शबाहत हुसैन विजेता
एनसीआर में एक भरोसेमंद अस्पताल है। अगर आपकी जेबें पैसों से भरी हैं और इस अस्पताल ने कंधे पर हाथ रख दिया है तो आपको अपनी ज़िन्दगी को लेकर बहुत ज्यादा डरने की ज़रूरत नहीं है। यह अस्पताल ऐसे क्रिटिकल मरीजों को अपने यहां भर्ती कर लेता है जिन्हें देखकर पीजीआई जैसे बड़े अस्पताल हाथ खड़े कर देते हैं।
इस अस्पताल के मालिक खुद एक काबिल डॉक्टर हैं। हार्ट से जुड़ी कितनी भी मुश्किल परेशानी हो उसे यह चुटकियों में हल कर देते हैं। अमरीका के कई बड़े अस्पताल उन मरीजों की ज़िन्दगी बचाने के लिए उन्हें बुलाते हैं जिनके बचने का चांस नहीं के बराबर रह जाता है।
इस बड़े अस्पताल का दरवाज़ा हार्ट के एक ऐसे मरीज़ ने खटखटाया जो गरीब नहीं था लेकिन ऐसा अमीर भी नहीं था कि उस पर पैसों की बारिश हो रही हो। उसे तकलीफ ज्यादा थी, इसलिए वह किसी आम डॉक्टर के पास नहीं जाकर ऐसी जगह गया जहां पैसा ज़रूर बहुत ज्यादा लगता है। मगर बच जाने की गारंटी मिल जाती है। भर्ती होने के बाद इस मरीज़ के शुरू से आखिर तक सारे टेस्ट कराये गए।
उसे बताया गया कि आपकी तीन नसें पूरी तरह से ब्लाक हो चुकी हैं। आपरेशन फ़ौरन करना पड़ेगा। आप फ़ौरन साढ़े आठ लाख रुपये जमा करवा दीजिये। यह रकम उनके लिए बहुत बड़ी थी। इतनी आसानी से फ़ौरन जमा नहीं कराई जा सकती थी। उन्होंने अपने दोस्त को फोन कर अस्पताल बुलवाया और कहा कि मेरे पास सिर्फ तीन लाख रुपये हैं। तुम बाकी के साढ़े पांच लाख जमा कर दो। ठीक हो जाऊंगा तो तुम्हारी पाई-पाई लौटा दूंगा। दोस्त मेडिकल के पेशे से जुड़ा था।
उसने सारी रिपोर्ट्स देखीं, फिर कहा कि बात पैसे वापस करने की नहीं है लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम अपनी जांच किसी और बड़े अस्पताल में भी करवा लो। उन्हें लगा कि दोस्त पैसे देना नहीं चाहता। दोनों में खूब बहस हुई। उन्होंने कहा कि तुम पैसा मत जमा करो। मैं कहीं और से इंतजाम कर लूँगा।
अपनी दोस्ती को शक में घिरता देखकर दोस्त ने साढ़े पांच लाख रुपये जमा करवा दिए। घर पहुंचकर उन्होंने फोन पर अपने दोस्त से कहा कि पैसा जमा करवा दिया है। तुम आराम से सो जाओ, लेकिन सुबह किसी और अस्पताल में टेस्ट करवा लो, मैं तुम्हारा सिर्फ भला चाहता हूँ।
मरीज़ ने रात को कई घंटे सोचा, फिर सुबह दोस्त को फोन कर कहीं और जांच कराने को कहा। अस्पताल से छुट्टी लेकर दिल्ली के दो अस्पतालों में जांच करवाई गई। दोनों जगह की रिपोर्ट में आया कि सिर्फ एक नस ब्लाक है। वह भी सौ फीसदी नहीं है। आपरेशन ज़रूर थोड़ा मुश्किल है मगर आपरेशन से लेकर दवाइयों तक का टोटल खर्च ढाई से पौने तीन लाख रुपये बताया गया।
रिपोर्ट देखकर उनके पाँव के नीचे की ज़मीन खिसक गई। उन्होंने बड़े वकीलों से बात कर एनसीआर के उस अस्पताल के प्रबंधन पर पैसा वापसी का दबाव बनाया तो पता चला कि यह काम तो इस अस्पताल में बहुत आम है।
यहां इलाज ज़रूर अच्छा और भरोसेमंद होता है लेकिन मरीज़ इनके लिए सिर्फ एक ग्राहक भर होता है। जो इस अस्पताल के दरवाज़े से भीतर घुस जाता है उसे जोंक की तरह से चूस लिया जाता है। लुट-पीटकर भी मरीज़ इस अस्पताल के कसीदे पढ़ता हुआ वापस चला जाता है।
