Monday - 28 October 2024 - 3:03 PM

कोई यूं ही नहीं बनता जावेद अख्तर

(लखनऊ की मुकद्दस सरजमीं ने बॉलीवुड को अनेक मशहूर व मारूफ फनकार दिये हैं। उनकी कला के जलवे मौसिकी, अदाकारी, फिल्म निर्देशन, नगमानिगारी, कोरियोग्राफी, कहानी लेखन व स्क्रिप्ट राइटरिंग में सर्वविदित हैं।  आइये, लखनऊ पले बढ़े फनकारों की तीसरी कड़ी में प्रस्तुत हैं सुप्रसिद्ध कथाकार, गीतकार व डायलॉग राइटर जावेद अख्तर साहब।)

जावेद अख्तर साहब का जन्म 17 जनवरी 1945 को हुआ। पिता मशहूर शायर जनाब जानिसार अख्तर ने उनका नाम रखा जादू। बाद में लोगों के एतराज करने पर उनका नाम रख दिया जावेद। जावेद साहब की मां का इंतेकाल उनके बचपन मे ही हो गया था। पिता चूंकि मुशायरों में व्यस्त रहते थे तो जावेद साहब का पालन उनके न्यू हैदराबाद स्थित ननिहाल लखनऊ में हुआ। वे लखनऊ के कालविन ताल्लुकेदार्स इंटर कालेज में पढ़ते थे। उनकी शरूआती पढ़ाई यहीं हुई। फिर वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वद्यालय में चले गये।

जावेद साहब में किसी भी मसले पर अपना प्वाइंट आफ यू रखने का जबर्दस्त माद्दा था। वे एएमयू में लगातार तीन साल तक डिबेट्स में प्रथम आते रहे। यहां की स्टूडेंट्स पालिटिक्स में दो दल थे और  दोनों के लीडर चाहते थे कि इलेक्शन में वे उनके लिए चुनाव प्रचार करें। चूंकि जावेद साहब को बोलने का शौक था सो वे दोनों के लिए ही प्रचार कर दिया करते।

1960 में वे फिल्मो में असिस्टेंट डारेक्टर बनने के इरादे से बम्बई चले आये। यहां कोई गॉड फादर तो था नहीं। सो प्रोड्यूसर के एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर तक रास्ता ज्यादातर पैदल चलकर ही बीतता। कभी चने खा लिये तो कभी पानी पीकर ही सो गये। इनकी मुफलिसी का दौर लम्बा चला। उन्हें पढ़ने का बेहद शौक था। बांद्रा स्टेशन के बाहर एक पुरानी किताबें बेंचने वाले की दुकान थी। उनका ज्यादातर वक्त यहीं बीतता। शाम को दुकान बंद होने पर वे कुछ किताबें लेकर कमालिस्तान स्टूडियो चले जाते, वे यहां रात को सोने आते थे। एक बार उन्हें एक अल्मारी खुली मिल गयी। उसमें बहुत सी कीमती जानना पोशाकें और  फिल्मफेयर ट्राफियां रखी हुई थीं। ये मशहूर आदाकारा मीना कुमारी की जागीर थीं। फिल्मफेयर ट्राफी को हाथ में लेकर उन्होंने शीशेे के सामने खड़े होकर कहा कि एक दिन ये ट्राफी मेरे हाथ में होगी और  लोग तालियां बजायेंगे। फिर फिल्मों में लिखने-पढ़ने का काम मिलने लगा।

एक बार एक प्रोड्यूसर ने इनकी कहानी की स्क्रिप्ट इनके मुंह पर फेंक दी और  कहा कि तुम कभी राइटर नहीं बन सकते। फिर उन्होंने लेखन का बंद कर डारेक्शन में मन लगाया। एक फिल्म ‘सरहदी लुटेरे” में असिस्टेंट डायरेक्टर थे और  इसी फिल्म के सेट पर उनकी मुलाकात एक्टर सलीम खान से हुई। सलीम खान तब राइटर नहीं थे। दोनों में बातचीत होती और  यह धीरे-धीरे दोस्ती में तब्दील हो गयी। सलीम साहब एक्टिंग से ऊब चुके थे और  जावेद साहब डायरेक्शन से। दोनों ने राइटिंग में साथ किस्मत आजमाने की ठानी। 70 के दशक में  स्टोरी राइटर्स व स्क्रिप्ट राइटर्स को कोई खास महत्व नहीं दिया जाता था।

कम लोग जानते होंगे कि इनकी सफलता के पीछे सुपर स्टार राजेश खन्ना का बहुत बड़ा हाथ रहा। जब फिल्म ‘हाथी मेरे साथी” राजेश खन्ना को आफर हुई तो वे इसमें काम नहीं करना चाहते थे लेकिन उन्हें मोटा पैसा मिल रहा था और  उन्हें अपना बंगला भी खरीदना था। राजेश खन्ना ने हां तो कर दी लेकिन उन्होंने सलीम जावेद से कहा आप दोनों इसकी स्क्रिप्ट तैयार करो। फिल्म सुपर डुपर हिट रही। सलीम जावेद की जोड़ी चल निकली। इसके बाद जीपी सिप्पी की कम्पनी में इन्हें बतौर स्क्रिप्ट राइटर नौकरी मिल गयी। यहां उन्होंने एक से बढ़कर एक स्क्रिप्ट लिखीं जिसमें ‘अंदाज”, ‘सीता और  गीता”, ‘शोले” और  ‘डान”।

सलीम जावेद की जोड़ी इंडस्ट्री में हॉट केक बन चुकी थी। वे स्टार राइटर्स बन गये और  किसी हीरो से कम इनका रुतबा नहीं था। उसके बाद तो उन्होंने इतिहास ही रच दिया। ये वो दिन थे जब अमिताभ बच्चन भी गर्दिश के सितारों से दो दो हाथ कर रहे थे। प्रकाश मेहरा सलीम जावेद की फिल्म ‘जंजीर” के लिए राजकुमार व देव आनन्द के न कहने से हताश लौट चुके थे।  ‘बाम्बे टू गोवा” में अमिताभ का काम जावेद अख्तर साहब ने देखा था। सो बात हुई और बात बन गयी। फिल्म सुपर हिट हुई। इसके बाद सलीम-जावेद और अमिताभ का एक ट्रायो बन गया। ‘शोले”, ‘दीवार”,’त्रिशूल”, ‘डान”, ‘काला पत्थर”, ‘कालिया”, ‘दोस्ताना” जैसी एक से बढ़कर एक फिल्म आयीं और ये तिकड़ी इतिहास रचती गयी। लेखक द्वय ने 12 साल तक साथ काम किया और  24 फिल्में लिखीं जिसमें दो कन्नड़ भाषा में बनीं। ‘यादों की बारात”, ‘मिस्टर इंडिया”, ‘क्रांति”, ‘हाथ की सफाई” जैसी हिट फिल्मों उन्हें उस मुकाम पर पहुंचा दिया जहां की उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी।

जैसा कि कहा जाता है कि वक्त कभी एक जैसा नहीं रहता। यहां भी यही हुआ। लेखक जोड़ी 1982 में अलग-अलग हो गयी। जावेद साहब अपने पिता की तरह मंच पर सक्रिय हो गये। जावेद साहब न चाहते हुए यश चोपड़ा के बहुत जोर देने पर फिल्म ‘सिलसिला” के गीत लिखने को तैयार हो गये। फिर उनका कारवां फिल्म गीतकार के रूप में चल निकला।…

जावेद साहब दो शादियां कीं। ये भी एक मजेदार किस्सा है। 1970 के दशक की बात है फिल्म ‘सीता और  गीता” के सेट पर जावेद और हनी ईरानी से मिले। एक सवाल जवाब की प्रतियोगिता में दोनों ने शादी करने का फैसला कर लिया। 21 मार्च 1972 को दोनों ने शादी कर ली। हनी ईरानी मात्र 17 साल की थीं। हनी ईरानी ने अपना कैरियर बाल कलाकार के रूप में शुरू किया था। बाद में वे राइटर बन गयी थीं। उनसे उनके दो संतानें हुर्इं। फरहान व जोया। 1974 में जावेद साहब की लाइफ में बदलाव आने लगा। वे शबाना आजमी की तरफ आकर्षित होते जा रहे थे। उन दिनों शबाना आजमी के पिता कैफी आजमी के घर उनका काफी आना जाना लगा रहता था। शबाना आजमी भी जावेद साहब को पसंद करने लगी थीं। दोनों का एक साथ काफी वक्त बीतने लगा था। दोेनों की शादी में दिक्कत ये थी कि जावेद शादीशुदा थे और ये बात उनकी मां को बिल्कुल पसंद नहीं थी। इधर ये बात हनी ईरानी को पता चली तो दोनों में झगड़े शुरू हो गये। झगड़े इतने बढ़ गये कि दोनों ने 1978 में बच्चों को बिना बताये अलग होने का फैसला कर लिया। अब शबाना और  जावेद के बीच नजदीकियां और  बढ़ने लगीं थीं। लेकिन तलाक न होने के चलते उनकी शादी नहीं हो पा रही थी।

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1984 में जावेद साहब ने हनी ईरानी को तलाक दे दिया और इसी साल उन्होंने शबाना आजमी से निकाह कर लिया। चूंकि शबाना से उन्हें कभी कोई औलाद नहीं हुई तो फरहान व जोया का जावेद के घर आना जाना लगा रहा। इससे उन सबके सम्बंध कुछ हद तक नार्मल हुए। जावेद साहब सोशल एक्टिविस्ट भी हैं और अपने बयानों को लेकर हमेशा सोशल मीडिया में छाये रहते हैं। शबाना आजमी खाली वक्त में अपने वालिद के गांव मिजवा (आजमगढ़) में गरीब महिलाओं के साथ एनजीओ चलाती हैं।

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