कृष्णमोहन झा
नए कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली में लगभग तीन सप्ताह से जारी किसान आंदोलन को समाप्त कराने के लिए सरकार से जो बन सकता था वह सब उसने किया। किसान संगठनों के प्रतिनिधियों के साथ केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बातचीत शुरू की फिर उनके साथ केंद्रीय रेलमंत्री पियूष गोयल भी जुड़ गए।
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भी अपने निवास पर किसान संगठनों के नेताओं को बुला कर बातचीत से समस्या का हल निकालने की कोशिश की परंतु प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विश्वासपात्र ये वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री किसानों को यह समझाने में सफल नहीं हो पाए कि मोदी सरकार ने जो नए कृषि कानून बनाए हैं वे केवल किसानों के आर्थिक हितों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं इसलिए इन कानूनों में शामिल किसी भी प्रावधान से किसानों को सशंकित होने की जरूरत नहीं है।
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केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने किसानों को यह आश्वासन भी दिया कि नए कृषि कानूनों के लागू होने के बाद भी मंडियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उत्पादों की खरीद की वर्तमान व्यवस्था के जारी रहने के बारे में सरकार लिखकर देने के लिए भी तैयार है परन्तु किसानों को उनका कोई भी प्रस्ताव मंजूर नहीं है।
किसान इस बात पर अड़े हुए हैं कि सरकार नए कृषि कानूनों को रद्द कर किसानों की सहमति से कृषि कानून बनाए तभी उनका यह आंदोलन समाप्त होगा लेकिन इस स्थिति की तो कल्पना भी असंभव है कि सरकार नए कृषि कानूनों को रद्द करने पर विचार करने के लिए भी कभी तैयार हो सकती है।
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आंदोलनकारी किसान अगर ऐसी कोई उम्मीद लगाए बैठे हैं तो उन्हें निराशा ही हाथ लगना है। नए कृषि कानूनों में कुछ संशोधनों की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता परंतु इतना तो तय है कि सरकार इन कानूनों में ऐसे किन्हीं संशोधनों के लिए भी राजी नहीं होगी जिनसे कृषि कानूनों का स्वरूप ही बदल जाए। इस समय केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गत वर्ष जब अपने दूसरे कार्यकाल के लिए अपने मंत्रिमंडल का गठन किया था तब उन्होंने नरेन्द्र सिंह तोमर को कृषि मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपकर उनकी कार्यक्षमता और सूझबूझ पर जो भरोसा जताया था उस भरोसे की कसौटी पर खुद को हमेशा खरा साबित करने में तोमर ने कभी कोई कसर नहीं छोड़ी है और यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी को आज भी यह भरोसा है कि नए कृषि कानूनों के अस्तित्व में आने के बाद पंजाब और हरियाणा के किसानों ने आंदोलन का जो रवैया अख्तियार कर लिया है उसका सर्वमान्य हल निकालने में तोमर अवश्य सफल होंगे।
इसमें दो राय नहीं हो सकती कि दिल्ली में किसानों का आंदोलन जल्द समाप्त होने के भले ही फिलहाल कोई आसार नजर नहीं आ रहे हों परंतु क़ृषि मंत्री तोमर नए कानूनों के बारे में उनकी आशंकाओं के निराकरण के लिए हरसंभव कोशिश में जुटे हुए हैं। देश के दूसरे राज्यों से किसान संगठनों के जो नेता उनसे मिलकर इन कानूनों के प्रति अपना जो समर्थन व्यक्त कर रहे हैं उससे सरकार का मनोबल बढ़ा है।
केंद्रीय कृषि मंत्री ने अब दूसरे राज्यों में किसानों के बीच जाकर उन्हें नए कृषि कानूनों की बारीकियों से अवगत कराने जो सिलसिला प्रारंभ किया है वह किसानों के मन में समाए भय को दूर करने में मददगार साबित हो सकता है।
