Sunday - 3 November 2024 - 4:00 AM

राममन्दिर निर्माण का प्रश्न अभी भी अनसुलझा!

शीतला सिंह

यह नहीं कहा जा सकता कि राममंदिर की आकांक्षा केवल ट्रस्टियों को ही है क्योंकि मुख्य आन्दोलन और मुकदमा लड़ने वाले तो निर्मोही अखाड़ा और हिन्दू महासभा के नेता थे। उनके एक कार्यकर्ता, जो बाद में विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष बने, परमहंस रामचन्द्र दास ने अपना मुकदमा विलम्ब के नाम पर वापस ले लिया था, लेकिन यह नहीं माना जा सकता कि राममंदिर के समर्थक मुख्य रूप से रामानन्द सम्प्रदाय के लोग ही माने जाते हैं।

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अयोध्या का राममंदिर आन्दोलन भले ही 1949 में कांग्रेस की आन्तरिक और स्थानीय नीतियों का परिणाम रहा हो, लेकिन 1983 में इसमें विश्व हिन्दू परिषद का समावेश हो गया जिसका उद्देश्य मंदिर निर्माण कम और उसके लिए आन्दोलन का राजनीतिक लाभ उठाना ज्यादा था, लेकिन चूंकि तब उसके पास सत्ता या निर्णायक क्षमता नहीं थी, इसलिए उसके एक वर्ग ने, जिसमें महंत अवैद्यनाथ और जस्टिस देवकीनन्दन अग्रवाल प्रमुख थे, दिसम्बर 1986 में अयोध्या में हुई बैठक में मुसलमानों के उस दृष्टिकोण को नये उत्साह के साथ स्वीकार किया था जिसमें उन्होंने कहा था कि यह मन्दिर और मस्जिद का विवाद नहीं बल्कि मुसलमानों को समाज की मुख्य धारा से विलग करने का प्रयास है।

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इसलिए बाबरी मस्जिद को 11-11 फीट ऊंची दीवारों से घेरकर जहां रामचबूतरे पर मंदिर निर्माण का मुकदमा निर्मोही अखाड़ा 1885 में हार गया था, वहां से मन्दिर निर्माण आरम्भ हो जाये। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दोनों मुखपत्रों आर्गनाइजर और पांचजन्य ने इस सहमति को राम की विजय के रूप में देखा और प्रकाशित किया था, लेकिन संघ के तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहेब देवरस ने इस सहमति का स्वागत करने वालों की आलोचना के साथ ही उन्हें इससे अलग होने का निर्देश दिया।

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यह कहकर कि देश में राम के 800 मंदिर हैं, एक और बन जायेगा तो 801 हो जायेंगे लेकिन हम इस आन्दोलन को इसके लिए नहीं, दिल्ली की सत्ता पर अधिकार के लिए अस्त्र के रूप में प्रयुक्त कर रहे हैं। इससे स्पष्ट हो गया था कि उनके लिए मंदिर और राजनीति में प्रमुख क्या है?

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सर्वोच्च न्यायालय ने एक पूर्व न्यायाधीश, एक प्रमुख पंच और श्री श्री रविशंकर की तीन सदस्यीय मध्यस्थता समिति बनाई, तब भी मुस्लिमों का एक वर्ग उसके प्रयत्नों का कट्टर समर्थक था, वहीं विश्व हिन्दू परिषद के प्रतिनिधियों का कहना था कि हमें सुलह-समझौते के आधार पर नहीं बल्कि शौर्य के आधार पर मंदिर चाहिए। क्योंकि समझौते का अर्थ तो यह होगा कि हम पीछे की ओर जा रहे हैं।

अब सर्वोच्च न्यायालय की 5 सदस्यों की पीठ ने अपने फैसले में विवादितस्थल में मूर्ति रखने को गैरकानूनी करार देकर 1992 में मस्जिद गिराने को राष्ट्रीय शर्म और आपराधिक कार्य बताया और उसके अभियुक्तों के खिलाफ दांडिक व्यवस्था जारी रखने को कहा है।

उसके अनुसार कोई पक्ष विवादित भूमि के स्वामित्व का साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर पाया है, लेकिन चूंकि 500 वर्षों से लोगों को विश्वास है कि वहीं राम का जन्म हुआ था, इसलिए आस्था के आधार पर उसने रामलला विराजमान के पक्ष में, जिनका मुकदमा जस्टिस देवकीनन्दन अग्रवाल द्वारा 1 जुलाई, 1989 को दायर किया गया था, फैसला दे दिया। यह भी माना कि विवादित स्थल पर उत्खनन में ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिला है कि बाबर द्वारा वहां स्थित मंदिर को गिराकर 1558 में मस्जिद बनाई गई।

फैसले के बाद राममंदिर का निर्माण शीघ्रता से शुरू होने और कम से कम अवधि में बनने की बात कही जा रही थी। लेकिन सरकार ने 1993 में इस मामले के समाधान के लिए अयोध्या विशेष क्षेत्र अधिग्रहण कानून बनाया था, जिसमें अधिग्रहीत भूमि पर मंदिर-मस्जिद दोनों बनाने की व्यवस्था थी, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को निर्देश दिया कि वह मंदिर निर्माण के लिए एक नये ट्रस्ट का गठन करे जिसमें निर्मोही अखाड़े का भी एक सदस्य प्रमुख रूप से हो।

