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डंके की चोट पर : दिल्ली के फुटपाथ पर सो रहा है आख़री मुग़ल बादशाह का टीचर

शबाहत हुसैन विजेता

हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े बयां और.

यह मिर्ज़ा ग़ालिब का शेर है. उन्हें असद उल्ला खां ग़ालिब के नाम से पहचाना जाए, दबीर-उल-मुल्क के नाम से जाना जाए या फिर नज्म-उद-दौला की शक्ल में पहचाना जाए, क्या फर्क पड़ता है. अपनी शायरी के दम पर वह मील का ऐसा पत्थर बन गए जिस पर लिखी इबारत सदियों नहीं मिट सकेगी.

मिर्ज़ा ग़ालिब दरबारी शायरों की फेहरिस्त का हिस्सा होकर भी इस मुकाम पर कैसे पहुंचे इस बात को समझना बहुत ज़रूरी है. मिर्ज़ा ग़ालिब आख़री मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर के दरबार के शायर थे. बहादुर शाह खुद बहुत शानदार शायर थे. भारत में अंग्रेजों के जमते पाँव उखाड़ते-उखाड़ते वो खुद बादशाह से कैदी बन गए थे. रंगून में कैद में रहते हुए उन्होंने आख़री सांस ली थी.

उर्दू शायरी का ज़िक्र जैसे ही छिड़ता है तो जो नाम ज़ेहन में सबसे पहले आता है वो नाम मिर्ज़ा ग़ालिब का है. 27 दिसम्बर 1797 को पैदा हुए मिर्ज़ा ग़ालिब ने सिर्फ ग्यारह साल की उम्र में उर्दू और फारसी में शायरी शुरू कर दी थी. वह जैसे-जैसे बड़े होते गए वैसे-वैसे उनकी शायरी की खुशबू ज़माने में फैलती चली गई.

मिर्ज़ा ग़ालिब जब सिर्फ पांच साल के थे उनके सर से बाप का साया छिन गया. कुछ दिन बाद उनके चाचा भी उन्हें छोड़कर चले गए. चाचा सेना में बड़े अधिकारी थे. उनकी पारिवारिक पेंशन से उनकी परवरिश हुई. बचपन से ही उन्हें कोई अच्छा-बुरा सिखाने वाला नहीं था. शराब और जुए की लत भी उनकी साथी बन गई. यह ऐसी लत थी जिसने उनके सामने पैसों की कमी का पहाड़ खड़ा कर दिया.

तमाम मुसीबतों के बावजूद एक अच्छी बात यह थी कि उन्होंने उर्दू, फारसी और तुर्की की काफी पढ़ाई की और सिर्फ ग्यारह साल की उम्र में उम्दा शेर लिखने लगे. अपनी काबलियत के बल पर वह बहादुर शाह ज़फर के दरबार में बाहैसियत टीचर गए थे.

 

बादशाह के दरबार में जाने तक उनका हाथ बहुत तंग रहा. चाचा की पेंशन कोलकाता में मिलती थी और वह दिल्ली में रहते थे. पेंशन का एक बड़ा हिस्सा लम्बे सफ़र में ही खर्च हो जाता था. अच्छी-बुरी सोहबत ने उन्हें दुनिया की हकीकत को बहुत करीब से दिखाया. वही हकीकत शायरी में ढली तो ग़ालिब शायरी का एवरेस्ट बनते चले गए.

तीस साल की उम्र तक आते-आते ग़ालिब दिल्ली से लेकर कोलकाता तक पहचाने जाने लगे थे. अदब की दुनिया में उनका नाम बड़ी इज्जत से लिया जाने लगा था. उनकी शायरी एक तरफ उन्हें पहचान दिला रही थी तो दूसरी तरफ उनकी रोजी-रोटी का जरिया भी बनती जा रही थी. उनकी शायरी का मेयार ऐसा था कि बादशाहों से लेकर मौलवियों और पंडितों सबके दिलों में उनकी ख़ास जगह बनती जा रही थी. 53 साल की उम्र में बादशाह बहादुर शाह ज़फर ने उन्हें दबीर-उल-मुल्क के खिताब से नवाज़ा और एक साल बाद ही अपने दरबार में अपने टीचर की हैसियत से बुला लिया.

