Monday - 28 October 2024 - 9:34 PM

द लंपटगंज की व्यंग्य कथा- कठिन प्रेम का प्रेत का एक अंश

प्रख्यात व्यंग्यकार पंकज प्रसून की किताब “द लंपटगंज” आजकल चर्चा में है , जुबिली पोस्ट के पाठकों लिए खास पंकज प्रसून ने यह अंश भेजा है ।

आज की ट्यूशन क्लास में मास्टर साब कुछ इस तरह छात्रों को आनंदित कर रहे थे

‘डियर स्टुडेंट्स, इंग्लिश आज आगे है हिन्दी बहुत पीछे.रीज़न यह है कि हिन्दी अपने आप को मोर्डन नहीं बना पायी.आज भी हिन्दी वर्णमाला इ से इमली से ज्यादा नहीं बढ़ पायी जबकि इंग्लिश इ फॉर इंटरनेट तक पहुँच चुकी है.हिन्दी में आज भी म से मंजीरा ही पढ़ाया जा रहा है जबकि इंग्लिश एम फॉर मोबाइल तक जा पहुँची है.अब अपने मनोहर दास पाठक को ही ले लीजिए.धोती कुर्ता गमछा से आगे नहीं बढ़ पाए.और हम कोट पैंट टाई तक पहुँच गए.

‘क्यों केशव सही कहा न -.कठिन काव्य के प्रेत’

केशव खून का घूँट पीकर रह गया. केशव? केशव मनोहर दास का बेटा था.वह अपने पिता की फजीहत होते हुए सुन रहा था. क्यों ? इसलिए नहीं की वो स्टॉप के नाम पर फ्री में ट्यूशन पढ़ता था बल्कि इसलिए कि वह प्यार करता था और प्यार जिल्लत झेलने की शक्ति प्रदान करता है.कसम तुलसीदास की अगर वह अँग्रेजी मास्टर को गुम्मा मार देता अगर वह उनकी बेटी प्रीटी से प्यार न कर रहा होता.

प्रीटी ? हाँ जी,वह अँग्रेजी मास्टर थे न .वह स्टेटस के साथ कोई समझौता नहीं करते थे. प्रीटी रखकर अपना स्टेट्स डाउन नहीं करना चाहते थे ।

अँग्रेजी मास्टर चालू थे ।

‘डियर स्टूडेंट्स,हिन्दी को अत्यंत क्लिष्ट बना दिया गया है.’क्लिष्ट अपने आप में कितना ‘टफ’ शब्द है.समय कितना आगे जा चुका है पर हिन्दी के अलंकारों के उदाहरण आज तक नहीं बदल पाए.अनुप्रास अलंकार को ही ले लीजिए,क्या उदाहरण बताते हैं मनोहर दास ‘तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए’ पढ़ के हमको मिर्गी आये ..समझ से परे. इसकी जगह पर आज के दौर का गाना क्यों नहीं हो सकता –‘छई छप्पा छई छप्पा की छई पानियों के छींटे उड़ाती हुई लड़की.’

छात्र आनंदित हो रहे थे.मास्टर साब चालू थे

‘अब संयोग श्रृंगार का उदाहरण बदल के अगर यह हो जाए –‘न कजरे की धार,न मोतियों के हार न कोई किया श्रृंगार फिर भी कितनी सुन्दर हो’ तो वाकई हिन्दी कितनी सुन्दर हो जाए

वियोग श्रृंगार का ठप्पा गोपियों पर लगा दिया गया है.’दृग अंजन न रहत निश वासर कर कपोल भये कारे.निश दिन बरसात नैन हमारे. गोपियों के नैनों के बरसने का प्रमाण नहीं है पर इसको याद करने वाले के आँखों में आंसू जरूर आ जायेंगे.

अब इसका आधुनिक उदाहरण देखिये –‘मैं दुनिया तेरी छोड़ चला जरा सूरत तो दिखला जाना,दो आंसू लेकर आँखों में तुम कब्र पे मेरी आ जाना’अब आता उल्ला खां चूंकि मुस्लिम थे इसलिए इस उदाहरण को हिन्दी वाले स्वीकार ही नहीं करेंगे.अंग्रेजी के उदाहरण हर सम्प्रदाय,हर धर्म स्वीकार कर लेता है । 

केशव से नहीं रहा गया.वह अपने प्यार को ताख पर रखते हुए बोला  ‘फिर रहीम रसखान और मालिक मोहम्मद जायसी को हिन्दी ने क्यूँ स्वीकार कर लिया सर ?

‘क्योंकि उस समय भाषा आधारित राजनीति नहीं थी.उर्दू या हिन्दी को विश्वभाषा बनाने के लिए संघर्ष नहीं हो रहा था । देशी भाषा को विश्व भाषा बनाना ठीक उसी तरह है जैसे देशी दारु को विदेशी मदिरा बनाना या फिर देशी खाद को विश्व खाद बनाना। जैसे की अपने मनोहर सर ‘क्यूं केशंव ?

वह एक और खून का घूँट पीकर रह गया. तामसिक जो था.सात्विक लोग तो दारु के धूंट से काम चला लेते हैं.केशव ने प्रण कर लिया था की एक दिन इस विदेशी की लड़की के साथ देशी रीति से फेरे लेगा। और कार्ड भी शुद्ध हिंदी में प्रिंट कराएगा..

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