शबाहत हुसैन विजेता
आज 14 फरवरी है. संत वैलेंटाइन का जन्मदिन. वही संत वैलेंटाइन जिसे प्यार करने के जुर्म में मौत की सज़ा दी गई थी. अपने मुल्क से प्यार करने वालों को भी मौत की सज़ा के लिए 14 फरवरी का दिन ही मुकर्रर किया गया था.
14 फरवरी 2019. सोचकर भी रूह काँप जाती है. मुल्क की हिफाजत के लिए सफ़र पर निकले जवानों की तरफ बढ़ता 300 किलो आरडीएक्स. ज़ोरदार धमाका और हवा में उछलते 40 जवानों के जिस्म.
पुलवामा में हुआ वह हमला 14 फरवरी को ही क्यों हुआ था यह सवाल अक्सर ज़ेहन को बहुत बुरी तरह से मथता है. साल में सिर्फ यही एक दिन तो था जिसे पूरी दुनिया ने प्यार के लिए तय किया था.
14 फरवरी प्यार का दिन. प्यार के इकरार का दिन. नफरतों को बिसरा देने का दिन. दूरियां मिटाकर करीब आने का दिन. लेकिन यही वह दिन था जब 40 जवानों के जिस्म खून के लोथड़ों में बदल गए थे. पोस्टमार्टम के बाद उनकी लाशें तिरंगे से लिपटे ताबूतों में लाइन से रखी थीं.
जिन घरों के चिराग पुलवामा में बुझे थे वह उन अंधेरों को प्यार की रौशनी में आखिर कैसे और कब बदल पायेंगे, यह वह अनसुलझा सवाल है जिसे आने वाली नस्लें भी हल करने की कोशिश ही करती रह जायेंगी मगर यह सवाल कभी हल होने वाला नहीं है.
मैथेमैटिक्स के हर सवाल हल हो जाते हैं मगर ज़िन्दगी के सफर में जो सवाल टकराते हैं वह हल नहीं देते बल्कि मुंह चिढ़ाते हैं. किताबी पढ़ाई की काबलियत धरी रह जाती है. बीस-पच्चीस साल पहले जब यह सुनता था कि कब्र कफ़न बाँट लिए, दाह-दफ़न बाँट लिए, मौत का पैगाम अगर बांटो तो जानें. तो लगता था कि शायर ने वाकई क्या लाजवाब बात लिखी. मगर अब लगता है कि यह शेर भी मुंह चिढ़ाने लगता है.
यूपी के दादरी में मरने वाले अख़लाक़ और दिल्ली में मरने वाले रिंकू की मौत का जब तुलनात्मक अध्ययन होने लगता है तब दिमाग की नसें फटने लगती हैं. खुद पर शर्म आती है. दोनों मौतों को जब मज़हब अपना शिकार बनाने लगता है तब लगता है कि कोई भी क़ानून इन्साफ की गारंटी नहीं दे सकता.
अख़लाक़ किस मज़हब का था, अख़लाक़ का कत्ल क्यों हुआ था. रिंकू किस मज़हब का था. रिंकू क्यों मारा गया. इन सवालों को दरकिनार करते हुए अगर दादरी के उस घर में घुसा जाए जिसमें फ्रिज में रखे गोश्त की नस्ल तय करने का काम चल रहा था और रिंकू के घर में घुसकर उसकी पीठ में घुसे खंजर को देखा जाए जिसे कोई नरपिशाच भोंककर आराम से निकल गया था.
अख़लाक़ मुसलमान था और रिंकू हिन्दू था मगर उन दोनों के घरवालों की आँखों से निकलने वाले आंसुओं में कौन सा फर्क था वही नहीं तलाशा जा सका तो फिर सारी बातें बेमानी हैं. सारे सवाल फर्जी हैं.
पुलवामा अटैक को दो साल गुज़र गए. दिल्ली बार्डर पर किसानों के संघर्ष को दो महीने से ज्यादा गुजर गए. नारे तो हम रोजाना जय जवान और जय किसान के लगाते हैं मगर इन नारों में कितना खोखलापन है कभी इस पर बात ही नहीं होती.
