को कितनी दलीलें दीं। उनकी कौन-कौन सी दलील को अदालत ने माना। पुनर्विचार याचिका में वह कौन सी दलील रखेंगे जिससे मन्दिर बनाने का फ़ैसला बदला जा सके। बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद 27 साल के दौरान वह कितनी बार अयोध्या गए। इन 27 सालों में आपने मस्जिद के हक़ में कितने कागज़ जमा किये।
हकीकत यह है कि आपकी पहचान बाबरी मस्जिद से ही है। अपनी पहचान को बनाये रखने के लिए ही आपको इस मुद्दे को ज़िन्दा रखना है। बेहतर होगा कि आप अपने राम भवन में खुश रहिये और मुल्क के मुसलमानों को सुकून से जीने दीजिये।
अयोध्या का मसला तो एक अर्सा पहले ही हल हो गया होता, बशर्ते इसे सियासत से दूर रखा गया होता। राम का मन्दिर कब का खड़ा हो गया होता अगर राम के नाम पर हुकूमतें न खड़ी हो रही होतीं। अयोध्या खुद भले विकास की चकाचौंध से महरूम हो लेकिन देश भर के सैकड़ों छुटभैया नेताओं के कुर्तों पर कलफ लगवा दिए। न जाने कितनों को सड़क से उठाकर संसद में पहुंचा दिया।
वक़्त सबके साथ इंसाफ करता है। जिन राम के नाम पर हुकूमतें बनती और बिगड़ती रही हैं, उन्हें खुद इंसाफ के लिए सदियों इंतज़ार करना पड़ा। राम के नाम पर सियासत कर हुकूमतें हासिल करने वालों के साथ भी वक़्त ने वक़्त पर इंसाफ किया है।
राम मन्दिर आंदोलन के नायक लाल कृष्ण आडवाणी ने बीजेपी को दो सीट से उठाकर सत्ता की दहलीज़ तक पहुंचा दिया था लेकिन फिर खुद उप प्रधानमंत्री के रूप में मगन हो गए थे लेकिन नतीजा उन्हें भी मिल गया। पूर्ण बहुमत की सरकार में उन्हें कोई पूछता नहीं।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह ने वक़्त रहते ज़िम्मेदारी निभाई होती और बाबरी मस्जिद का फैसला अनियंत्रित कारसेवकों पर न छोड़ा होता तो शायद राजभवन से निकलते ही पूछताछ का शिकार न होना पड़ता। इज़्ज़तदार के लिए यही सज़ा बड़ी है कि गवर्नर जैसी पोज़ीशन छूटते ही वर्दी वाले सामने बिठाकर सवाल पूछें। वक़्त जफरयाब जीलानी का भी आयेगा। बाबरी मस्जिद के नाम पर अपना नाम और बैंक बैलेंस चमकाने के बदले उन्हें भी आडवाणी और कल्याण सिंह वाले रास्ते से गुजरना पड़ेगा।
राम मन्दिर के हक़ में फैसला ही गया है तो हिन्दू-मुसलमान दोनों को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि अयोध्या में विवाद का अंत हो गया है। अयोध्या में मन्दिर बने और मुसलमान दूसरी जगह मस्जिद बना लें। मस्जिद के लिए 5 एकड़ ज़मीन सरकार देगी। समझदार मुसलमान मस्जिद के लिए वह जगह चुनें जहां नमाज़ी हों। जहां मस्जिद आबाद रह सके।
मुसलमानों को समझना होगा कि सरकारों के सरोकार इस मुद्दे को हल करने के नहीं थे, वह रहे होते तो राम की अयोध्या इतने साल न कराहती। मुसलमान पुनर्विचार याचिकाएँ दायर करने वालों से होशियार रहें। यह याचिकाएँ नफरत की एक और चिंगारी सुलगाने के लिए हैं, ताकि उनकी दुकान बदस्तूर चलती रहे। हकीकत यही है कि कफन बेचने वाले का बिजनेस तभी चलता है जब किसी की मौत होती है।