- कोरोना महामारी और शेयर बाजार में उतार-चढ़ाव की वजह से जतायी जा रही है आशंका
जुबिली न्यूज डेस्क
कुछ दिनों पहले मोदी सरकार के थिंक टैंक नीति आयोग ने सरकारी बैंकों के निजीकरण को लेकर एक प्रस्ताव पेश किया था, जिस पर सरकार की ओर से विचार किया जा रहा है। फिलहाल विशेषज्ञों का मानना है कि मौजूदा वित्त वर्ष के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण की दिशा में कोई कदम उठाने की संभावना बहुत कम है।
विशेषज्ञ कोरोना वायरस संकट के चलते शेयर बाजारों में उतार-चढ़ाव और संपत्तियों के कम मूल्यांकन के साथ ही बैंकों की फंसी संपत्ति में वृद्धि को देखते हुए यह आशंका जताई जा रही है।
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फिलहाल सार्वजनिक क्षेत्र के चार बैंक आरबीआई की त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (पीसीए) रूपरेखा के अंतर्गत हैं। इसके कारण उन पर कर्ज देने, प्रबंधन क्षतिपूर्ति और निदेशकों के शुल्क समेत कई प्रकार की पाबंदियां हैं। इन बैंकों में इंडियन ओवरसीज बैंक (आईओबी), सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, यूको बैंक और यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया शामिल हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे में इन बैंकों को बेचने का कोई मतलब नहीं है। मौजूदा हालात में निजी क्षेत्र से कोई भी इन्हें लेने को इच्छुक नहीं होगा। सरकार रणनीतिक क्षेत्र की इन इकाइयों को संकट के समय जल्दबाजी में नहीं बेचना चाहेगी।
दरअसल केंद्र सरकार का मानना है कि लंबे समय तक टैक्सपेयर्स की रकम को बैंकों को बेलआउट पैकेज देने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। इस प्रक्रिया की शुरुआत पंजाब एंड सिंध बैंक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र और इंडियन ओवरसीज बैंक के निजीकरण से की जा सकती है। बीते कुछ सालों में कई सरकारी बैंकों का आपस में विलय हुआ था, जिनमें ये तीनों ही बैंक शामिल नहीं थे।
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केंद्र सरकार को नीति आयोग ने सलाह दी है कि बैंकिंग सेक्टर में लंबे समय के लिए निजी निवेश को मंजूरी दी जानी चाहिए। इतना ही नहीं आयोग ने देश के बड़े औद्योगिक घरानों को भी बैंकिंग सेक्टर में एंट्री करने की अनुमति देने का सुझाव दिया है। हालांकि ऐसे कारोबारी घरानों को लेकर यह प्रावधान होगा कि वे संबंधित बैंक से अपने समूह की कंपनियों को कर्ज नहीं देंगे।
पिछले हफ्ते मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमणियम ने बैंकों के निजीकरण का संकेत दिया था। निजीकरण की नीति के बारे में उन्होंने कहा था कि बैंक रणनीतिक क्षेत्र का हिस्सा होंगे और सरकार रणनीतिक और गैर-रणनीतिक क्षेत्रों को चिन्हित करने की दिशा में काम कर रही है।
विशेषज्ञों का कहना है कि किसी बैंक की पूरी बिक्री तो छोडि़ए किसी सरकारी बैंक में शायद ही हिस्सेदारी बिक्री के लिए कदम उठाया जाएगा। इसका कारण इस समय इनका सही मूल्यांकन होना मुश्किल है। उसने यह भी कहा कि अनिवार्य नियामकीय जरूरतों को पूरा करने के लिये लगातार पूंजी डाले जाने से सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ बैंकों में सरकार की हिस्सेदारी 75 प्रतिशत से ऊपर निकल गई है।