केपी सिंह
1980 में भिण्ड में मैंने आलोक निशा के नाम से साप्ताहिक पत्र का संपादन किया था जो खूब लोकप्रिय हुआ था। इसके स्वाधीनता दिवस विशेषांक में सनसनीखेज कवर स्टोरी प्रकाशित की गई थी जिसका शीर्षक था उत्तरी मध्य प्रदेश के कांग्रेसजनों ने हाईकमान को सौंपा ज्ञापन-घरभेदी माधव राव सिंधिया से सावधान। यह अखबार पढ़ने के बाद भिण्ड के सर्किट हाउस में काफी परेशान हो गये थे और झल्लाहट में उनकी मुझसे कहासुनी भी हो गई थी।
यह प्रसंग इसलिए क्योकि इससे कांग्रेस और सिंधिया परिवार के बीच रिश्ते में जो समस्याएं शुरू से रहीं और जिसकी तार्किक परिणति आज ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी से बाहर चले जाने के रूप में हुई उसे समझा जा सके।
महान समाजवादी चिंतक जब नेहरू जी के खिलाफ सीधे चुनाव लड़ने 1962 में फूलपुर पहुंच गये तो उनसे लोगों ने एक सवाल किया कि जब आप विदेश से पढ़कर लौटे थे तो आपने नेहरू जी को सबसे बड़ा हीरो मान लिया था। आज उनसे इतनी नफरत क्यों हो गई कि सीधे उनके मुकाबले में उतर पड़े। लोहिया जी का जबाव था कि मतदाताओं में अभी आत्मविश्वास नही है कि वे अपने वोट से सत्ता बदल सकते हैं। नेहरू इसमें कांग्रेस के सबसे बड़े हथियार साबित हो रहे हैं। जिनके प्रति लोगों की आसक्ति सम्मोहन के हद तक है। जब तक मतदाताओं में आत्म विश्वास जागृत नही होगा तब तक वे स्वतंत्र विवेक का इस्तेमाल करने में सक्षम नही बन सकेगें। मतदाताओं में आत्म विश्वास जागृत कर उन्हें गुण-दोष के आधार पर मतदान का अभ्यस्त बनाना है जिसके लिए नेहरू के प्रति उनकी आसक्ति तोड़ना जरूरी है। नेहरू जी चट्टान हैं अगर उनके विरोध से उसमें एक दरार भी पैदा की जा सकी तो उनका उददेश्य सफल हो जायेगा और तभी लोकतंत्र का सुचारू संचालन इस देश में संभव हो पायेगा। लोहिया जी के शब्द कुछ भी रहे हों लेकिन भावार्थ यही था।
ग्वालियर रियासत में नेहरू जी जैसी कुछ स्थिति सिंधिया राज परिवार की थी। 1971 में जब बंगला देश युद्ध के कारण सारे देश में कांग्रेस ने विपक्षी दलों के पैर उखाड़ दिये थे मध्य भारत यानी ग्वालियर रियासत में इंदिरा जी ने व्यक्तिगत रूप से पूरी ताकत लगा दी फिर भी वे न तो राजमाता विजया राजे सिंधिया को हरा सकीं और न ही कांग्रेस पार्टी की इस अंचल में मट्टीपलीत बचा सकीं। जनसंघ ने देश भर में 11 सीटें जीत पाईं थीं और 11 और सीटें अकेले मध्य भारत में राज माता के कारण जीतीं। अटल बिहारी बाजपेयी तक इंदिरा गांधी की इस आंधी में ग्वालियर से उम्मीदवार होने के कारण जीत पाये थे।
इसीलिए इमरजेंसी में इंदिरा गांधी ने सिंधिया राजवंश के वैभव को नष्ट-भ्रष्ट करने में कोई कसर नही छोड़ी। विजया राजे सिंधिया तो इसके बावजूद आन पर डटी रहीं पर उनके इकलौते पुत्र माधव राव सिंधिया को इस तरह बर्बाद होना गंवारा नही हुआ। उन्होंने अपनी मां को छोड़कर अलग रास्ता पकड़ा और कांग्रेस में शरणागत हो गये। पर इमरजेंसी हटते ही कांग्रेस के दुर्दिन आ गये। 1977 के लोक सभा चुनाव में मध्य प्रदेश की 40 लोक सभा सीटों में से केवल एक पर कांग्रेस को सफलता मिली। साथ ही एक सीट पर कांग्रेस समर्थक निर्दलीय प्रत्याशी विजयी हुए और वे थे माधव राव सिंधिया। जिन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के कर्नल रहे जीएस ढिल्लन को हराया। सिंधिया राजवंश का जादू ग्वालियर रियासत में किस कदर लोगों के सिर चढ़कर बोलता रहा यह इसका एक नमूना है। आजाद हिंद फौज का नाम आते ही लोगों की रगें देश भक्ति की भावना से फड़कने लगती हैं पर यहां कांग्रेस समर्थित होते हुए भी लोगों ने इन भावनाओं को नजरअंदाज कर अतंतोगत्वा सिंधिया राज घराने की लाज रखी।
1980 के लोक सभा चुनाव तक सिंधिया विधिवत कांग्रेस में शामिल हो गये थे। इसके बाद हर जिले में कांग्रेस दो गुटों में बंट गई। माधव राव ग्वालियर संभाग के हर जिले में महल के लोगों को कांग्रेस पर थोपने में लग गये जो परंपरागत कांग्रेसी बर्दाश्त नही कर पाये। इसी बीच सरदार आंग्रे के नाम पर सिंधिया राजवंश में मां-बेटे के बीच छिड़ा शीत युद्ध इतना गंभीर रूप ले चुका था कि महल के अंदर भी बटवारा हो गया।