बहादुर शाह ज़फर के बादशाह रहने तक मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़िन्दगी बहुत शानदार गुज़री लेकिन अंग्रेज़ी हुकूमत आ गई तो उनके दिन फिर पहले जैसे ही हो गए. उनके पास जो भी था वह शराब की नज़र हो जाता था. अंग्रेज़ी हुकूमत में उन्हें कभी पूरी पेंशन भी हासिल नहीं हो पाती थी.

ग़ालिब ने जब होश संभाला था तब से परेशानियां और मुसीबतें सही थीं. बड़ी उम्र में उन्हें बादशाह की कुर्बत भी हासिल हुई लेकिन ज़िन्दगी की हकीकत को ग़ालिब ने जिस करीने से समझा उसे समझ पाना बहुत आसान बात नहीं है. न तो उन्हें कभी अपनी गरीबी और मुश्किलों का अफ़सोस था और न ही बादशाह के दरबार में रहने का घमंड.

उनकी शायरी में ज़िन्दगी की वह हकीकत देखने को मिलती है जो आमतौर पर किसी दूसरे शायर में नज़र नहीं आती. ग़ालिब जानते थे कि उनकी काबलियत की ज़माने में जितनी इज्जत है उतनी ही उनकी शराब की लत की वजह से उनकीं बदनामी भी है. वह अपनी बदनामी और अपनी मकबूलियत दोनों का साथ-साथ लुत्फ़ लेना जानते थे. उनका एक शेर उनके दिमाग के हालात को बहुत शानदार तरीके से दिखाता है :-

होगा कोई ऐसा भी जो ग़ालिब को न जाने
शायर तो वो अच्छा हा पर बदनाम बहुत है.

ग़ालिब जानते थे कि जो ज़िन्दगी मिली है वो खत्म भी हो जानी है. यह दुनिया मर जाने के बाद मरने वाले की अच्छाइयां तलाशने की कोशिश में जुट जाती है. अपनी इस सोच को शेर में ढालते हुए ग़ालिब ने लिखा था:-

जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है.

मिर्ज़ा ग़ालिब दिल्ली में चांदनी चौक इलाके में बल्ली मारान की एक हवेली में रहा करते थे. इस हवेली में उनकी मूर्ति और उनके बड़े से हाल की दीवारों पर सजे उनकी शायरी के बड़े-बड़े फ्रेम उनके कद का आज भी अंदाजा कराते हैं मगर हजरत निजामुद्दीन औलिया की मज़ार पर जाने वाले रास्ते के मोड़ पर बनी उनकी कब्र भी काफी कुछ कह जाती है. लाल पत्थरों के फर्श पर बनी मार्बल की कब्र के पास आमतौर पर सन्नाटा पसरा रहता है.

मिर्ज़ा ग़ालिब जैसा शायर कई सदी में एक बार पैदा होता है. ग़ालिब की काबलियत की ज़माने ने कद्र भी खूब की. जिसने बचपन में अपने बाप और चाचा को खो दिया. जिसका बचपन मुफलिसी में गुज़रा. जिसे बचपन में ऐसी संगत मिली जिसने शराब और जुए से दोस्ती करवा दी. वह अपनी शानदार शायरी के बल पर मुल्क के बादशाह का टीचर बना. दरबार का शायर बना. मगर वह जानता था कि :-

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक

मिर्ज़ा ग़ालिब की मज़ार के सामने खड़े होइये तो लगता है जैसे ग़ालिब खुद भी खड़े होकर अपनी मज़ार देख रहे हों और कह रहे हों :-

बाज़ीचा-ए-अत्फाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे.

ग़ालिब सदी का शायर. सिर्फ 72 साल में दुनिया छोड़ गया. आज उनकी हवेली भी बाज़ार में है और मज़ार भी रास्ते पर है. हजरत निजामुद्दीन औलिया की मज़ार पर माथा टेकने लोग इसी राह से गुजरते हैं मगर कोई एक फूल भी यहाँ नहीं चढ़ाता. यहाँ से गुजरने वालों में शायद दो-चार फीसदी ही यह जान पाते होंगे कि इस रास्ते पर सदी का वो शायर सो रहा है जिसकी चिट्ठियों पर आज भी रिसर्च हो रही है. उसके लिखे पर आज भी लोग फ़िदा हैं. आज भी लोग इस बात को मानने से इनकार नहीं कर पाते कि :-

तुम न आये तो क्या सहर न हुई,
हां मगर चैन से बसर न हुई.
मेरा नाला सुना ज़माने ने,
एक तुम हो जिसे खबर न हुई.

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