‘सोने की चिड़िया’ कहा जाने वाला ‘विश्व गुरु’ एक लम्बे समय तक जलालत, जुल्म और जालिमों के चाबुकों से लहूलुहान होता रहा।
मानवता के शीर्ष पर स्थापित ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ पर भौतिक विलासता, शारीरिक सुख और राजभोग की कामना ने अपनी क्रूरता से हमेशा ही घातक प्रहार किये हैं। देश के सुभाष चन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद, पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगत सिंह, मंगल पाण्डेय, अशफाक उल्ला खां जैसे मां भारती के रणबांकुरों ने स्वाधीनता के महायज्ञ में प्राणों की आहुतियां देकर उसे पूर्णता तक पहुंचाया तो महात्मा गांधी, सरदार पटेल, भीमराव अम्बेडकर, जवाहरलाल नेहरू आदि ने भी अपनी विलायती पढाई का इस्तेमाल किया।
परिणामस्वरूप बाह्य आक्रान्ताओं की लम्बी सूची को शहीदों के खून की लाल स्याही ने हमेशा के लिए बंद कर दिया। ज्ञात इतिहास के आधार पर स्पष्ट है कि देश पर लगभग 200 से अधिक बार बाह्य आक्रान्ताओं ने आक्रमण किये हैं। पहला आक्रमण पारसी यानी ईरान के हखामनी वंश के राजा साइरस द्वितीय उर्फ कुरुष ने 550 ईसा पूर्व में किया था जिसमें उसको दर्दनाक पराजय का सामना करना पडा।
बाद में 516 ईसा पूर्व में साइरस के उत्तराधिकारी डेरियस प्रथम उर्फ दारा प्रथम ने भारी तैयारी के साथ पुन: आक्रमण किया और कम्बोज, पश्चिमी गांधार, सिंधु क्षेत्र पर विजय प्राप्त कर ली।
डेरियस ने इसे पारसी साम्राज्य का 20 वां प्रांत घोषित करके अपनी हुकूमत से लोगों का मांस नोचना शुरू कर दिया। इस ईरानी आक्रमण के बाद 326 ईसा पूर्व में मकदूनिया यानी मेसीडोनिया (यूरोप) के स्थानीय जमींदार सिकंदर ने आक्रमण किया।
सिकन्दर ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान के मध्य स्थित खैबर दर्रे से प्रवेश करके अश्वजीत, निशा, अश्वक आदि जनजातियों को हराते हुए तक्षशिला के राजा आम्भी सहित एक अन्य राजा शशिगुप्त को भी आत्मसमर्पण के लिए बाध्य कर दिया। बुलंद हौसले से बढ रही आक्रान्ता की सेना को पौरुष, झेलम और कर्री जैसे युद्धों में करारा जबाब मिला। आगे नन्द के शासक घनानंद की विशाल सेना पहले से ही तैयार खडी थी। आखिरकार सिकन्दर की सेना ने व्यास नदी से आगे बढ़ने से मना कर दिया।
मजबूरन सिकन्दर ने भारत के जीते हुए क्षेत्र को अपने सेनापति फिलिप के अधीन सौंपकर वापसी का रुख करना पडा। इसके बाद तो बाह्य आक्रान्ताओं के लिए ‘सोने की चिडिया’ लुट का केंद्र बन गई।
संपन्नता, सौहार्य और सहयोग की मानवता को कायरता के रूप में परिभाषित किया जाने लगा। अनेक क्रूर आक्रान्ता आये, मनमानियां की और गुलामी के नये नासूर पैदा करते रहे। मुहम्मद इब्न अल कासिम अल खराउ उमय्यद खलीफा का सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध क्षेत्र में आक्रमण करके वहां के तत्कालीन ब्राह्मण वंश के महाराज को पराजित किया और इस्लाम की स्थापना करके सन् 712 तक यानी अपनी मौत तक इस्लाम के विस्तार के लिए प्रयास करता रहा।
सन् 721 में अरबों ने, सन् 961 में अलप्तगीन (तुर्क) ने, सन् 977 में सुबुक्तगीन (तुर्क) ने, सन् 998 में महमूद गजनवी (तुर्क) ने, सन् 1175 में मुहम्मद गोरी ने, सन् 1398 में नासिर उल दीन महमूद शाह तुगलक सहित बाबर आदि ने अनेक आक्रमण ही नहीं किये बल्कि देश और देशवासियों को अपनी गुलामी की बेरहम जंजीरों में जकड़ कर निरंतर लहूलुहान भी किया।
सन् 1739 में नादिर शाह ने, सन् 1748 में अहमद शाह दुर्रानी ने भी अपनी करनी से मां भारती को रक्तरंजित किया। यूं तो सन् 1608 की 24 अगस्त को गोरों ने पहली बार देश की धरती पर सूरत से पैर पसारने शुरू कर दिये थे परन्तु सन् 1757 में प्लासी के युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद से उनके षड्यंत्र का क्रियान्वयन प्रत्यक्ष रूप से तेज हुआ।
बाद का घटनाक्रम तो लगभग हर भारतीय को कम-ज्यादा मालूम ही है। स्वाधीनता के मतवालों की लाशों पर कलंक कथा लिखने वाले भितरघातियों ने तो भौतिक उपलब्धियों के लिए अपने जमीर से, देश के आदर्श से और मानवता के सिद्धांतों से हमेशा ही समझौते किये।
गोरों ने आखिरी-आखिरी समय तक अपने षड्यंत्र को अंजाम देना नहीं छोडा। देश का विभाजन, विभाजन के बाद लाशों का अम्बार, जमीन के टुकडे और सत्ता के लिए लहू की होली, मजहब के झंडे के नीचे भीड़ जमा करने की खुराफात जैसे विष बीजों का रोपण करने के बाद आज भी देश के दुश्मनों की पीठ पर गोरों के या फिर गोरों की धरती से पढ-लिखकर आये लोगों के हाथ हैं।
यह संरक्षण आतंकवादियों से लेकर घोटालेबाजों तक को निर्विघ्न रूप से मिल रहा है। ऐसे में देश के वर्तमान ने अतीत की दुख:द दास्तानों से सीख लेकर अपना कायाकल्प करना शुरू कर दिया। पहले की इंडिया और आज के भारत में बहुत बड़ा अंतर आ गया है। अमेरिका से गेहूं मांगने वाला देश आज दुनिया की उदरपूर्ति के लिए जाना जाता है, दवाइयों-टीकों की सहायता के लिए जाना जाता है और जाना जाता है विपत्ति की घड़ी में देवदूत बनकर सहयोग करने के लिए।
यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि देश की वर्तमान नीतियों के कारण ही घुटनों पर आया पाकिस्तान का नया संस्करण कनाडा। अतीत की आवश्यक इबारत के ज्यादा विस्तृत हो जाने के कारण आतंकवाद के खालिस्तानी स्वरूप का विश्लेषण सम्भव नहीं हो पा रहा है। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
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