दरअसल ज़िन्दगी जीने का जो सलीका है हम उसे भूलते जा रहे हैं. पहले मदर्स डे नहीं मनता था मगर घरों में माँ की ही हुकूमत चलती थी. माँ को बुढ़ापे में वृद्धाश्रम नहीं जाना पड़ता था.
पहले टीचर्स डे नहीं मनता था मगर टीचर्स के इतने बुरे दिन कभी नहीं थे. मारपीट से लेकर कत्ल तक के रास्ते से टीचर्स को नहीं गुजरना पड़ता था. पहले वैलेंटाइन डे नहीं मनता था मगर प्यार की डोर कभी कमज़ोर नहीं पड़ती थी.
पहले डाटर्स डे नहीं मनता था मगर गाँव की लड़की सबकी लड़की होती थी. तब रेप नहीं होते थे. तब लड़कियों को सुरक्षा की दरकार नहीं होती थी. तब लड़कियों के लिए अलग थाने और कानूनों की ज़रूरत नहीं होती थी.
दो साल पहले पुलवामा पर हमला हुआ था तब लगा था कि हमलावर बक्शा नहीं जाएगा. तब लगा था कि हमारे जवानों की मौतें ज़ाया नहीं जायेंगी. तब यह नहीं लगा था कि जवानों का खून सियासत का मुद्दा बन जाएगा. तब नहीं लगा था कि मुल्क की सीमाओं के नाम पर टेलिविज़न स्क्रीन पर मुर्गे लड़ाए जायेंगे.
हम दुनिया को और कितना बांटेंगे. मज़हब के नाम पर अभी कितने दिन और नंगे नाच किये जायेंगे. मंदिर-मस्जिद के नाम पर कितने दिन और खून बहेगा. कितने दिन और अदालतों में सौदागरी का खेल खेला जाएगा.
पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत किसी को महसूस नहीं होती क्योंकि पीछे मुड़ने का मतलब बैकवर्ड हो जाना है. पीछे मुड़कर देखना आक्वर्ड भी लगता है मगर मन होता है कि आक्वर्ड लगे तब भी पीछे मुड़कर देखो. बैकवर्ड कहे जाओ तब भी पीछे की तरफ लौट जाओ.
जय जवान-जय किसान के नारे को बेच दिया तो कुछ भी बचेगा नहीं. जो संसद क़ानून बनाती है वह अगर नौटंकी करने लगे तो उसके अस्तित्व पर सवालिया निशान लगना ही है. याद नहीं क्या हमारे पुरखे कौन-कौन सी बातें बताकर गए हैं. हमें बताया गया है कि ज़िंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करती हैं. हमें बताया गया है कि जनता लापरवाही करती है तो संसद आवारा हो जाती है.
14 फरवरी का दिन सिर्फ प्यार करने के लिए नहीं है. यह दिन पुलवामा पर आंसू भी बहाने के लिए है. यह दिन सड़कों पर खुले आसमान के नीचे इन्साफ मांगते किसानों के बारे में सोचने का दिन भी है. यह दिन उन स्वयंभू जजों के बारे में सोचने का भी है जो प्यार करने वालों को सज़ा देने निकलते हैं और उन्हें पुलिस का डर नहीं होता. सैकड़ों साल पहले भी प्यार करने के जुर्म उसका खून बहाया गया था जिसकी याद में प्यार करने वाले इस दिन को सजाते हैं.
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इतिहास लगातार खुद को दोहरा रहा है. नये-नये चैप्टर कोर्स में जुड़ रहे हैं. हर चैप्टर पर खून के धब्बे चस्पा होते जा रहे हैं. यह चैप्टर न पढ़ी जाने लायक किताब को मोटा और मोटा करते जा रहे हैं. मन करता है कि कह दूं कि उठो फाड़ डालो यह किताब. इसका एक-एक चैप्टर उस गटर में डाल दो जो किसी नदी में न मिलता हो. इसका नाम इस तरह से मिटा दो कि खुद को भी यकीन होने लगे कि हमने खुद भी नहीं देखे थे ऐसे दिन.