शुभ्रा सुमन
उसने खिड़कियां बंद कर दीं और पर्दा गिरा दिया.. दिन में अंधेरे की अनुभूति अद्भुत होती है.. संसार का अंधकार सजीव हो उठता है.. रोशनी में जो घटता है उसमें एक तरह का स्याहपन है.. अंधेरा सिर्फ अंधेरा है.. उसमें दुनियावी आडंबर और संकरता नहीं है.. अंधेरा ही सत्य है.. अंधेरा ही सर्वविद्यमान है.. उजाला संसार में मनुष्यता की तरह विलुप्त होता जा रहा है..
आसपास पसरे एकांत ने शब्द के अंत:करण को उधेड़ना शुरू कर दिया था.. कमरे में अंधकार पसरा हुआ था जो भीतर उमड़ रहे तूफान के साथ मिलकर एक अजीब सी सिहरन पैदा कर रहा था.. सोच और समझ की सब लकीरें एक-दूसरे के साथ मिलकर गडमड सी कुछ आकृतियों में तब्दील हो गई थीं.. शब्द को लगा कि अंधेरे कमरे की सीलिंग पर वो आकृतियां छोटे दैत्यों की तरह चहलकदमी कर रही हैं.. उसे मुक्तिबोध की कविता याद आई.. कुछ साल पहले ही तो उसने पढ़ी थी.. ब्रह्मराक्षस.. पढ़कर एक गहरे अवसाद ने उसके मन को घेर लिया था.. ये क्या हो रहा है उसके साथ.. क्या अंधेरे में दिख रहे नन्हें दैत्य उसके भीतर के ब्रह्मराक्षस हैं.. असंतुष्ट, क्षुब्ध, कुपित.. लेकिन ये कैसा असंतोष है.. किस बात का क्षोभ.. क्रोध का कारण क्या है..
कुछ देर तक उन आकृतियों को निहारने के बाद शब्द का ध्यान भंग हुआ.. अंधेरे में उसका फोन दीप्तिमान हो उठा था.. जैसे अंधेरी रात में आसमान का चांद.. लेकिन चांद की चांदनी कहां चुभती है.. फोन की लाइट आंखों को ऐसी पीड़ा दे रही थी जैसे दिनभर की थकान में चूर स्वप्नलोक के सैलानी कामगार की आंखों में किसी ने टॉर्च की पीली रोशनी फेंक दी हो.. उसने देखा.. साहिल का फोन था..
फोन की स्क्रीन पर साहिल का नाम फ्लैश हो रहा था.. हल्की रोशनी के साथ उसका सेलफोन हौले-हौले वाइब्रेट हो रहा था.. सहसा उसने पाया कि कोई जादू हुआ है.. फोन की वाइब्रेशन पूरे कमरे में किसी ख़तरनाक वायरस की तरह फैल गई है.. कमरे का दरवाज़ा, खिड़की के पर्दे, पास रखी आलमारी, टेबल, किताबें सब वाइब्रेट हो रहे हैं.. उसका बदन भी अछूता नहीं है.. पूरे शरीर में एक अजीब सी थर्राहट पैदा हो रही है.. वो स्तब्ध थी.. जड़ होकर फोन को तबतक देखती रही जब तक बेल बजनी बंद नहीं हुई..
साहिल और शब्द सिर्फ नाम दो थे.. शब्द के लिए साहिल उसका पूरा संसार था.. वही उसकी पूंजी वही संपत्ति.. वही अभिमान वही अभिव्यक्ति.. वही सम्मान वही समर्पण.. वही समंदर की बेचैनी और साहिल का सुकून भी वही..
प्रेम में इंसान लट्टू की तरह होता है.. वो अपनी धुरी पर घूमता चला जाता है.. बेसुध घूमते-घूमते अनायास ही एक परिधि में कैद हो जाता है.. पहले खूब तेज़, फिर तेज़, फिर धीमा, अंत में बहुत धीमा होकर लकड़ी का लट्टू ज़मीन पर निढ़ाल पड़ जाता है.. इंसान लकड़ी का नहीं होता.. प्रेम चक्करघिन्नी रूपी इंसान की भावनाओं को भी मथ देता है.. इस प्रक्रिया में कई बार इंसान का कचूमर निकल जाता है.. शब्द के लिए साहिल प्रेम की परिधि था.. वो उसमें कैद भी थी और इस बात से अंजान भी..
कमरे से बाहर आकर शब्द ने सबसे पहले अपने आप को आईने में निहारा.. अपनी निश्छल आंखों से खुद को देखती रही.. निशब्द.. निर्निमेष.. ठीक वैसे ही जैसे वो साहिल को देखती है.. और साहिल.. उसकी निगाहों में क्या दिखाई देता है.. वो सिहर उठी.. जैसे किसी ने दूर तक फैले एक मौन मरूस्थल में उसे लेजाकर पटक दिया हो.. साहिल की आंखों में झांकते हुए वो कई दफा उस मरूस्थल के चक्कर लगा चुकी है.. जैसे कोई भटका हुआ पथिक पानी की तलाश कर रहा हो लेकिन कई कोस चलने के बाद उसे पानी का एक कतरा तक नसीब न हो..
