शबाहत हुसैन विजेता
यह सोशल मीडिया का दौर है. संचार क्रांति का सबसे ज्यादा उपयोग और दुरुपयोग सोशल मीडिया के ज़रिये ही हो रहा है. एक तरफ यह तेज़ खबरों का माध्यम बना है तो दूसरी तरफ नफरत को बढ़ाने का भी सबसे बड़ा माध्यम बना है. जब सोशल मीडिया नहीं था. जब न्यूज़ चैनल नहीं थे. तब खबरों के लिए सुबह के अखबार सबसे बड़ी ज़रूरत थे. खबरें देर में पहुँचती थीं मगर अमन बना रहता था. सुकून बना रहता था. नफरत का दरवाज़ा मज़बूत ताले से बंद था.
अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों के पास पैसा बहुत कम था मगर इज्जत बहुत ज्यादा थी. शासन और प्रशासन दोनों ही पत्रकारों की इज्जत किया करते थे. पत्रकार भी खबरों से ही अपना रिश्ता रखते थे. पत्रकारों का अपना स्टैंड होता था. उनके पास रीढ़ होती थी. जिस पत्रकार की सम्पादक के पास शिकायत जाती थी उस पत्रकार की इज्ज़त और भी बढ़ जाती थी.
वक्त बदला तो हालात बदल गए. शासन और प्रशासन दोनों जगह ऐसे लोग काबिज़ हो गए जिन्हें सवाल पूछने वालों से नफरत है. जो सवाल पूछता है उसे बेइज्जत करने को व्यवस्था अपना बड़प्पन समझती है.
2019 का लोकसभा चुनाव था. लखनऊ में बीजेपी मुख्यालय पर केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह की प्रेस कांफ्रेंस थी. एक पत्रकार ने खड़े होकर अमित शाह से सवाल पूछा. सवाल सुनते ही अमित शाह भड़क गए. बोले वहीं बैठ जाओ. तुम सवाल पूछोगे, मुझसे… तुम्हारी परतें खोलना शुरू करुंगा तो भागते नज़र आओगे. सवाल पूछने वाला बैठ गया. उसके समर्थन में उसका कोई भी साथी खड़ा नहीं हुआ.
कल केन्द्रीय गृहराज्यमंत्री अजय मिश्रा टेनी से एक पत्रकार ने सवाल पूछ लिया. टेनी आपे से बाहर हो गए. गाली-गलौज पर उतर आये. मारने को लपके. तमीज सिखाने लगे. टेनी से सवाल पूछने वाले पत्रकार के साथ भी दर्जनों पत्रकार थे. कोई कुछ नहीं बोला. सब मुंह लटकाकर लौट आये.
2019 में अमित शाह ने कहा था ना कि तुम्हारी परतें खोलना शुरू करुंगा तो… बस वही याद आ गया. निश्चित रूप से कुछ परतें तो होंगी वर्ना किसी की यूं ही हैसियत नहीं हो जाती है. विरोध तो वही करेगा जिसने अपने मिशन को प्रोफेशन नहीं बनाया होगा. जब तक मिशन होता है तब तक डर नहीं लगता है लेकिन प्रोफेशन में तो नफा-नुक्सान देखना ही पड़ता है.
जब मैं छोटी क्लास में पढ़ता था तो मेरे ज़ेहन में अक्सर देश की एक ऐसी कैबिनेट की तस्वीर उभरती थी जिसमें शिक्षामंत्री कोई रिटायर्ड वाइस चांसलर होता था. स्वास्थ्य मंत्री कोई बहुत काबिल डॉक्टर होता था. पीडब्ल्यूडी मिनिस्टर का चार्ज किसी बहुत काबिल इंजीनियर को दिया जाना था. गृहमंत्री कौन बनाया जाए इसे लेकर मन में हमेशा द्वंद्व छिड़ा रहता था कि गृहमंत्री का चार्ज किसी रिटायर्ड पुलिस अफसर को मिले या फिर किसी बड़े माफिया को. इस पोस्ट पर नियुक्ति को लेकर मन में छिड़े द्वंद्व में हमेशा पुलिस अफसर से माफिया जीत जाता था. मन होता था कि कोई माफिया गृहमंत्री बन जाए तो क़ानून व्यवस्था पल भर में ठीक हो सकती है. जहाँ के हालात ठीक कर पाना मुश्किल होगा वहां पर असलहों से लैस होकर खुद गृहमंत्री पहुँच जायेगा और सब कुछ ठीक कर देगा.