लखनऊ का क्वीन मेरी अस्पताल अपनी एक अलग पहचान रखता है। इस अस्पताल का नाम मैंने भी खूब सुन रखा था लेकिन इसे पहचाना 9 साल पहले। जब यहाँ मेरा बेटा पैदा हुआ। पत्नी को यहाँ भर्ती कराया था। मरीजों के परिजनों और डाक्टरों में हर वक्त नोकझोंक यहाँ नज़र आती रहती थी। मेरी बहन से भी एक जूनियर डाक्टर से हल्की सी बहस हो गई।
हालांकि, मैंने डाक्टर को खूब समझाया। डॉक्टर दिखावे को मान भी गई। लेकिन इसके बाद तरह-तरह के टेस्ट का सिलसिला शुरू हुआ। 24 घंटे में इतने टेस्ट हो गए कि प्राइवेट अस्पताल भी फेल हो गया।
जब मुझसे पत्नी की आँख टेस्ट कराने को कहा गया तो मैंने केजीएमयू के कुलपति से एक सीनियर मेडिकल रिपोर्टर की बात करवाई। इसके बाद माहौल पूरी तरह मेरे पक्ष में हो गया। दो दिन बाद बेटा पैदा हुआ। अगले दिन छुट्टी देने की बात कहकर पत्नी को वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया। शाम को डाक्टर ने बच्चे को देखा और बताया की इसे जवाइनडिस हो गया है। चार दिन तक बच्चे को दो-दो सौ वाट के दो बल्बों के नीचे लिटाया गया। सुबह-शाम ब्लड टेस्ट होता रहा और जवाइनडिस बढ़ता गया।
बढ़ते-बढ़ते यह इतने खतरनाक लेबल तक पहुँच गया कि कुछ भी हो सकता था। अब डॉक्टर भी खूब बदतमीजी करते थे लेकिन बच्चे की ज़िन्दगी खतरे में थी तो सब बर्दाश्त करते रहे। इसी बीच पता चला कि यह सब कुलपति से पड़ी डांट का बदला लिया जा रहा है। डाक्टर बच्चे के ज़रिये चोट पहुंचाना चाह रहे हैं।
बच्चे को क्रिटिकल कंडीशन में एक निजी अस्पताल में शिफ्ट किया। वहां 12 घंटे के अन्दर बच्चे ने रिकवर करना शुरू किया। चार दिन बाद बच्चा घर आ गया। मेरे परिवार ने बच्चे के ठीक होने के बाद क्वीन मेरी पर कानूनी कार्रवाई का मन बनाया था लेकिन अंत भला तो सब भला की बात सोचकर इसे एक बुरे सपने की तरह से भुला दिया।
यह दो एग्जाम्पिल दिमाग में अचानक तब आ गए जब पूरे देश के डॉक्टर हड़ताल के रास्ते पर हैं। जब धरती का भगवान कही जाने वाली बिरादरी सुरक्षा मांगने के लिए सड़कों पर उतर आई है। मेरे बहुत से दोस्त डॉक्टर हैं। बहुत से डॉक्टर ऐसे हैं जो मरीजों की मदद आउट ऑफ़ वे जाकर करते हैं। ऐसे भी डॉक्टर हैं जो अपने मरीजों को बचाने के लिए अपना खून दे देते हैं। ऐसे भी डॉक्टर हैं जो मरीज़ का बगैर पैसे के भी इलाज कर देते हैं।
लेकिन ऐसे डॉक्टर उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। बड़ी तादाद उनकी है जो मरीज़ को ग्राहक समझते हैं। जो मरीजों के होने वाले टेस्ट में कमीशन लेते हैं। जो दवाएं बाहर से लिखते हैं और अस्पताल की दवाएं बिकवाते हैं।
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सरकारी अस्पतालों में मरीजों के रिश्तेदारों से दुर्व्यवहार तो रोज़ाना देखने को मिलता है, आये दिन मारपीट भी देखने को मिलती है। ट्रामा सेंटर में तो गार्ड भी पीटते हैं और डॉक्टर भी।