राजमाता और उनकी पुत्रियां एक तरफ हो गयी, माधव राव का परिवार दूसरी तरफ। इस वजह से माधव राव का कांग्रेस छोड़कर अपनी मां के साथ भारतीय जनता पार्टी में आने का रास्ता हमेशा के लिए बंद हो गया। वैसे ग्वालियर में राजीव गांधी को भी माधव राव के सामने दोयम स्थिति स्वीकार करनी पड़ी थी जब उन्होंने एक चुनावी जनसभा में माधव राव को माधव कह दिया और भीड़ बिगड़ गयी। राजीव गांधी ने किसी तरह महाराज से अपनी अतरंगता का जिक्र कर भीड़ के गुस्से से पिण्ड छुड़ाया। माधव राव सिंधिया राजीव गांधी के परिवार में किस सीमा तक घुलमिल गये थे इसके लिए उस प्रसंग का स्मरण कराना जरूरी है। जब एक भीगीं रात में कार दुर्घटना ग्रस्त हो जाने से माधव राव और सोनिया गांधी ट्रैप हो गये और अखबारों में इसको लेकर बड़ी गासिपबाजी हुई।
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बहरहाल उत्तरी मध्य प्रदेश में दरबारी कांग्रेसी और असल कांग्रेसी के विवाद का अंत सिंधिया युग में पीढि़या बदल जाने के बाद भी नही हुआ। दिग्विजय सिंह की अपनी समस्या रही। उनकी राघौगढ़ स्टेट सिंधिया साम्राज्य के आगे नाचीज थी। इसलिए सिधिंया दरबार के मूल्यांकन में उनकी हैसियत दलित से ज्यादा नही देखी जाती थी। जब वे प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गये तो राजसी ठसक की लड़ाई की आग में घी पड़ गया। न तो माधव राव सिंधिया को दिग्विजय सिंह बर्दाश्त थे और न ही ज्योतिरादित्य को। लेकिन ज्योतिरादित्य का महाराज का अभिमान दूसरे खांटी कांग्रेसियों को भी नागवार गुजर रहा था क्योंकि उम्र में वे बेहद कनिष्ठ हैं। इसलिए सब ने उनके रास्ते में पलीता बिछाया।
यह समस्या उनको भाजपा में भी आयेगी और शायद ज्योतिरादित्य को इसका गुमान भी है। उन्होंने कांग्रेस छोड़ने के बाद जो बयान दिया उसमें उनकी कसक साफ झलकती है। उनके बयान से स्पष्ट हो रहा है कि उनके लिए कांग्रेस छोड़ने का फैसला आसान नही रहा पर शायद उन्होंने मान लिया था कि इसके अलावा उनके पास कोई और विकल्प नहीं है।
कांग्रेसी अब 1857 की लड़ाई में सिंधिया राजवंश की गद्दारी के गड़े मुर्दे उखाड़ रहे हैं जिसका कोई औचित्य नही है। इस कलंक के बावजूद देश की आजादी के बाद भी लोगों ने उन्हें इतनी अभूतपूर्व मान्यता क्यों दी इस पर मंथन होना चाहिए। छात्र जीवन में मैंने अपने घर में ग्वालियर रियासत के कई दस्तावेज देखे जिससे वैलफेयर स्टेट के रूप में उनके कार्य संचालन का पता चलता है। जब पिण्डारियों का आतंक चरम सीमा पर पहुंच गया था तो अंतःपुर में राग विलास में डूबे रहने की बजाय महादजी सिंधिया ने खुद शिवपुरी में कैंप करके उनका सफाया किया था।
निश्चित रूप से सिंधिया घराना लोगों के प्रति अपने को जबाव देह समझकर हुकूमत चलाता था जिस पुण्य प्रताप का लाभ उन्हें आजादी के बाद भी मिलता रहा। जहां तक 1857 की क्रांति की कसौटी की बात है उस समय जिनकी रियासतें सुरक्षित रह गयीं थीं वे सभी तो कंपनी सरकार के अनुचर बन गये थे। उन्होंने आधुनिक स्वतंत्रता संग्राम मे भी ब्रिटिश हुकूमत के प्रति वफादारी जताने के लिए स्वाधीनता सेनानियों का क्रूर दमन किया था। अगर ऐसा है तो उनका भी सम्मान की बजाय तिरस्कार होना चाहिए पर क्या ऐसा होता है।
ग्वालियर चंबल संभाग में जिन समस्याओं से अभी तक कांग्रेस जूझ रही थी उनका सामना ज्योतिरादित्य के पार्टी में आने के बाद भाजपा को भी करना पड़ेगा। हर जिले में दरबारी भाजपाई और परंपरागत भाजपाइयों के बीच नस्ली युद्ध की स्थितियां देखने को मिलेगीं। साथ ही यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि भाजपा के संजीवनी तत्वों में खानदानवाद का पुट भी बहुत मजबूती से जुड़ चुका है। जिसकी अनदेखी पार्टी ज्योतिरादित्य के संदर्भ में भी नही कर सकती।
जो हालत नेहरू गांधी परिवार के विभीषण अवतार वरुण की भाजपा में है कहीं उसी गति को ज्योतिरादित्य भी प्राप्त न हो जायें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)
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(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Jubilee Post उत्तरदायी नहीं है।)