Tuesday - 29 October 2024 - 5:29 PM

भारत की गौरव पताका बन गया है बाबा साहब का नाम

के.पी. सिंह

समूची दुनियां में आज बाबा साहब अंबेडकर के नाम से भारत का गौरव बढ़ रहा है। भेदभाव के खिलाफ दुनियां के किसी भी कोने में सम्मेलन हो बाबा साहब के विचारों की चर्चा उनका अनिवार्य हिस्सा होता है। अमेरिका की कोलम्बिया यूनीवर्सिटी के ढाई सौ वर्ष के इतिहास में वे सबसे प्रतिभाशाली छात्र के रूप में मान्य किये गये हैं और इस उपलक्ष्य में उनकी प्रतिमा यूनीवर्सिटी प्रांगण में स्थापित की गई है। बौद्ध धर्म को मानने वाले देश संख्या में कई हैं। अपने जन्म स्थान भारत में विलुप्तप्राय हो चुके बौद्ध धर्म को पुर्नजीवन देकर सशक्त करने के योगदान के लिए ऐसे देश बाबा साहब को नमन करते हैं।

न्याय की मांग साबित हुई अपमान की वजह

यह अफसोस की बात है कि प्रारंभ से ही अपनी ऊंची और शोधपरक सोच रखने वाले बाबा साहब को अपने जीवन में उचित सम्मान मिलने की बजाय अपमान का सामना करना पड़ा। जन्म और कुल आधारित दुराग्रह व न्याय की चेष्टाओं की वजह से कदम-कदम पर उनका तिरस्कार किया गया।

उनको नकारने का क्रम उनके महाप्रयाण के बाद भी खत्म नही हुआ। आजादी के बाद लंबे समय तक उन्हें इतिहास के पटल पर आने से रोकने की कोशिश की गई। हालांकि साढ़े तीन दशक बाद भारत सरकार के कर्णधारों ने महसूस किया कि बाबा साहब के विचारों का संबल न लिए जाने से आजाद होकर भी देश आगे नही जा पा रहा है।

इसी प्रायश्चित भावना का परिणाम 1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न के रूप में अलंकृत किये जाने के बतौर सामने आया। यह एक ऐसा कदम था जिसने बाबा साहब की स्मृति को गर्त से ऊपर लाकर केंद्र बिंदु में स्थापित किया। इसका चमत्कारिक प्रभाव हुआ।

लोकतंत्र में संख्या बल पर शासन बनता है लेकिन सदियों से हताशा में जी रहा बहुसंख्यक वर्ग तब तक लोकतंत्र को इस देश के लिए केवल सजावटी व्यवस्था मान रहा था। अन्याय की जिस व्यवस्था को हजारों वर्ष तक नही भेदा जा सका था। यहां तक कि देश की गुलामी के पीछे बहुसंख्यक आबादी की मरणासन्न व्यवस्था का सच भी सामने आ गया था। फिर भी समाज का नियंत्रणकर्ता वर्ग सबक सीखने का तैयार नही हो सका था।

लोकतंत्र उस व्यवस्था में कोई कंपन पैदा कर पायेगा यह भरोसा बहुसंख्यक आबादी नही कर पा रही थी। उसका विश्वास था कि हाशिए पर छिटके तबकों को बहुमत में होने के बावजूद सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के लिए अभी कम से कम एक सदी का इतंजार करना पड़ेगा।

भारत रत्न मिलते ही बदल गया देश का परिदृश्य

लेकिन 1990 में बाबा साहब को मिले भारत रत्न के बाद कुछ दशक में ही परिदृश्य बदल गया है। हाशिये पर रहने को अपनी नियति मान बैठे वर्ग और जाति के नेता आज बहुतायत में सत्ता के शिखर पर हैं।

सत्ता के सामाजिक समीकरणों में बदलाव का देश की अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में हैसियत पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। मोहताज, दयनीय और पिछड़े देश की हैसियत से उबरकर भारत को दुनियां की नई महाशक्ति के रूप में मान्यता मिल चुकी है।

बाबा साहब के बारे में कई बाते हैं जो हर साल उनकी जयंती या निर्वाण दिवस पर दोहराई जाती हैं। लेकिन उनकी कुछ ऐसी विशेषताएं भी हैं जिन पर अभी पर्याप्त गौर नही हो पाया है।

कमाल का बड़प्पन

अछूत समुदाय में जन्म लेने की वजह से बाबा साहब को बार-बार जलील होना पड़ता था। इसे लेकर उनके मन में आखिर तक वेदना भी रही और आक्रोश भी। लेकिन उनके बड़प्पन ने कभी उन पर बदले की भावना को हावी नही होने दिया।