वह बचपन की सोच थी. बचपने जैसी थी लेकिन हालात आज उसी मुहाने पर ले आये जहाँ असलहों को खिलौना समझने वाले को गृहमंत्री बना दिया गया. पुलिस को जिन हाथों में हथकड़ी लगानी चाहिए वह उन्हें सैल्यूट करने को मजबूर है. बचपन की सोच में यह बात नहीं आयी थी कि गृहमंत्री का बेटा जब गुंडा होगा तब गृहमंत्री क्या करेगा? अपने गुंडे बेटे के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कैसे करवा देगा? अपने गुंडे बेटे को जेल कैसे भिजवा देगा?
बेटे की गुंडागर्दी दुनिया देख रही है मगर बाप गृहमंत्री है तो बाप-बेटे दोनों की ही आँखों की शर्म मर चुकी है. किसानों को रौंदती हुई गाड़ी से उतरकर गृह राज्यमंत्री का बेटा भाग रहा है मगर गृहराज्यमंत्री की आँखों पर पट्टी बंधी है. पुलिस और एटीएस की जांच में वह दोषी पाया गया है. तमाम चश्मदीद हैं. तमाम गवाहियाँ हैं. एफआईआर की धाराएं बदल गई हैं. बेटा हत्यारा साबित हो गया है मगर गृहराज्यमंत्री यही साबित करने में जुटा है कि वही उस हत्यारे का बाप है. जिस तरह से वह पत्रकारों पर झपटता है. जिस तरह से गालियां बकता है उससे कहीं से नहीं लगता कि इस आदमी के हाथ में क़ानून व्यवस्था की ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिए.
लोकसभा में हंगामा हो रहा है. सरकार नहीं चाहती कि चर्चा हो. गृहराज्यमंत्री की बेहूदगी सोशल मीडिया पर वायरल है मगर सरकार की आँख पर पट्टी बंधी है. यह चुनावी साल है. किसानों को इसी वजह से घर भेजा गया कि चुनाव ठीक से गुज़र जाए मगर किसानों के हत्यारे को सज़ा देने से सरकार बच रही है. हत्यारे के पिता के पास पूरे देश की पुलिस का चार्ज है.
पत्रकारों संगठनों के पास भी रीढ़ होती तो किसी पत्रकार की ऐसे बेइज्जती नहीं होती. ढेर सारे पत्रकार संगठन खामोश बैठे हैं. जिस चैनल के पत्रकार से बदतमीजी हुई वह भी वेट एंड वाच की पोजीशन में है. संगठन चुप हैं क्योंकि यह कोई पहला मामला थोड़े ही है. ऐसा तो होता रहता है. मगर सरकार को समझना होगा कि संगम लाल गुप्ता भी सांसद थे. इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति भी तो हो सकती है. संगम लाल गुप्ता को पीटने वालों पर कार्रवाई के नाम पर बाक़ी सांसद भी चुप थे. मतलब हालात एक जैसे हैं. जिस तरह से पत्रकारों के मामले में कोई नहीं बोलता है वैसे ही सांसदों के मामले में भी कोई नहीं बोलता है.
सूबे की सरकार परीक्षा देने जा रही है. देश की सरकार भी परीक्षा के लिए मैदान में आयेगी ही. 22 में सूबे की परीक्षा है तो 24 में केन्द्र की भी परीक्षा है. क्या 24 में अपने मतदाताओं को भी ऐसे ही धमका लेंगे टेनी बाबू. जनता वोट देने जायेगी तो थार के पहियों में लगे खून के निशान याद रखेगी. लोगों पर गाड़ी दौड़ाने वाला जनप्रतिनिधि कभी नहीं हो सकता. वो सिर्फ गुंडा होता है. यह बात आपको जितनी जल्दी समझ आ जाए बेहतर होगा.
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