यशोदा श्रीवास्तव
2022 का विधानसभा चुनाव सत्तारूढ़ दल के लिए मुश्किलों भरा जान पड़ रहा है।सपा और बसपा के बीच ब्राम्हण वोटों को लेकर गजब की छीना झपटी देखी जा रही है। दोनों दलों के ब्राम्हण कार्ड खेलने से भाजपा के नुक्सान का कयास लगाया जा रहा है।
बसपा के ब्राम्हण उम्मीदवार भाजपा का कितना नुकशान पंहुचा पा रहे हैं यह कहना मुश्किल है फिर भी पूर्वांचल के कई एक सीटों पर नुकशान साफ दिख रहा है। मजे की बात यह है कि गोरखपुर के तिवारी कुनबे के बसपा छोड़ सपा ज्वाइन करने के फौरन बाद मायावती ने पूर्वांचल में ब्राम्हण उम्मीदवारों की तलाश तेज कर दी है।
यूपी के जिला सिद्धार्थनगर में ताबड़ तोड़ दो सीटों पर ब्राम्हण उम्मीदवार उतार भी दिया। मायावती जिस तेजी से ब्राम्हण उम्मीदवारों के चयन में दिचस्पी दिखा रही हैं उससे साफ है कि वे विधानसभा के सभी 403 सीटों में से कम से कम 80 सीट ब्राम्हणों को देने का मन बना चुकी हैं।
बसपा के सूत्र भी यही संकेत दे रहे हैं। इस तरह पूर्वांचल के करीब 127 सीटों में से करीब 40 सीटों पर बसपा के ब्राम्हण उम्मीदवार हो सकते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि पिछले चुनाव में ब्राम्हण खुले मन से भाजपा के साथ था लेकिन इस चुनाव में वह असमंजस में है।
ऐसे में यदि उसे दूसरे दल का मनपसंद ब्राम्हण उम्मीदवार मिलता है तो शायद वह भाजपा को वोट देने से बचेगा। सपा भी इस बार योगी सरकार के राह में रोड़ा दिख ही रही है और कांग्रेस भी योगी सरकार की राह रोकने की पुरजोर कोशिश में है।
इस तरह साफ देखने को मिल रहा है कि गैर भाजपा दलों का जोर ब्राम्हण वोटरों पर है। कानपुर के विकास दूबे की गाड़ी पलटने के बाद से यूपी का ब्राम्हण भाजपा से भले न सही लेकिन योगी सरकार से नाराज है।
ब्राम्हण यह मानने को तैयार नहीं है कि विकास दूबे को अपने वाहन से ला रही पुलिस की गाड़ी पलट गई और विकास पुलिस का रायफल छीनकर भागने की कोशिश में पुलिस के हाथ मारा गया। ब्राम्हण इसे योगी सरकार की ठोको नीति के तहत हत्या मान रहा है। फिर उसी परिवार की नई बहू खुशी दूबे को किस जुर्म के तहत जेल में डाला गया?
एक दो नहीं तमाम ब्राम्हणों का कहना है जिस देश में संसद पर हमला करने वाले कसाब जैसे आतंकी को न्यायकि प्रक्रिया के तहत फांसी दी जाती है वहीं विकास को पुलिस इनकाउंटर में मारती है। ब्राम्हण और न नाराज हो जाय इसीलिए केंद्रिय गृहराज्य मंत्री अजय मिश्रा को मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने की हिम्मत उस वक्त भी नहीं होती है जब वह उनके बेटे के खिलाफ एसआईटी की जांच रिर्पोट पर पत्रकारों के सवाल करने पर सरेआम उन्हें अपमानित करते हैं।
यूपी के कोने कोने में ,फर्क साफ है, स्लोगन के साथ बीजेपी के प्रचार वाले भारी भरकम होर्डिंग्स लगने शुरू हो गए है जिसमें अयोध्या में बन रहे राम मंदिर को खास तौर फोकस किया गया है। शीघ्र ही बनारस के बाबा श्विनाथ कारीडोर के भी विज्ञापन दिखने लगेंगे।