गौरतलब है कि गत दिवस केंद्रीय कृषि मंत्री ने मध्यप्रदेश के ग्वालियर अंचल के किसानों के सम्मेलन को संबोधित कर उन्हें नए कृषि कानूनों के बारे में भ्रमित न होने के लिए सचेत किया था जहां उनके साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया की मौजूदगी उल्लेखनीय मानी जा रही है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी किसानों के सम्मेलन को संबोधित कर उन्हें विपक्ष के भ्रामक प्रचार से सावधान किया है। भाजपा ने देश में इसी तरह किसानों के सम्मेलन आयोजित करने का जो फैसला किया है उससे यही जाहिर होता है कि मोदी सरकार कृषि सुधार की दिशा में आगे बढ़ चुके कदमों को पीछे खींचने के लिए कतई तैयार नहीं है लेकिन सरकार को इन सुधारों के पक्ष में सारे देश के किसानों का समर्थन करने के लिए अभी और मशक्कत करनी पड़ेगी।
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इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि दरअसल जो काम सरकार को जून में कृषि अध्यादेश जारी करने के पहले करना चाहिए था उसकी अनिवार्यता का अहसास सरकार को किसानों का आंदोलन शुरू होने के बाद हुआ है। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने संसद में तीनों क़ृषि विधेयकों को पेश किए जाने के बाद बार बार यह कहा है कि किसानों की सारी शंकाओं का समाधान करने के लिए उनके मंत्रालय के द्वार हमेशा खुले है। इन कानूनों के किसी भी प्रावधान के बारे मै देश के किसी भी किसान के मन में कोई शंका हो तो वह उनसे कभी भी मिल सकता है।
ऐसे में आंदोलनकारी किसानों का यह सवाल स्वाभाविक है कि सरकार की ओर से केंद्रीय क़ृषि मंत्री उनसे बातचीत करने के लिए हमेशा तैयार रहने का अगर आज भरोसा दिला रहे हैं हैं तो सरकार ने जून में कृषि अध्यादेश जारी करने से पहले किसानों की राय लेने की आवश्यकता क्यों नहीं समझी। एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि सरकार को अध्यादेश जारी करने के बदले सीधे संसद में ही कृषि विधेयक पेश करने का विकल्प क्यों उचित प्रतीत नहीं हुआ। इससे यही संदेश मिलता है कि कृषि मंत्री तोमर भी संसद में इन तीनों विधेयकों के आसानी से पारित होने के बारे में निश्चिंत नहीं थे।
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राज्यसभा में विपक्ष के हंगामे के बीच ध्वनि मतदान से कृषि विधेयकों के अनुमोदन ने भी कई सवालों को जन्म दे दिया। शायद कृषि मंत्री यह अनुमान लगाने में चूक गए कि निकट भविष्य में ही नए कृषि कानून किसानों को केंद्र सरकार के विरुद्ध एक बड़ा आंदोलन खड़ा करने का अवसर उपलब्ध करा देंगे। देश के इस समय भाजपा के लगातार बढ़ते जनाधार के सामने अधिकांश विपक्षी दल जिस तरह असहाय नजर आ रहे हैं उसे देखते हुए अगर विपक्ष को किसान आंदोलन में ही अपना कोई राजनीतिक हित नजर आ रहा है तो वे भला इस मनचाहे अवसर का लाभ उठाने से क्यों चूकेंगे।
दरअसल किसान आंदोलन का समर्थन करके विपक्ष केवल अपनी खोई हुई जमीन हासिल करना चाहता है। इसीलिए विपक्षी दलों ने किसान संगठनों के भारत बंद के आह्वान का समर्थन किया और आज वे खुद को किसानों का हितैषी साबित करने की कोशिश में जुटे हुए हैं लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि दुनिया भर की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनने का गौरव हासिल कर चुकी भाजपा को क्यों यह डर सता रहा है कि मुट्ठी भर विपक्षी दलों में भी किसानों को भ्रमित करने की क्षमता हो सकती है।
अगर नए कृषि कानूनों में ऐसा कुछ भी नहीं है कि उससे किसानों के मन में उनकेआर्थिक हितों को चोट पहुंचने की आशंका जन्म ले सकती है तो सरकार किसानों की सारी आशंकाओं का निवारण करने की पहली जिम्मेदारी सरकार और केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी तथा केंद्रीय कृषि मंत्री की ही बनती है। यह संतोष की बात है कि सरकार की ओर से यह पहल शुरू हो चुकी है।अब यह सुप्रीम कोर्ट में पहुंच चुका है और उसकी यह चिंता भी स्वाभाविक है कि अगर किसानो का मसला जल्द नहीं सुलझा तो यह राष्ट्रीय मुद्दा बन जाएगा।
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