शब्द को प्यास लगी और उसने पानी का गिलास हाथ में उठाया.. दूसरे हाथ से राइटिंग डेस्क पर रखा लैपटॉप ऑन किया और पास पड़ी कुर्सी पर टिककर बैठ गई.. कीबोर्ड पर उसकी उंगलियां उतनी ही तेज़ी से चल रही थीं जितनी तेजी से उसके मस्तिष्क में ख्याल उमड़-घुमड़ रहे थे.. एक ईमेल में आज वो सब कुछ लिख देना चाहती थी.. अपने हृदय का असहज स्पंदन, सांसों की बेतरतीबी, ख्यालों का बिखराव, भीतर का डर.. उसे लग रहा था जैसे किसी विषैले सांप ने उसे डस लिया हो और शरीर भर में फैला ज़हर उसकी नसों से गुज़रता हुआ उंगलियों के रास्ते उस कोरी स्क्रीन पर उतरने जा रहा है.. उसने ईमेल का सब्जेट लिखा- द लास्ट मेसेज..
ईमेल का सब्जेक्ट अपने आप में एक पूरा संदेश था.. शब्द के मन में फिर से एक बार वही विचार उठने लगे.. पिछले कुछ महीनों में उसने जान लिया था कि प्रेम में आगाज़ और अंत का अंतर मिट जाता है.. साहिल की उपेक्षा, उसकी बेरूखी, उसकी व्यस्तता ने भी कभी उन वजहों को खत्म नहीं होने दिया जिनसे शब्द को हर रोज़ एक नया आगाज़ करने की ताकत मिलती थी.. प्रेम में हम वजहें तलाश लेते हैं.. आगाज़ की तरह अंत की वजहें भी.. प्रेमी खुद का अंत करके भी प्रेम का आगाज़ चाहता है.. और तब ज़िन्दगी की तस्वीर में बाकी सब कुछ धुंधला हो जाता है.. प्रेम पर फोकस होता है.. बाकी सब कुछ डीफोकस्ड..
शब्द एक अरसे से आगाज़ और अंत के इसी पेंडुलम में झूल रही थी.. साहिल का बदला हुआ मिज़ाज उसके लिए एक पहेली बना हुआ था जिसे सुलझाने की कोशिश में वो भीतर ही भीतर उलझती चली जा रही थी.. साहिल की रहस्यमयी बातें एक अंधे कुएं की तरह शब्द को अपनी ओर खींच रही थीं.. दोनों के आसपास रिश्तों का एक ऐसा निर्वात पैदा हो गया था जिसमें घुटन थी.. शब्द उस घुटन को हर पल महसूस कर रही थी..
शब्द की उंगलियां कीबोर्ड पर थीं.. ”डिअर साहिल”.. उसने जैसे ही ये टाइप किया, लगा जैसे उसकी उंगलियों ने साहिल की उंगलियों को छू लिया हो.. क्षणिक स्पर्श का वो अहसाह उसे अंदर तक झकझोर गया.. उसने मेसेज आगे टाइप करना चाहा लेकिन समझ नहीं सकी कि साहिल को वो लिखे भी तो क्या.. साहिल वही था जिसका हाथ थामकर उसने ब्रह्माण्ड घूमने का सपना देखा था.. उसे लगता था कि दोनों अगर साथ हों तो किसी दिन उल्टी पड़ी दुनिया को अपने हाथों के सहारे से सीधी कर देंगे.. साहिल उसके भीतर का बीत चुका बचपन भी था और उसके अंदर परिपक्व हो रही भविष्य की औरत भी..
साहिल वही था जिसका स्पर्श उसे मां के स्पर्श सा प्यारा था और जिसकी रहबरी पर उसे पिता की रहबरी सा विश्वास था.. साहिल और शब्द अलग नहीं थे.. वो लिखे भी तो क्या.. ये सब सोचते सोचते शब्द का शरीर जैसे शिथिल पड़ गया.. जब कुछ सोचने समझने की स्थिति नहीं रही तो उसने झटके से लैपटॉप बंद किया और उठ खड़ी हुई.. फिर जाने क्या सोचकर मेज पर पड़ी चाभी उठाई और बाहर निकलकर कार स्टार्ट कर ली..
शब्द को शहर देखना था.. उसकी कार एक चौराहे से दूसरे चौराहे, दूसरे से तीसरे चौराहे तक सरपट दौड़ती जा रही थी.. इन सड़कों के न जाने कितने चक्कर उसने पिछले कुछ सालों में लगाए होंगे.. इस जगह से आगे बुक स्टोर तक कितनी दफ़े वो और साहिल पैदल चलकर गए थे.. फूलों वाली दुकान के ठीक सामने कितनी बार उसने साहिल का इंतज़ार किया था.. ”.. आ रहा हूँ बाबा.. सब्र नहीं कर सकती तुम”..
इस मोड़ से एक बार साहिल ने शब्द को पिक किया था.. ”.. तुम कहाँ हो” “..मैं यहीं तो हूँ..” इस दिशा निर्देशक संवाद में दोनों ने पन्द्रह मिनट निकाल दिए थे.. साहिल ने झिड़कते हुए कहा था.. “.. पूरी बात सुन लिया करो तुम मेरी भी..” शब्द को सब याद आ रहा था.. एक बार रिसर्च के सिलसिले में दोनों न जाने कौन से मोहल्ले में जा पहुंचे थे.. सुनसान अनजान इलाका था और शाम ढलने लगी थी.. बड़ी मुश्किल से सही रास्ता मिला था.. लेकिन शब्द घबराई नहीं थी.. क्योंकि साहिल साथ था.. नए शहर की चकाचौंध में अपनी तरह का साथी.. अपने शहर जैसा..
शहर इंसान के भीतर होता है.. इंसान हर शहर से कुछ न कुछ समेटकर अपने साथ ले जाता है.. इंसान जिस शहर में बसता है वो शहर भी उसमें थोड़ा सा बस जाता है.. लेकिन प्रेम में ये सूत्र काम नहीं करते.. हम जिसके प्रेम में होते हैं वो शख्स ही शहर बन जाता है.. हमारे भीतर भी और हमारे बाहर भी वही मौजूद रहता है.. शब्द के लिए साहिल ही शहर था.. वो हर-सू मौजूद था.. हर मोड़ पर, हर गली में, हर ठहरने वाली जगह, बीच सड़क पर, पेड़ों की छावं में.. कुछ छुपा हुआ था कुछ प्रत्यक्ष, कुछ अनकहा कुछ अभिव्यक्त.. लेकिन साहिल हर जगह था.. और वो कहीं था भी नहीं.. साहिल अपनी महत्वाकाँक्षाओं के मायाजाल में खोकर अदृश्य हो गया था.. बड़े शहरों में खो जाने के अवसर बहुत होते हैं.. यहां शरीर ही नहीं आत्मा का खो जाना भी आम है.. आत्मा के खो जाने की रिपोर्ट नहीं लिखी जाती, कहीं किसी अदालत में सुनवाई भी नहीं होती.. अव्वल तो इंसान को पता ही नहीं चलता कि वो गुमशुदा हो गया है.. अगर पता चल भी जाए तो जांच कहाँ बैठे तलाश कौन करे..
शब्द को लगा जैसे कोई लुकाछिपी का खेल चल रहा है.. और इस खेल में अचानक कुछ गुम हो गया है.. जो गुम हो गया वो क्या था.. शब्द ने कार वापस घर की तरफ मोड़ ली.. वो बेचैन थी.. साहिल भी कई बार बेचैन हो जाता था.. वो जब भी बेचैन होता शब्द उसके पास होना चाहती थी.. साहिल उससे दुनिया जहान की बातें करता.. शब्द घंटों उसे सुनती.. जब वो ज़िन्दगी के प्रति निराश होता तो अपने छोटे-छोटे प्रयासों से उसकी जिजीविषा जगाने के जतन करती.. उसे मालूम नहीं था कि साहिल पर उन प्रयासों का क्या प्रभाव पड़ेगा लेकिन शब्द को ये मंज़ूर नहीं था कि साहिल परेशान रहे.. वो उसके अस्थिर चित्त की साथी थी.. लेकिन आज जब वो स्वयं अधीर है, उद्विग्न है तो उसके साथ कोई नहीं है.. साहिल भी नहीं.. कार सड़क पर दौड़ रही थी और शब्द की धड़कनें उससे भी अधिक तेज़ी से भाग रही थी.. शब्द को यकीन हो गया कि कमरे की दीवार पर तैर रही वो दैत्याकृतियाँ उसकी बेचैनी का प्रतिरूप थीं.. शब्द के भीतर पनप रही वो सारी नकारात्मक भावनाएं उसी व्याकुलता का प्रतिफल थीं..
संसार मे सबसे कठिन है स्वंय को ढूंढना और सबसे आसान भी यही है.. शब्द ने कठिन रास्ता तय कर लिया था.. उसने प्रेम की उस परिधी से बाहर निकलने का मार्ग तलाश लिया था जिसमें कैद होकर व्यक्ति खुद को बिसरा देता है.. जब व्यक्ति को तलाश स्वयं की हो तो उसकी मन:स्थिति उस मृग की तरह हो जाती है जो कस्तूरी की तलाश में वन-वन भटकता है.. लेकिन शब्द अब नहीं भटकेगी.. उसे प्रेम में चक्करघिन्नी हो जाना मंजूर नहीं था, वो पतंग बनकर खुले आसमान में विचरण करना चाहती है.. उसने कार घर के ठीक सामने खड़ी कर दी..
दरवाज़ा खोलकर शब्द सीधी राइटिंग डेस्क के सामने पड़ी कुर्सी पर आकर बैठ गई.. लैपटॉप खोला और अधूरे मेसेज को पूरा करने लगी.. ”डिअर साहिल.. वी विल नेवर सी इच अदर अगेन..” उसने मेसेज सेंड करते समय एक निगाह सब्जेक्ट पर डाली और ठंडी आह के साथ अपनी आंखें मूंद लीं..
( शुभ्रा सुमन टीवी पत्रकार और एंकर हैं)