प्रीति सिंह
पिछले कुछ दिनों से ग्लोबल वार्मिंग पर खूब बहस हो रही है। दरअसल ग्लोबल वार्मिंग से मचने वाली तबाही पर चर्चा हो रही है। पूरी दुनिया के पर्यावरणविद् और वैज्ञानिक ग्लेशियर के पिघलने की वजह से चिंतित हैं। पिछले दिनों एक ग्लेशियर की मौत पर दुनियाभर के वैज्ञानिकों ने मातम मनाया था। अब दुनिया के सबसे बड़े द्वीप ग्रीनलैंड में रिकार्ड गर्मी की वजह से बर्फ के पिघलने पर वैज्ञानिक चिंतित हैं। हजारों सालों से यह कई किलोमीटर मोटी बर्फ की चादर से ढ़का हुआ है, लेकिन जलवायु परिवर्तन की वजह से इस पर खतरा मंडरा रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि वर्ष 2100 तक सागरों में तीन से चार फीट पानी अकेले ग्रीनलैंड में पिघलने वाली बर्फ से बढ़ सकता है, जो दुनिया के कई हिस्से के डुबोने के लिए काफी है।
यह बड़ी चेतावनी है। शायद आम आदमी ग्लेशियर के पिघलने पर संजीदा न हो, लेकिन यह पृथ्वी को बचाने का अलार्म है। इस अलार्म से भी हमारी नींद नहीं टूटी और हम पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर सचेत नहीं हुए तो यह तय है कि पृथ्वी का विनाश कोई नहीं रोक पायेगा।
जलवायु परिवर्तन की वजह से आइसलैंड ने अपने एक ग्लेशियर को खो दिया। अपनी पहचान और अस्तित्व खोने वाला आइसलैंड का ओकजोकुल दुनिया का पहला ग्लेशियर बन गया है। ओकजोकुल को लोग ओके भी कहते हैं। हालांकि वर्ष 2014 में इसने ग्लेशियर का दर्जा खो दिया था। 700 साल पुराना ओकजोकुल ग्लेशियर, आइसलैंड देश के सबसे प्राचीन ग्लेशियरों में से एक था। फिलहाल अब वहां पर कुछ बर्फ के टुकड़े ही बचे हैं। वहीं हाल के दिनों में एक शोध में सामने आया था कि ग्रीनलैंड में ग्लेशियर पिछले 350 वर्षो की अधिकतम गति से पिघल रही है। यदि ऐसा ही होता रहा तो आने वाले दो दशक में समुद्रतल के बढऩे का सबसे बड़ा कारक यही होगा।
जलवायु परिवर्तन के असर को सबसे पहले ग्रीनलैंड के लोगों ने ही महसूस किया। उन्हें जलवायु में बदलाव का एहसास समुद्र के बढ़ते जल स्तर के साथ-साथ आर्कटिक की पिघलती बर्फ से हुआ। वैज्ञानिकों ने हाल के दिनों में दुनिया के सबसे बड़े इस द्वीप पर बड़े पैमाने पर बर्फ पिघलने की घटना दर्ज की। एक अगस्त को मात्र 24 घंटे में ग्रीनलैंड की आइस शीट से 1100 करोड़ टन बर्फ पिघल कर समुद्र में चला गया। पिघलने वाली बर्फ की मात्रा 40 लाख ओलंपिक स्विमिंग पूल के बराबर है। इसकी भयावहता को आप ऐसे समझ सकते हैं। ओलंपिक स्विमिंग पूल की लंबाई लगभग 164 फीट, चौड़ाई 82 फीट और गहराई 6 फीट होती है। इसमें कुल 660,253.09 गैलन पानी आ सकता है। 2005 से अब तक ग्रीनलैंड में हेलहाइम इलाके में ग्लेशियर दस किलोमीटर से ज्यादा सिमट गया है।
जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की वजह से पर्यावरण को बहुत नुकसान हो रहा है। इसका खामियाजा पृथ्वी पर उपस्थिति जीव-जंतु, पेड़-पौधे, नदियां-समुद्र के साथ-साथ मनुष्य भुगत रहा है। वैज्ञानिक दशकों से मनुष्य को इस समस्या के प्रति आगाह कर रहे हैं लेकिन विकास की अंधी दौड़ में मनुष्य को कुछ नहीं दिखाई दे रहा है। ग्लेशियरों के पिघलने के लिए ग्रीन हाउस गैसों को वैज्ञानिकों ने जिम्मेदार ठहराया है। स्थिति इतनी गंभीर हो चुकी है कि अगर हम ग्रीन हाउस गैसों का प्रयोग शून्य कर दें तो सामान्य स्थिति लाने में दो सदी लग जायेगी, मतलब दो सौ साल।
ग्लेशियर क्यों पिघल रहे है इसको लेकर लगातार शोध हो रहा है। दुनिया भर के वैज्ञानिक इसकी वजह और इसे रोकने का उपाय तलाश रहे हैं। ग्लेशियर का तेजी से पिघलना 1990 के दशक के शुरुआत में शुरु हुआ। इसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं। औद्योगिक क्रांति के बाद ही ग्रीन हाउस गैसों और कार्बन डाइऑक्साइड के अत्यधिक प्रयोग और उसके उत्सर्जन के कारण ही यह सब हो रहा है। कार्बन उत्सर्जन के कारण तापमान में हुई वृद्धि ग्लेशियर को नुकसान पहुंचा रहे हैं।
स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि अगर हम आने वाले समय में कार्बन उत्सर्जन पर बहुत अधिक अंकुश लगाते भी हैं तो वर्ष 2100 से पहले दुनिया के शेष ग्लेशियरों की एक तिहाई से धिक संख्या पिघल जाएगी। पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि उत्सर्जन में अनियंत्रित वृद्धि जारी रहती है, तो वर्ष 2040 तक आर्कटिक गर्मियों में बर्फ मुक्त हो सकता हैं।
ग्लेशियर का पिघलना कितनी बड़ी तबाही ला सकता है, इसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल है। ग्लेशियर पिघल कर समुद्र का जलस्तर बढ़ाते हैं, जिसकी वजह से तटीय क्षरण बढ़ता है। इसकी वजह से तीव्र तटीय तूफान पैदा होते रहते हैं, क्योंकि समुद्र के तापमान में वृद्धि होती है और गर्म हवाएं बहुत वेग में रहती हैं। समुद्र की धाराएं पूरी दुनिया के मौसम के मिजाज को प्रभावित करती हैं। ये समुद्री जीव-जंतुओं को तो प्रभावित करती ही हैं साथ ही समुद्र से जुड़े व्यवसाय को भी प्रभावित करती हैं।
ग्लेशियर के पिघलने से सबसे ज्यादा जैव विविधता को नुकसान पहुंचता है। ग्लेशियरों के पिघलने से ताजे पानी की मात्रा में भी कमी आ सकती है और सबसे बड़ी समस्या वैश्विक तापमान में वृद्धि हो सकती है। इसीलिए वैज्ञानिक ओकजोकुल ग्लेशियर की मौत पर मातम मना रहे थे और लोगों को पर्यावरण बचाने के लिए आगाह कर रहे थे। अब आप कल्पना करिए की दुनिया भर के ग्लेशियर पिघल कर समुद्र में पहुंच गए तो इस पृथ्वी क्या होगा?
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