प्रीति सिंह
बिहार के चुनावी मैदान में कुछ दिनों पहले राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने कहा कि यूपीए के शासनकाल में बीजेपी के लिए महंगाई डायन थी और अब उनकी भौजाई बन गई है। तेजस्वी का कहना सही है। यूपीए के शासनकाल में महंगाई को लेकर बीजेपी ने सरकार को घेरने के लिए क्या-क्या नहीं किया और अब जब एक महीने पहले तक बीस रुपए मिलने वाला आलू भी 60 रुपए मिल रहा है, तो मोदी सरकार चुप्पी साधे हुए हैं।
देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा वैसे भी गरीबी का दंश झेलते हुए जीता है और उसके लिए किसी तरह पेट भर पाना एक बड़ी समस्या होती है। मगर मौजूदा दौर में बढ़ती महंगाई की वजह से वे न्यूनतम पोषण वाले भोजन से भी दूर होते जा रहे हैं। अब तो इसका असर निम्न मध्यम वर्ग के परिवारों पर भी पडऩा शुरू हो गया है और उनकी थाली में भी महंगाई की वजह से होने वाली कटौती साफ नजर आने लगी है।
कोरोना महामारी की मार से देश की अर्थव्यवस्था पहले ही मुश्किल दौर से गुजर रही है। ऐसे हालात में लोगों के सामने खाने-पीने की चुनौतियां गहराने लगी हैं। निश्चित रूप से यह चिंता का विषय है। सब्जियों की बढ़ती कीमतों की वजह से अभी हालत यह है कि ज्यादातर लोगों की थाली से सब्जियों सहित जरूरी पोषक तत्व भी गायब होने लगे हैं।
सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि जो आलू आमतौर पर सबकी पहुंच में रहता आया है और खासतौर पर गरीब तबकों की थाली में सब्जी की कमी पूरा करने में सबसे ज्यादा सहायक रहा है, अब बहुत सारे लोग सिर्फ उसकी कीमत पूछ कर मायूस हो जाने की हालत में हैं। बाजार में आलू की खुदरा कीमत पचास से साठ रुपए प्रति किलो तक पहुंच चुकी है, जबकि कुछ समय पहले तक यही आलू कुछ बीस से तीस रुपए प्रति किलो मिल रहा था।
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कुछ महीने पहले प्याज की बढ़ती कीमत महंगाई बहस का मुद्दा थी। इसको लेकर सरकार पर सवाल उठने लगा था। बीच में प्याज की कीमतें गिरने लगी और लोगों की पहुंच में आ गई। लेकिन यह स्थिति ज्यादा दिन नहीं रही। एक बार फिर प्याज के दाम आसमान छूने लगे हैं। बाजार में यह यह अस्सी रुपए प्रति किलो या इससे ज्यादा भाव में भी बिकने लगा है।
वैसे बाजार में सिर्फ आलू-प्याज की महंगा नहीं है बल्कि टमाटर, लहसुन और हरी सब्जियों की कमीतें भी आम लोगों की पहुंच से बाहर हो चुकी हैं। यह आलम तब है जब ठंड की आहट के साथ आमतौर पर सब्जियां सस्ती हो जाती है। नवंबर में सब्जियों की कीमत काफी स्थिर रहती है लेकिन इस बार कीमतों में आग लगी हुई है और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है।
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बिहार में विधानसभा चुनाव हो रहा और प्रधानमंत्री मोदी व उनका मंत्रिमंडल बिहार में सरकार के कामकाज का गुणगान कर रहा है। प्रधानमंत्री मोदी अपनी पीठ थपथपाते हुए कहते हैं कि पूरी दुनिया हैरान है कि कोरोना महामारी के दौर में इतनी आबादी वाले देश में कोई भी भूखा नहीं सोया है। सरकार ने सबका पेट भरा है। वह बिहार की माताओं से कहते हैं कि मां, तुम छठ की तैयारी करो। दिल्ली में तुम्हारा बेटा बैठा है।
