शबाहत हुसैन विजेता
पेड़ कम होने से पर्यावरण का संतुलन बिगड़ चुका है। सड़कें चौड़ी करने और नये मकान बनाने के नाम पर अब भी रोजाना पेड़ों को काटने का सिलसिला जारी है। नये पेड़ लगाने का काम भी शुरू हुआ है लेकिन कटने वाले पेड़ों के मुकाबले लगाये जाने वाले पेड़ों की तादाद कम है।
पेड़ बादलों को अपनी तरफ खींचते हैं। जहां हरियाली होती है वहां बादल भी बरसते हैं। समझ बढ़ने के साथ- साथ इंसान ने इस बात को बखूबी समझ लिया है। 45 साल पहले संजय गांधी ने यह नारा दिया था कि बच्चे कम हों पेड़ हजार। उस समय दो बच्चों पर पांच पेड़ लगाने की बात कही गयी थी। वक्त के साथ- साथ यह नारा लोग भूलते चले गये जबकि इस दिशा में काम करने की शिद्दत बढ़ती जानी चाहिए थी।
पर्यावरण को बर्बाद करने में एक तरफ पेड़ों की कटान एक वजह है तो दूसरी तरफ बढ़ती गाड़ियों और फैक्ट्रियों से पैदा होने वाला प्रदूषण है। बीते 30 सालों में जिस रफ्तार में सड़कों पर गाड़ियां बढ़ी हैं पहले कभी नहीं बढ़ी थीं। एक दौर था जब सड़क पर मोटर साइकिल से चलना बड़ा आदमी होने की निशानी थी तो अब एक से बढ़कर एक कीमती कार सड़क से गुजर जाती है और किसी का ध्यान भी नहीं जाता।
जरूरतें इंसान को साइकिल से मोटर साइकिल और मोटर साइकिल से कार पर चढ़ाती हैं लेकिन सड़कों के हालात और तेजी से बढ़ते प्रदूषण को देखने के बाद क्या यह समीक्षा नहीं होनी चाहिये कि कौन सी गाड़ी सड़क पर रहे और कौन सी गाड़ी नहीं रहे। सकरी सड़क पर छह दुपहिया वाहनों की जगह घेरकर चल रही कार में अगर सिर्फ एक व्यक्ति सवार हो तो वह यह कहकर बच नहीं सकता कि मैंने महंगी कार खरीदी है। मैं अपनी जेब से इसमें तेल डलवाता हूं, मैं इसी में चलूंगा।
अकेला व्यक्ति दुपहिया पर और दो से ज्यादा लोग कार में निकलना शुरू करें तो सड़कों के हालात ठीक किये जा सकते हैं लेकिन यह अजीब बात है कि दुपहिया चलाने वालों की सुरक्षा के लिये जरूरी हैल्मेट को पहनाने के लिये सड़क पर पुलिस को कसरत करना पड़ रही है।
पर्यावरण को ठीक करने की कवायद में नदियों की सफाई पर हर साल करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा दिये जाते हैं लेकिन शहर के नालों में जमा सिल्ट को निकालने के लिये नगर निगम की नकेल नहीं कसी जाती। नदियों में गिर रही नालों की गन्दगी और फैक्ट्रियों का कचरा रोकने की फिक्र कहीं नजर नहीं आती। सभी नालों को साफ कर दिया जाये और नदियों में गिरने से पहले नालों के पानी का शोधन कर दिया जाये तो नदियां तो अपने आप साफ हो जाएं। नाले साफ रहें तो बरसात में जलभराव की समस्या खत्म हो जाये।
प्रधानमंत्री स्वच्छ भारत मिशन की बात कर रहे हैं। अरबों रुपये इस मिशन पर खर्च हो रहे हैं लेकिन क्या जिम्मेदारों को पता है कि घरों से निकलने वाला कूड़ा पहले से पटे पड़े नालों में ही फेंका जा रहा है। यह कूड़ा आम आदमी भी फेंक रहा है और नगर निगम के सफाईकर्मी भी। ऐसे में स्वच्छ भारत मिशन की कल्पना कैसे पूरी हो पाएगी, इस पर सोचने की जरूरत है।
मंत्री और सांसद सड़कों से लेकर संसद तक झाड़ू लगा रहे हैं लेकिन आम लोगों में वह जागरूकता पैदा नहीं कर पा रहे हैं कि आम आदमी अपना घर और अपने घर के बाहरी हिस्से को साफ कर ले। आम आदमी जागरूक हो जाये तो नगर निगम का कर्मचारी नालों में कूड़ा फेंकने की हिम्मत नहीं कर पाएगा। यह जागरूकता इतनी बीमारियां फैलने के बाद भी नहीं पैदा की जा सकी तो आज जिस तरह से लोगों को हैल्मेट पहनाने के लिये पुलिस जूझ रही है उसी तरह से गंदगी फैला रहे लोगों के खिलाफ भी एक्शन लेने के लिये उसी को लगाना पड़ेगा। पुलिस इस काम में लगेगी तो कानून व्यवस्था को दुरुस्त रखने में दिक्कत आयेगी।
काम मुश्किल नहीं है कि हर व्यक्ति एक पेड़ लगा ले और उस पेड़ की देखभाल कर ले। हर कोई अपना घर और घर के बाहर की सफाई पर ध्यान दे ले। नाले में कूड़ा न तो खुद फेंके न किसी को फेंकने दे। सुरक्षा का मुद्दा न हो तो अकेला आदमी कार लेकर सड़क पर न निकले।
सरकार के लिये यह मुश्किल नहीं है कि नालों की सफाई के लिये नगर निगम और नगर पालिकाओं की मुश्कें कस दे। एक एजेंसी को नाला सफाई अभियान पर नजर रखने को लगा दे।
पर्यावरण में सुधार होगा तो खेतों को जरूरत भर पानी मिल जाएगा। नाले साफ हो जाएंगे तो नदियां भी साफ हो जाएंगी। घर और सड़कें साफ हो गईं तो अस्पताल में मरीज घट जाएंगे। सड़कों पर भीड़ कम हुई तो सफर में लगने वाला वक्त बचने लगेगा। दुर्घटनाओं में कमी हो जाएगी। यह काम हम खुद कर सकते हैं बगैर सरकारी मदद और खर्च के। यह काम शुरू होने भर की देर है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )