अगला सवाल है कि प्राथमिक स्कूलों में जो बच्चे आ रहे हैं उनके अधिगम और उपलब्धि की क्या हालत हैं? वर्ष 2008 में कक्षा 8 में पढ़ने वाले लगभग 85 प्रतिशत विद्यार्थी कक्षा 2 की किताब पढ़ सकते थे जबकि 2018 में इनकी संख्या घटकर लगभग 73 प्रतिशत हो गयी है।
निजी स्कूलों के बच्चे ऐसे परिवारों से आते हैं जिनके पास सांस्कृतिक और सामाजिक पूंजी है जो उन्हें घर पर पढ़ने-पढ़ाने में सहयोग देती है। सरकारी स्कूलों के बच्चों और अभिभावकों के संदर्भ में इसका अभाव है। बच्चों की उपलब्धि और सीखने में अंतर एक सांस्कृतिक अंतर है जो स्कूल में प्रवेश के पहले से सक्रिय हो जाता है। इसके लिए संज्ञानात्मक कारकों के बदले गैर- संज्ञानात्मक चरों का योगदान है जो बच्चे के नियंत्रण से परे हैं।
एक कल्याणकारी राज्य द्वारा दिया गया शिक्षा के अधिकार भी इस सांस्कृतिक अंतर को नहीं पाट पा रहा है। इस रिपोर्ट से स्पष्ट है कि शैक्षिक अवसरों की समानता व गुणवत्ता की दृष्टि से गांवों में बसने वाला भारत ऐसी भौगोलिक इकाई बनता जा रहा है जहां शिक्षा के मूलाधिकार की प्रक्रिया और परिणाम में गहरी खाई है।
असर (एैनुअल स्टेट्स ऑफ एजुकेशन)-2018 की रिपोर्ट ग्रामीण भारत में स्कूली शिक्षा की चिंताजनक स्थिति को उजागर करती है। इस रिपोर्ट में 596 जिलों के लगभग साढ़े तीन लाख ग्रामीण परिवारों और सोलह हजार स्कूलों के सर्वेक्षण के आधार पर प्राथमिक विद्यालयों तक बच्चों की पहुंच, उपलब्धि और विद्यालयों के ढांचागत संरचना के आंकड़े तैयार किये गए। ये आंकड़े स्कूली शिक्षा की व्यक्ति और समाज के साथ अन्त:क्रिया के बारे में कुछ महत्वपूर्ण रूझान देते हैं। इस रिपोर्ट में स्कूलों में नामांकन और बुनियादी सुविधाओं जैसे पैमानों पर सकारात्मक वृद्धि दर्ज की गयी है लेकिन पढ़ने और गिनने जैसी कुशलताओं में विद्यार्थियों की खस्ता हालत स्कूली शिक्षा की प्रक्रिया और प्रभाव के बारे सवाल खड़ा करती है।
उदाहरण के लिए 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों का स्कूलों में नामांकन लगभग 95 प्रतिशत है। 11 से 14 वर्ष तक आयु की विद्यालय न जाने वाली लड़कियों का प्रतिशत 4.1 है। यह सार्थक बदलाव शिक्षा के अधिकार कानून के धरातल पर क्रियान्वित होने के परिणाम हैं। इस वर्ष सरकारी स्कूलों के नामांकन प्रतिशत और निजी स्कूलों में नामांकन प्रतिशत लगभग बराबर है। ये आंकड़े उत्साहवर्धक हैं लेकिन गांवों में प्राथमिक शिक्षा की वास्तविकता के बारे केवल इनके आधार पर निष्कर्ष निकलना सम्यक नहीं होगा।
कुछ लोग ऐसा भी सोच सकते हैं कि जो बच्चे पहले निजी स्कूलों में जाते थे क्या अब वे सरकारी स्कूलों में आ रहे हैं? आंकड़े इस निष्कर्ष तक पहुचंने में मदद नहीं करते। वर्ष 2018 में लगभग एक चौथाई सरकारी स्कूलों में आज भी बच्चों का नामांकन 60 और इससे कम है। अर्थात निजी स्कूलों को अभी भी सरकारी स्कूलों के बदले अधिक अधिमान दिया जा रहा है। तो इस वृद्धि में कौन से बच्चे शामिल हैं?
वे बच्चे शामिल हैं जो नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार न मिलने पर स्कूल के बाहर ही रह जाते हैं। जिनके परिवार शिक्षा की कोई भी लागत नहीं उठा सकते. शिक्षा के अधिकार कानून 2009 के बाद से स्कूलों की संख्या में वृद्धि, शिक्षकों की नियुक्ति, शौचालय और खेल के मैदान जैसी ढांचागत संरचना में सुधार और स्कूल तक बच्चों को लाने के लिए की जाने वाली पहलों के कारण सरकारी विद्यालयों में नामांकन बढ़ा है।
अगला सवाल है कि प्राथमिक स्कूलों में जो बच्चे आ रहे हैं उनके अधिगम और उपलब्धि की क्या हालत हैं? वर्ष 2008 में कक्षा 8 में पढ़ने वाले लगभग 85 प्रतिशत विद्यार्थी कक्षा 2 की किताब पढ़ सकते थे जबकि 2018 में इनकी संख्या घटकर लगभग 73 प्रतिशत हो गयी है।
इसी तरह कक्षा 8 के केवल 44 प्रतिशत बच्चे तीन अंकों में एक अंक से भाग देने की संक्रिया कर सकते हैं। ध्यान रखिएगा कि बच्चों की अकादमिक उपलब्धि के संदर्भ में निजी स्कूलों के बच्चे सरकारी स्कूलों के बच्चों से बेहतर हैं। इसके पक्ष में निजी स्कूलों की आधार-संरचना, अध्यापकों की निगरानी और आउटपुट के लिए समर्पित प्रबंधन का तर्क पर्याप्त नहीं है।
निजी स्कूलों के बच्चे ऐसे परिवारों से आते हैं जिनके पास सांस्कृतिक और सामाजिक पूंजी है जो उन्हें घर पर पढ़ने-पढ़ाने में सहयोग देती है। सरकारी स्कूलों के बच्चों और अभिभावकों के संदर्भ में इसका अभाव है। बच्चों की उपलब्धि और सीखने में अंतर एक सांस्कृतिक अंतर है जो स्कूल में प्रवेश के पहले से सक्रिय हो जाता है। इसके लिए संज्ञानात्मक कारकों के बदले गैर- संज्ञानात्मक चरों का योगदान है जो बच्चे के नियंत्रण से परे हैं। – ऋषभ कुमार मिश्र