हिंदी साहित्य में कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, आदि विधाओं को अपनी सक्रियता से समद्ध करने वाले सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय मूलत: कवि थे। अज्ञेय का जन्म, 1911 में कसया नाम जगह पर शिविर में हुआ और पत्नीविहीन, संतानविहीन अज्ञेय का निधन दिल्ली में, 1987 को हुआ था।
‘भारत ‘प्रतीक ‘नया प्रतीक का संपादन उन्होंने किया; कविता में सर्जनात्मक हस्तक्षेप करने वाले तार सप्तक (आदि) का संपादन भी उन्होंने किया।
असाध्य वीणा, चक्रांत शिला आदि अपनी अनेक कविताओं का अनुवाद किया। उनकी कविताओं के अनुवाद भारतीय भाषाओं के साथ जर्मन, स्वीडिश आदि भाषाओं में भी हुए।
अज्ञेय की सक्रियता का रूप भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान गुप्त क्रांतिकारी दल में शामिल होना था। उनके इस आयोजक रूप का दर्शन अनेक लेखन-चिंतन-शिविरों के आयोजन में हुआ था।
1
चांदनी चुपचाप सारी रात
सूने आँगन में
जाल रचती रही
मेरी रूपहीन अभिलाषा
अधूरेपन की मद्धिम-
आंच पर तचती रही
व्यथा मेरी अनकही
आनन्द की सम्भावना के
मनश्चित्रों से परचती रही
मैं दम साधे रहा
मन में अलक्षित
आंधी मचती रही
प्रात: बस इतना कि मेरी बात
सारी रात
उघड़ कर वासना का
रूप लेने से बचती रही…
2
खुल गई नाव
घिर आई संझा, सूरज
डूबा सागर-तीरे
धुंधले पड़ते से जल-पंछी
भर धीरज से
मूक लगे मंडराने,
सूना तारा उगा
चमक कर
साथी लगा बुलाने
तब फिर सिहरी हवा
लहरियाँ काँपीं
तब फिर मूर्छित
व्यथा विदा की
जागी धीरे-धीरे