कोलकाता में मरीज़ की मौत के बाद उसके रिश्तेदारों से ही तो डाक्टरों का झगड़ा हुआ था। दोनों पक्षों में मारपीट हुई थी। मरीज़ की मौत के बाद मारपीट गलत बात है लेकिन मरीज़ मर रहा हो और डॉक्टर देखने न आये। मरीज़ स्ट्रेचर पर पड़ा हो और डॉक्टर के देखने का टाइम खत्म हो जाए तो वह उसे देखने को रुके नहीं। डॉक्टर हड़ताल पर हों और वह मरते हुए मरीजों के सामने से मुस्कुराते और ठहाके लगाते हुए गुजरें।
मरीज़ की जेब में फीस का पैसा न हो तो डॉक्टर उसे देखने से इनकार कर दे। मरीज़ की कंडीशन सीरियस हो और डॉक्टर उसी को बताये कि तुम्हारे पास अब ज्यादा वक्त नहीं है, रिश्तेदारों को बुला लो। परिजनों के पास महंगी दवाओं का पैसा न हो तो डाक्टर उनसे भीख मांगने की बात कहे। सीवर में गिरकर कोई ज़ख़्मी हुआ हो और फ़ौरन आपरेशन की ज़रूरत हो लेकिन डॉक्टर उसे नहलाये बगैर उसे छूने से मना कर दे तो ऐसे में क्या उसके पास धरती के भगवान वाली पदवी सुरक्षित रह जाती है।
यह सच है कि अच्छे डॉक्टर नहीं हों तो इस भागदौड़ वाली ज़िन्दगी में इंसान का जीना भी मुश्किल हो जाए। डॉक्टर तो अँधेरे में रौशनी की वह किरण है जिसकी तरफ ज़रूरतमंद दौड़ता है। वह रौशनी की किरण अगर वक्त पर उसे धोखा देते हुए हड़ताल पर चली जाए तो बेचारी खत्म होती ज़िन्दगी कैसे बचेगी।
डॉक्टर जो करता है उसके लिए उसे अतिरिक्त सम्मान ज़रूर मिलना चाहिए लेकिन मरीज़ की जान की कीमत पर नहीं। जिसके एक मिनट न होने का मतलब किसी ज़िन्दगी को खत्म होने की वजह बने उसे हड़ताल पर जाने की छूट नहीं होनी चाहिए।
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डॉक्टर सियासत का हिस्सा नहीं हो सकता। इमरजेंसी किसी भी शर्त पर नहीं चल सकती। डॉक्टर सोसायटी की ज़रुरत है मगर वह यह सोचे कि अगर प्राइवेट प्रैक्टिस पर सुप्रीम कोर्ट रोक लगा दे। प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले की डिग्री अगर ज़ब्त करने का क़ानून बन जाए। अगर पुलिस भी हड़ताल पर चली जाए। ऑक्सीजन गैस सप्लायर अगर इस काम को पूरी तरह से बंद कर दें।
अगर प्राइवेट ब्लड बैंक और टेस्ट लैब पर सरकार बंदिश लगा दे। अगर हर अस्पताल में हर डॉक्टर के लिए मरीज़ देखने की मिनिमम संख्या तय कर दी जाए। पुलिस की तरह अगर डॉक्टर को भी छुट्टियां देना बंद कर दिया जाए तो किस तरह के हालात बनेंगे।
दुनिया के हर काम में कुछ खट्टा मिलेगा तभी कुछ मीठा भी मिलेगा। कुछ अच्छा होगा तो बुरा भी होगा। डॉक्टर होने का मतलब मान-अपमान से उसे ऊपर होना है। हम पूजा घरों में जाएँ या नहीं जाएं लेकिन पूजा घर में जो बैठा है वह हमारा हमेशा ध्यान रखता है।
मरीज़ का परिजन तनाव में हो सकता है। वह डॉक्टर से गलत तरीके पेश आ सकता है लेकिन जब डॉक्टर उसके बाद भी मरीज़ का ध्यान रखेगा तो बदतमीजी से पेश आने वाला कभी न कभी अपनी गलती भी मानेगा।
धरती का भगवान कहा जाना और बात होती है मगर धरती का भगवान बन जाना बड़ी बात होती है। भगवान बनने के लिए डाक्टर को मान-अपमान और हड़ताल को पांव तले कुचलते हुए बढ़ना होगा उस तरफ जिधर किसी की ज़िन्दगी की डोर टूटने की कगार पर हो।
(लेखक न्यूज चैनल में पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)