जिस वर्ग ने अछूत बनाये थे उस वर्ग को भी उन्होंने अपने विचारों की छतरी तले समेटने की कोशिश की। बाबा साहब का सरनेम अंबेडकर नही था। उनके पिता रामजी सकपाल लिखते थे।

उन्होंने बाबा साहब का दाखिला जब स्कूल में कराया तो अपने गांव के नाम पर उनका सरनेम अंबावडेकर लिखा दिया। बाबा साहब के शिक्षक महादेव अंबेडकर ब्राहमण थे जो उनसे बेहद स्नेह रखते थे।

उन्होंने बालक भीमराव के सरनेम अंबावडेकर को अटपटा महसूस करने की वजह से उन्हें अपना सरनेम दे दिया। बाबा साहब ने इसके बाद जीवन भर इसी सरनेम को अपनी पहचान में अभिन्न तौर पर जोड़े रखा।

अछूतों के संगठन में ब्राहमण

1927 में बाबा साहब क्रांतिकारी विद्रोही की भूमिका में थे और उन्होंने मनु स्मृति का दहन किया था तब बहिष्कृत हितकारिणी की जिस सभा में यह कदम उठाने का फैसला किया गया था उसमें सहस्त्रबुद्धे जी शामिल थे और उन्होंने ही इसका प्रस्ताव रखा था।

यह जानना दिलचस्प होगा कि सहस्त्रबुद्धे जाति से ब्राहमण थे। कहने की आवश्यकता नही कि बहिष्कृत हितकारिणी सभा के द्वारा बाबा साहब ने न्यायप्रिय ब्राहमणों के लिए भी खोल रखे थे।

अछूत और सवर्णों को बताया एक खून

जाति व्यवस्था की उत्पत्ति और उसके क्रूर होते गये स्वरूप के बारे में जब उन्होंने लिखा तो दूसरे की लकीर को मिटाने की बजाय एक बड़ी लकीर खींचने की कोशिश उन्होंने दिखाई।

उन्होंने अपनी स्थापना में सिद्ध किया कि अछूत और सवर्ण नस्ल के तौर पर एक हैं। उनमें खून का कोई भेद नही है। देश में आर्य, द्रविण, हूण और मंगोल नस्ल के लोग आये लेकिन जातियां तब बनी जब इन सबके बीच रोटी-बेटी के संबंध बन चुके थे और इनके मिश्रित रक्त का समाज बन चुका था।

फिर भाई ने दूसरे भाई के लिए इतनी बर्बरता क्यों दिखाई इसके एतिहासिक कारणों की अत्यंत मौलिक व्याख्या बाबा साहब ने की।

मजदूरों की सत्ता के लिए अभियान

उन्होंने राजनीति में अपनी पहली पार्टी का नाम इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी रखा। मजदूर तो हर जाति का होता है। बाबा साहब की धारणा थी कि अगर मजदूर वर्ग सत्ता में आ जाये तो ऐसी व्यवस्था की गुंजाईश नही रहेगी जिसमें किसी के साथ शोषण और अन्याय हो सके।

हालांकि, बाद में उन्होंने शैड्यूल कास्ट फैडरेशन के नाम से पार्टी बनाई जो कि जाति सूचक दल था। पर इसके पीछे उनका स्वैच्छिक प्रयास नही था। यह उनकी बाध्यता थी क्योंकि क्रिप्स मिशन ने कहा था कि वह बात करने के लिए उसी पार्टी को अवसर देगा जो किसी खास समुदाय का प्रतिनिधित्व करती हो।

आजादी की गोलमोल मांग के बीच अछूतों की आजादी का तकाजा कहीं दफन नही कर दिया जाये इससे चिंतित बाबा साहब के लिए क्रिप्स मिशन के सामने उनकी बात रखना अनिवार्य था। लेकिन जीवन के अंतिम समय में वे शैड्यूल कास्ट फैडरेशन को विसर्जित करके व्यापक अर्थ वाली रिपब्लिकन पार्टी के गठन की रूपरेखा बना चुके थे।

धर्म परिवर्तन के समय भी रहे बदले की भावना से परे

जब धर्म परिवर्तन का मुददा उनके सामने आया उस समय भी प्रतिशोध की भावना से ऊपर होने के कारण उन्होंने भारतीय समाज का अनर्थ न होने देने का ध्यान रखा। उन्होंने एक ऐसे धर्म को अपनाया जो भारत की धरती से शुरू हुआ था लेकिन ऐसा धर्म था जिसमें विश्व की किसी भी नस्ल और भाषा और जलवायु के लोगों को संबोधित करने और अनुयायी बनाने की क्षमता थी।

