ओम प्रकाश सिंह
अयोध्या। एक समय था कि बच्चों को सुलाने के लिए मांएं लोरियां सुनाती थीं। किताबें वयस्कों के सिरहाने होती थीं। चंपक, चाचा चौधरी, नंदन जैसी पुस्तकों को पढ़ने का मोह बुजुर्ग भी नहीं छोड़ पाते थे। बदलते दौर में पुस्तकें भले ही डिजिटल, आडियो हो गईं हों लेकिन आज भी कुछ लोगों के लिए पुस्तकें ओढ़ना बिछौना हैं।
यूं तो साहित्य की दुनिया एक से बढ़कर एक सितारों से सजी है लेकिन विश्व पुस्तक दिवस लेखक शेक्सपियर को समर्पित है। 23 अप्रैल 1564 को शेक्सपियर ने दुनिया को अलविदा कहा था, जिनकी कृतियों का विश्व की समस्त भाषाओं में अनुवाद हुआ।
शेक्सपियर ने अपने जीवन काल में करीब 35 नाटक और 200 से अधिक कविताएं लिखीं। साहित्य-जगत में शेक्सपीयर को जो स्थान प्राप्त है उसी को देखते हुए यूनेस्को ने 1995 से और भारत सरकार ने 2001 से इस दिन को विश्व पुस्तक दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी।
डिजिटल क्रांति ने किताबी दुनिया को काफी प्रभावित किया है। कार्टून, कामिक्स, अमरकथाओं की बाल पुस्तकें टीवी व मोबाइल में समां गईं। पढ़ते पढ़ते सोने की कला ही लुप्तप्राय हो गई है।
तीन दशक पहले तक हर शहर में पठनीय पुस्तकों की दुकानों का जलवा अफरोज रहता था। प्रतियोगी पुस्तकों को समय पर उपलब्ध कराने की चुनौती बुक सेलर के लिए हमेशा रहती थी। किताबों का कलेक्शन पढ़ालिखा घर होने की चुगली करता था।
गांधी के राम पुस्तक के लेखक व दार्शनिक अरुण प्रकाश मानते हैं कि अध्ययन-लेखन और स्याही-कागज में अद्वितीय परस्परता है। उसे एकदम से अलग नहीं किया जा सकता। पांच उंगलियों की कागज पर रगड़ से लेखन जीवंत होता है, वहीं पुस्तक हाथ में होना यानि गंभीर और एकाग्र होना। लिखने पढ़ने के अनेक माध्यम आये हैं, तो उसने सूचना संसार को नया आयाम दिया है लेकिन अध्ययन-लेखन की मूल प्रविधि नहीं बदली है। अगली सदी तक दूसरा कोई माध्यम पुस्तकों का स्थान नहीं ले सकेगा।
व्यवसायिक होती दुनिया में मंहगाई, समयाभाव ने पढ़ने में अरूचि पैदा कर दिया है। बच्चे मोबाइल, टीवी में व्यस्त हैं तो तीस साल तक का नौजवान कैरियर बनाने के फेर में।
इसके बावजूद बहुत से लोगों के लिए किताबें ओढ़ना बिछौना जैसी ही हैं। किताबों के शौकीन रामनगरी के यूथ आइकन अनुराग वैश्य कहते हैं कि उनके पास अमरकथाओं सहित एक हजार पुस्तकों का कलेक्शन था। मांगने वालों ने कंगाल कर दिया।
मुगल काल में फैजाबाद शहर का ऐतिहासिक चौक बेगमों के लिए खास बाजार हुआ करता था। उसके बाद इसकी पहचान पुस्तकों की उपलब्धता के तौर पर हो गई।
बदलते दौर में आधुनिकता के राहूकेतु ने अधिकांश दुकानों को ग्रसित कर लिया लेकिन एक दुकान प्रेम बुक डिपो आज भी किताबों का डंका पीट रही है।आजादी के पूर्व से यह दुकान प्रतियोगी बच्चों की मन पसंद है।
पेशेवर फोटोग्राफर विमल श्रीमाली अपने पूर्वजों की दुकान को आजकल संभाल रहे हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं के बच्चे सफलता के बाद आपको धन्यवाद बोलने आते हैं पर जवाब सुनकर यह लगा कि मानवता जीवित है।
उन्होंने कहा कि अभी पुलिस परीक्षा का परिणाम आया था तो बच्चों ने इतनी मिठाई दी कि पूरे मोहल्ले में बांटने के बावजूद भी 20- 25 किलो लड्डू बच गया। किताबों से प्रेम पर कहते हैं कि ‘तू मुझे अपना बना कर देख मैं तुझे सबका न बना दूं तो कहना’।