इसके बाद सरकार ने ट्रस्ट के 9 सदस्यों का मनोनयन किया, जिनमें दो को छोड़कर सभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऐक्टिविस्ट थे। उसके चार पदेन सदस्य सरकारी अधिकारी हैं और उन्हें मताधिकार भी नहीं है जबकि ट्रस्टियों द्वारा दो नये सदस्यों का चयन किया गया।

ये दोनों चंपत राय एवं नृत्यगोपाल दास विहिप के तो हैं ही, बाबरी मस्जिद विध्वंस के अभियुक्त भी हैं। चूंकि नृत्यगोपाल दास पहले विहिप प्रायोजित ट्रस्ट के अध्यक्ष थे, इसलिए उन्हें ही नये ट्रस्ट का अध्यक्ष बनाया गया है।

लेकिन अब तक मन्दिर निर्माण शुरू करने का प्रश्न लटका हुआ है। अभी तक इसके लिए किसी तिथि की घोषणा नहीं की जा सकी है क्योंकि शुद्ध और पवित्र तिथि की खोज की जा रही है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सेवानिवृत्त मुख्य सचिव नृपेन्द्र मिश्र को निर्माण समिति का अध्यक्ष बनाया गया है, लेकिन वे भी निर्माणारम्भ की कोई स्पष्ट तिथि नहीं घोषित कर सके हैं।
यह नहीं कहा जा सकता कि राममंदिर की आकांक्षा केवल ट्रस्टियों को ही है क्योंकि मुख्य आन्दोलन और मुकदमा लड़ने वाले तो निर्मोही अखाड़ा और हिन्दू महासभा के नेता थे।

उनके एक कार्यकर्ता, जो बाद में विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष बने, परमहंस रामचन्द्र दास ने अपना मुकदमा विलम्ब के नाम पर वापस ले लिया था। लेकिन यह नहीं माना जा सकता कि राममंदिर के समर्थक मुख्य रूप से रामानन्द सम्प्रदाय के लोग ही माने जाते हैं। विश्व हिन्दू परिषद के प्रथम ट्रस्ट में रामानन्द सम्प्रदाय के मुखिया को ही अध्यक्ष बनाया गया था। इन रामानन्द की बात करें तो उनके 12 शिष्य विभिन्न धर्मों एवं समुदायों के थे। वे राम को सीमित नहीं मानते थे।

विश्व हिन्दू परिषद 1983 के बाद राममन्दिर आन्दोलन में शामिल हुई और उसने उसका दायित्व संभाला, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को राममंदिर आन्दोलन का मुख्य सूत्रधार, रचयिता या समर्थक नहीं माना जा सकता। उसने इस प्रकार का कोई आन्दोलन अपने जन्म से अब तक किया ही नहीं है।

विश्व हिन्दू परिषद के अनुसार राममन्दिर ट्रस्ट के 15 सदस्यों में सरकारी अधिकारियों को छोड़कर विमलेन्द्र मोहन प्रताप मिश्र और निर्मोही अखाड़ा के दिनेन्द्र दास भी उसके ही हैं। यह राममंदिर की व्यापकता की भावना के अनुकूल नहीं ठहरता क्योंकि रामकथा 63 देशों में विद्यमान है और ये सभी देश हिन्दूबहुल नहीं बल्कि विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों के मानने वाले हैं। उनकी कथा और भाषा में भिन्नता हो सकती है लेकिन वे सभी राम को अपना मानकर ही स्वीकार्य करते हैं।

अयोध्या में अभी राममंदिर निर्माण के क्रम में उसकी दो मंजिलों के लिए पत्थरों की कटाई और तराशने का काम ही हो पाया है, लेकिन अब यह तीन मंजिला होगा, जिसके लिए निर्माण सामग्री ही पर्याप्त नहीं है। तिस पर निर्माण और विध्वंस में अन्तर है। निर्माण में समय लगता है और विध्वंस की तरह नहीं निपटाया जा सकता।

मन्दिर निर्माण में लौह सामग्री का प्रयोग न करने की घोषणा की गई है और अब इसका दायित्व एक कम्पनी के सुपुर्द किया जा रहा है, जो व्यक्तियों के श्रम के बजाय मशीनों से उसके निर्माण को स्वरूप प्रदान करेगी। चूंकि इस निर्माण के राजनीतिक लाभ से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी जुड़ गये हैं, इसलिए अप्रैल के पहले तो पवित्र स्थल की पूजा ही संभव नहीं है। जब तक यह रामभक्ति राजनीतिक लाभ से भी जुड़ी हुई है, उसे लेकर पूर्ण सहमति का प्रश्न ही नहीं है, इसलिए विरोध के नये-नये स्वर आवश्यकतानुसार समय-समय पर उठते ही रहेंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, उनका यह लेख प्रभा साक्षी से साभार लिया गया है )

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Jubilee Post उत्तरदायी नहीं है।)
 
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