प्रो. हर्ष कुमार सिन्हा
थोड़ी देर पहले ही अनुज उत्कर्ष की पोस्ट से ये तकलीफदेह खबर मिली कि चितरंजन भइया नहीं रहे। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के ख्यातनाम योद्धाओं में से एक चितरंजन सिंह उन बिरले लोगों में थे जिन्होंने विचार सिर्फ बोले नहीं उन्हें जिया भी।
उनके छोटे भाई पत्रकार मनोरंजन सिंह मेरे मित्र थे। गोरखपुर के तुर्कमानपुर इलाके में उनकी बहन रहती थीं। उसी पहली मंजिल के मकान में भइया से मुलाकात होती रहती थी। वे सतत धावक योद्धा थे। एक पैर हमेशा सफर में रहता था। वे दुनिया भर के लिए जुझारू कामरेड थे मगर उनके पास बैठने पर पितृतुल्य छाया मिलती थी। हम जैसे न जाने कितने लोगों ने उनसे मानव अधिकार का असली मर्म और दर्शन सीखा।
मुझे याद है कि 2002 में अचानक एक दिन सूझा कि मानव अधिकार के शास्त्रीय विवेचन के साथ साथ उसके व्यावहारिक दर्शन पर केंद्रित एक किताब भी आनी चाहिए जिसमें उन लोगों के भी लेख हों जो जमीन पर इसकी लड़ाई लड़ रहे हों। जिद ये भी थी कि ये किताब एक महीने में निकल जाए। देश के कुछ ख्यातनाम विद्वानों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और अधिवक्ताओं ने इतने कम समय की सीमा के बावजूद अपने विद्वतापूर्ण आलेख भेजे और किताब प्रकाशित हो गयी।
चितरंजन भइया ने आग्रह के तीसरे दिन लेख भेज दिया था। कम समय मे इतना प्रभावशाली लेख। धन्यवाद देते समय इतने त्वरित अनुग्रह की चर्चा की तो बोले-‘ हमनी का प्रोफेसर ना न हईं जा कि छान फटकार आ सुखइला के बाद कउनो बात कहल जाय। जौन बुझाला ओके लिखला में केतना टाइम लागेला भाई।’
उनकी बातों की तरह ही उनकी देह में भी एक गजब ओज और आवेग था। फिर देह थकती गयी। उनका इधर आना जाना भी क्रमश: कम होता गया। कई निजी और पारिवारिक व्यस्तताओं ने उन्हें घेर लिया। मनोरंजन भाई से कभी कभी हाल चाल मिलता था। इसीलिए पिछले साल अप्रैल के आखिरी हफ्ते में जब श्रमजीवी पत्रकार यूनियन बलिया ने एक गोष्ठी में आमंत्रित किया और मनोरंजन जी का भी फोन आया कि भइया(चितरंजन जी) भी रहेंगे तो मेरा जाना और पक्का हो गया।
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1 मई को उस कार्यक्रम में वे खराब तबीयत के बावजूद आये। उन्हें सहारा देकर उठाया बिठाया जा रहा था। मैंने पैर छुए तो सीधे अम्मा की तबियत और उत्कर्ष का हाल चाल पूछने लगे। राज्यसभा के माननीय उपसभापति, वरिष्ठ पत्रकार और उनके आत्मीय मित्र हरिवंश जी मुख्य अतिथि के बतौर मंच पर थे।
हरिवंश जी से मेरे बारे में जो उन्होंने कहा वह मेरे लिए किसी पद्म सम्मान से ज्यादा कीमती और अविस्मरणीय है। मैं कतई उस योग्य नहीं। यह उनका स्नेह पगा आशीष था। आयोजकों ने उन्हीं के हाथों मुझे स्मृति चिह्न दिलवाया। उन्होंने मेरे सिर पर अपनी स्नेहसिक्त हथेलियां फिरायीं। उस क्षण मुझे दिवंगत पिता की याद आ गयी थी।
उस दिन दिक्कत बढऩे पर वे कार्यक्रम समाप्त होने से थोड़ा पहले ही सभागार से चले गए थे। जाते वक्त पैर नही छू सका था। अब कभी छू भी नहीं पाऊंगा।
आदमी की जिंदगी उन लम्बी सड़कों की तरह होती है जिस पर कहीं-कहीं किनारे लगे छायादार दरख्त उसके जिस्म के उस हिस्से को न केवल तीखी धूप और चांटे मारती बारिश से बचाते रहते है बल्कि उसे एक ऐसा वातावरण भी देते है जहां लोग बाग ठहरते है। अपने होने की रस्म निभाती वीरान सड़कें उन हिस्सों में झूम उठती है। खिलती, खिलखिलाती और जिंदगी जीती हुई दिखती हैं। मेरे जैसे न जाने कितनी सड़कों से एक छायादार दरख्त आज टूट गया है।
अंतिम प्रणाम भइया।
(प्रो. हर्ष कुमार सिन्हा गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है और बतौर स्वतंत्र पत्रकार सक्रिय रहते हैं )
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