अभी इस पर बहस करने की जरूरत नहीं है कि भाजपा के मंदिर मंदिर के विज्ञापन से उसे कितना फायदा होने वाला है? बात बसपा और सपा के ब्राम्हण वोट हथियाने की उसकी कोशिशों पर है। हरिशंकर तिवारी के दोनों बेटों और भांजे के सपा में शामिल हो जाने से निश्चित ही सपा को मजबूती मिली है।
सिद्धार्थनगर में बसपा ने जिन नामों की घोषणा की है उसे लेकर शोहरतगढ़ विधानसभा क्षेत्र में शायद नहीं लेकिन डुमरियागंज और इटवा में भूचााल जैसा आ गया है। क्योंकि इन दोनों विधानसभा क्षेत्रों से बसपा उम्मीदवारों के बदले जाने की संभावना बिलकुल नहीं थी।
2017 के चुनाव में डुमरियरगंज से सैयदा खातून बसपा उम्मीदवार थीं और वे भाजपा के राधवेंद्र सिंह से महज 171 वोटों से हारी थीं जबकि इटवा में खुर्शेद अहमद भाजपा से कड़े मुकाबले में दूसरे नंबर पर थे।
यहां विधानसभा के पूर्व स्पीकर माता प्रसाद पाडेय तीसरे नंबर पर आ गए थे। शोहरतगढ़ से भी बसपा से चुनाव लड़े जमील सिद्दीकी भी दूसरे नंबर पर थे। जमील अब सपा में हैं। बसपा ने इन सीटों पर अपने उम्मीदवार बदल दिए हैं।
डुमरियागंज से सैयदा की जगह अशोक तिवारी को,इटवा से हरिशंकर सिंह और शोहरतगढ़ से राधेरमण त्रिपाठी को टिकट दिया है। इन तीनों उम्मीदवारों की खास बात यह है कि ये सबके सब भाजपा परिवार से हैं। इटवा से बसपा ने जिस हरिशंकर सिंह को टिकट दिया है वे भाजपा से चुनाव भी लड़ चुके हैं।
डुमरियागंज से जिस अशोक तिवारी को बसपा ने उम्मीदवार बनाया है उनके भाई जिप्पी तिवारी इसी क्षेत्र से दो बार भाजपा विधायक रह चुके हैं और शोहरतगढ़ से बसपा उम्मीदवार घोषित किए गए राधेरमण त्रिपाठी हाल तक भाजपा में ही रहे।
भाजपा से जुड़े ब्राम्हणों व अन्य को टिकट देने का खामियाजा भी बसपा को भुगतना पड़ सकता है। उसे मुस्लिम वोटों से महरूम होना पड़ेगा, ऐसा राजनीतिक टिप्पणीकारों का कहना है। इधर बसपा की पहचान बीजेपी की बी टीम के रूप में हुई है, इस वजह से मुसलमान पहले से ही उससे खफा है। ऐसे में कहा जा रहा है कि बसपा जहां ब्राम्हण उम्मीदवार उतार रही है वहां उसे ब्राम्हण और अपने परेपरागत दलित वोटों पर ही भरोसा करना होगा।
बसपा के उम्मीदवारों के चयन में एक बार फिर दिखा कि वह इस बात पर बिलकुल ही गौर नहीं करती कि एक जिले में एक ही जाति के दो या इससे अधिक उम्मीदवारों को टिकट देने से दूसरी जातियों में गलत मैसेज जाएगा।
पिछले चुनाव में पार्टी ने इसी जिले में पांच में से तीन उम्मीदवार मुस्लिम उतारकर सभी को चैंका दिया था। हालाकि जीत एक भी नहीं पाये। बसपा ने इस बार तीन में से दो ब्राम्हणों को टिकट देकर फिर एक बार राजनीतिक समीक्षकों को चैंकाया है। जिले में पांच में एक सीट सदर की सुरक्षित है यहां और बांसी में बसपा ने उम्मीदवारों की घोषणा नहीं की है।
2012 में बांसी से हरिशंकर तिवारी के छोटे पुत्र विनय शंकर तिवारी बसपा के उम्मीदवार थे और बेमन से चुनाव लड़ने पर भी उन्हें करीब 35 हजार वोट हासिल हुए थे। बीजेपी से विजयी उम्मीदवार जयप्रताप सिंह से आठ हजार वोट कम। जानकारों का कहना है यदि बसपा ने 2012 के इन वोटों पर गौर कर प्रत्याशी का चयन की तो मुमकिन है कि यहां भी कोई ब्राम्हण ही बसपा उम्मीदवार हो।