क्या आपने कभी जौजी सोहन हलवा, किशमिश समोसा, मैसूर पाक, काली गाजर का हलवा, मलाई पूड़ी व कच्चे आम की खीर का नाम सुना या खायी है। अगर नहीं तो इस पुरानी परम्परा को जीवित रखे हुए हैं 150 साल पुरानी मिठाई की दुकान सेवक राम मिष्ठान भंडार। पांचवीं पीढ़ी के विकास गुप्ता बताते हैं कि श्री मंगल गुप्ताजी ने इस मीठे रस की शुरूआत आज से कोई डेढ़ सौ साल पहले की थी। उसके बाद परबाबाजी टीकाराम गुप्ता फिर उनके सुपुत्र यानी बाबाजी रामसेवक गुप्ता ने बाग डोर सम्भाली।
फिर आये पिताजी श्री ओम प्रकाशजी। पहले हमारी दुकान सर्राफा बाजार के मेन रोड पर थी लेकिन बाद में उसे बंद करना पड़ा और 1972 से जो हमारे कोयला और लकड़ी का स्टोर था, दुकान में बदल गया। यह दुकान श्री कल्लीजी राम मंदिर परिसर में है।
विकास गुप्ता बताते हैं कि हमारे ज्यादातर ग्राहक सुबह देशी घी में बनने वाले खस्ते और गर्मागर्म जलेबी खाने आते हैं। हमारी कचौड़ियों की भी काफी डिमांड रहती है। यूं तो हम जितनी भी मिठाइयां बनाते हैं वो हमारी रस परम्परा की पहचान है।
हम जो काली गाजर का हलवा बनाते हैं हमसे पहले लखनऊ में कोई नहीं बनाता था। पुराने लोग जानते हैं कि टीकाराम के हाथों को बना काली गाजर का हलवा खाने लोग दूर दूर से आते थे।
उस जमाने में दूध की बर्फी, आटे गोंद का लड्डू, मूंग दाल का लड्डू, घेवर, मिल्क केक, दूधिया, मलाई पान, सोहन हलवा, दालमोठ की जो उस जमाने में रेसिपी थी वह आज भी वैसी ही बनायी जाती है। हां, पहले कोयले पर सब तैयार होता था अब गैस आ गयी है।”
‘जहां तक संघर्ष की बात है तो पहले लोगों में पेशेंस था, लोग ईमानदार थे अपने कौल के पक्के थे इसलिए सब कुछ आसानी से हो जाता था। आज लोगों अधीरता ज्याता है।
हेल्थ कांसेस होने के कारण देशी घी से बचते हैं। पहले इंसान साइकिल या पैदल चला करते थे तो सब खाया पिया हजम हो जाता था। हमारा सारा मैटिरियल शुद्ध देशी घी में तैयार होता है आैर हम प्याज लहसुन का बिल्कुल भी इस्तेमाल नहीं करते।”
‘यूं तो हमारी दुकान पर कई फिल्मी कलाकार व नेतानगरी के महानुभव आते ही रहते हैं। बाबूजी लालजी टण्डन, सौरभ शुक्ला, पिनाज मसानी, इंडिया टीवी के ज्योतिषाचार्य इंदु प्रकाश मिश्र के अलावा आजकल लखनऊ में आये दिन फिल्म व टीवी के कलाकार झुण्ड के झुण्ड आते हैं जिन्हें मैं नहीं पहचानता। हेरिटेज वॉक वाले तो अक्सर यहीं नाश्ता करते हैं।
हम चार भाई मिलकर इस परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। हमारे बाबा के जमाने से केटरिंग का काम शुरू हुआ था जोे आज भी जारी है अब उसे मेरे भाई अनिल बखूबी सम्भालते हैं। मैं और मेरा छोटा भाई रवि काउंटर सम्भालते हैं। विशाल मैनेजमेंट देखते हैं। अगली पीढ़ी के बच्चे अभी छोटे हैं लेकिन उम्मीद है कि वे भी इस परम्परा को आगे ले जाएंगे।”
‘मेरे पिताजी यही समझाते हैं कि हमें अपनी परम्परा को जो पुरखों ने खून पसीने से सींचकर बनायी है उससे कभी भी समझौता नहीं करना है। दूसरी बात है कि ग्राहक चाहे एक खस्ता मांगे या पचास सबसे पहले उसे दो जो पहले आया है।
ग्राहक को हमेशा भगवान मानो, कभी उसे ऐसा न लगे कि उसे चीट किया गया। भविष्य की योजनाओं के बारे में विकास बताते हैं कि न तो हम फ्रेंचाइजी देने के मूड में हैं और न और आउटलेट खोलना चाहते हैं। क्योंकि क्वांटिटी बढ़ने से क्वालिटी मर जाती है।