सवाल उठता है कि सरकार गरीबों की मदद के लिए जितना राशन या पैसा दे रही है उतने में वह कितने दिन अच्छा खाना खा सकते हैं। 80 रुपए प्याज, 60 रुपए आलू, 70 रुपए टमाटर और हरी सब्जियों की कीमत बताने की जरूरत नहीं है, गरीब कितने दिन सब्जी खरीद सकता है।
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बिहार के चुनावी जनसभा में प्रधानमंत्री मोदी कई बार कह चुके हैं कि सरकार गरीबों को भूखा नहीं सोने देगी। सवाल उठता है कि पांच किलो चावल/ गेहूं और एक किलो चना से ही पेट नहीं भरा जा सकता। रोटी या चावल सूखा नहीं खाया जा सकता। उसके साथ खाने के लिए दाल या सब्जी की भी जरूरत पड़ती है। और दाल और सब्जी की कीमत बताने की जरूरत नहीं है।
महंगाई पर सरकार की चुप्पी को लेकर सवाल तो बहुत सारे हैं पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि जिस दौर में नियमन के स्तर पर प्रशासन, बाजार से लेकर हर क्षेत्र में हावी दिख रहा है, नागरिकों को हर सुविधा मुहैया कराने के लिए भ्रष्टाचार दूर करने का सरकार दावा कर रही है, उसमें आखिर किन वजहों से सारी सब्जियों की कीमतें बेलगाम हो गई हैं!
सवाल यह भी है कि पर्याप्त उपज होने के बावजूद महंगाई इस कदर बेलगाम क्यों हो गई है! आखिर समूचा तंत्र कैसे काम करता है कि एक ओर किसानों को उनकी उपज की वाजिब कीमत नहीं मिल पाती है और दूसरी ओर बाजार में ग्राहकों को वही वस्तुएं ऊंची कीमतों पर मिलती हैं?
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सवाल यह भी है कि जिस देश के किसानों को हर साल लगभग 63 हजार करोड़ रुपए का नुकसान इसलिए हो जाता है, क्योंकि वे अपनी उपज बेच ही नहीं पाते। उस देश में सब्जियों की बेतहाशा कीमत क्यों हैं? आखिर इसमें फॉल्ट कहां है।
जनता एक साथ कई समस्याओं से जूझ रही है। एक ओर बढ़ती महंगाई और दूसरी ओर बेरोजगारी। मार्च में लागू तालाबंदी आज भी पूरी तरह नहीं खुली है, जिसकी वजह से अर्थव्यवस्था सामान्य हालत में नहीं है। तालाबंदी की वजह से पहले ही बड़ी तादाद में लोग बेरोजगार हो चुके हैं, उनका व्यवसाय ठप हो चुका है और आय के साधन नहीं हैं। ऐसे हालात में दो जून की रोटी का प्रबंध कर पाना उनके लिए कितना कठिन है इसका एहसास शायद सरकार को नहीं है।
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बाजार में कामकाज अभी भी ठीक से चलना शुरू नहीं हुआ है। इसकी वजह यह है लोगों के पास सहजता से खर्च करने के लिए या तो पैसे नहीं हैं या फिर वे सावधानी बरतने लगे हैं। ऐसे में खाने-पीने के सामानों की बेकाबू कीमतें कैसा असर डाल रही होंगी, यह समझना मुश्किल नहीं है।
सरकार इस समस्या को कैसे सुलझायेगी और कब सुलझायेगी यह तो सरकार ही जाने लेकिन हाल ही में सरकार ने रोजाना उपयोग में आने वाले कुछ अनाजों के साथ-साथ आलू-प्याज को भी आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर किया है , उस हालत में ऐसा नहीं लगता कि इस समस्या से कभी निजात मिलेगी।
इससे साफ है कि जिन कारोबारियों के पास संसाधन हैं, वे इनका भंडारण कर सकेंगे। अगर इस पर्दे में आलू-प्याज या दूसरी वस्तुओं की जमाखोरी ने जड़ जमाया तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले दिनों में लोगों की रसोई और थाली में कैसे वक्त आ सकते हैं!