मातृभूमि के लिए बलिदान का संकल्प

बाबा साहब ने एक अवसर पर कहा था कि यह सही है कि उनका कुछ सवर्णों से झगड़ा है लेकिन वे यह प्रतिज्ञा करते हैं कि अपनी मातृ भूमि की सुरक्षा के लिए अपना जीवन भी बलिदान करने से पीछे नही हटेगें। जब उन्हें संविधान बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई तो साबित हो गया कि दलित होकर भी उनमें पूरे समाज का नेतृत्व करने की क्षमता है क्योंकि उन्होंने समग्रता में चिंतन करना जाना है। जबकि दलितों के बारे में इसके विरुद्ध धारणा बनाई जाती है।

आर्थिक क्षेत्र में योगदान

उनका दखल विविध क्षेत्रों में था। समाजशास्त्री, राजनीतिशास्त्री, विधिवेत्ता के अलावा वे बड़े अर्थशास्त्री भी थे। डा. अंबेडकर अर्थशास्त्र में पीएचडी करने वाले पहले भारतीय थे। रिजर्व बैंक की स्थापना, वित्त आयोग का गठन उन्ही की अवधारणाओं का परिणाम था।

दायरे से ऊपर उठकर काम करने की चुनौती

बाबा साहब का अनुकरण करने की अपेक्षा रखने वाले दलित समुदाय को उनके इसी बड़प्पन के अनुरूप कार्य करने की रणनीति बनानी चाहिए। अपने को किसी दायरे में बांधना या अपने समुदाय के हितों तक सीमित कर लेना यह भावना बाबा साहब के संकल्प के विरुद्ध है और कहीं न कहीं कमजोर या हीनभावना को दर्शाती है।

उनके अभियान पूरे समाज को न्याय और संरक्षण प्रदान करने के लिए आश्वस्ति देने वाले हों यह बेहद जरूरी है क्योंकि समग्र समाज का नेतृत्व करने की उनकी क्षमताओं पर कोई प्रश्न चिन्ह नही है।

व्यक्ति पूजा और देश सेवा अलग-अलग

बाबा साहब ने कहा था कि कभी तो इस देश के लोग यह सोचना सीखेंगे कि देश और व्यक्ति अलग-अलग हैं। मिस्टर गांधी या मिस्टर जिन्ना की पूजा अलग चीज है और देश सेवा अलग। बल्कि कभी-कभी तो व्यक्ति पूजा देश सेवा के विरुद्ध भी हो सकती है। आधुनिक संदर्भ में दलित समाज को उनके इस सूत्रवाक्य की भी व्याख्या करते रहना चाहिए।

साधारण छात्र से असाधारण विद्वान बनने तक का सफर

बाबा साहब मैट्रिक पास करने वाले देश के पहले दलित छात्र थे। इस नाते उनका अभिनंदन भी किया गया था। लेकिन यह जानना दिलचस्प होगा कि पढ़ने में उनकी मैरिट एवरेज से भी कम थी। उन्हें पासिंग मार्कस मिले थे। यह कोई चमत्कार नही था कि विदेश में जाकर उनमें असाधारण प्रतिभा आ गई।

यहां के हतोत्साहित करने वाले यातनापूर्ण परिवेश में उनकी प्रतिभा का अंकुरण बहुत मुश्किल से हो पा रहा था और जब वे अमेरिका पहुंचे तो खुले माहौल की वजह से उनकी प्रतिभा पूरी तरह निखर कर सामने आ गई। माहौल का प्रतिभा विकास से बहुत गहरा संबंध है।

जातिगत हिकारत का माहौल अब ढीला हो रहा है तो बाबा साहब के सच्चे अनुयायी होने के नाते दलित समाज को प्रतिस्पर्धी होने की चुनौती स्वीकार करनी चाहिए। अगर वे इच्छा शक्ति जागृत कर लें तो जनरल मैरिट में वैसे ही बाहुल्य में स्थान बना सकते हैं जैसे बाबा साहब ने विदेश में पहुंचकर कर दिखाया था।

आरक्षण की व्यवस्था समाप्त करने की मांग से इस सुझाव का कोई संबंध नही है लेकिन वे अगर इस संभावना को फलीभूत करते हैं तो दलित समाज में नये आत्म विश्वास का उदय होगा। इससे समग्र समाज का नेतृत्व करने की उनकी क्षमता को मान्य करने की स्थितियां प्रशस्त होंगीं।

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