जुबिली न्यूज डेस्क
कोरोना संक्रमण के इस दौर में पिछले एक पखवारे से देश के किसान सड़क पर है। जान की परवाह न करते हुए वह नये कृषि बिल के विरोध में आंदोलन कर रहे हैं। उनका सरकार पर आरोप है कि सरकार को सिर्फ उद्योगपतियों की चिंता हैं, न की उनकी।
किसानों की चिंता जायज है। इतिहास गवाह रहा है कि किसान हमेशा से हाशिए पर रहे हैं। सरकारों की प्राथमिकताओं में किसान कभी रहे ही नहीं है।
यदि किसान सरकार की प्राथमिकता में होते तो देश की सरकार को इतना तो पता होता कि देश में आखिर किसान कौन है? सरकार को यह मालूम होता कि खेती की जमीन का उत्तराधिकार रखने वालों के अलावा भूमि-हीन और अन्य श्रेणियों में देश में कुल कितने किसान हैं?
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जी हां, हमारी सरकार को ये नहीं मालूम है कि किसान कौन है? 2019 के दिसंबर महीने में राज्यसभा में सरकार से सवाल पूछा गया था कि किसान कौन हैं? तो सरकार इसका जवाब नहीं दे पाई थी।
कृषि को राज्य का मामला बताकर सरकार ने अपना पल्ला झाड़ लिया था। अब लगभग नौ माह बाद एक बार फिर राज्यसभा में ही सारकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि आखिर किसान किसे कहा जाएगा, या माना जायेगा।
हालांकि केंद्र सरकार ने इसके लिए कोई नई परिभाषा नहीं गढ़ी है, बल्कि सरकार ने पहले से ही मौजूद एक आधिकारिक और विस्तृत परिभाषा को ही स्वीकार लिया है।
लेकिन समस्या यहीं खत्म नहीं होती। अभी भी सरकार दुविधा में है। दरअसल सरकार को अभी यह नहीं मालूम है कि खेती की जमीन का उत्तराधिकार रखने वालों के अलावा भूमि-हीन और अन्य श्रेणियों में देश में कुल कितने किसान हैं?
मालूम हो कि देश में कृषि और उससे जुड़े रोजगार को प्रोत्साहित करने वाली सरकारी नीतियों और योजनाओं का दायरा अब भी खेती की जमीन का अधिकार रखने वालों के लिए ही है।
सरकारी परिभाषा में बताये गए कुल किसानों की गिनती अगर होती तो बड़ी योजनाओं की छोटाई का अंदाजा लग जाता।
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सरकार ने मार्च 2020 में लोकसभा में एक सवाल के लिखित जवाब में स्पष्ट तौर पर कहा था कि ऐसा कोई विशिष्ट सर्वे/जनगणना नहीं किया गया है जिससे देश में भूमिहीन किसानों की सटीक संख्या बताई जा सके।
सरकार ने कहा था कि सिर्फ पूरी तरह से पट्टे पर दिए गए खेतों का ही आंकड़ा उपलब्ध है। 2015 कृषि जनगणना के मुताबिक देश में 531,285 पट्टे हैं, जिनमें अरुणाचल प्रदेश, चंडीगढ़, हरियाणा, दमन-दीव, दिल्ली, लक्षदीप, मेघालय, मिजोरम का आंकड़ा नहीं है।
सरकार की नजर में कौन है किसान?
23 सितंबर 2020 को राज्यसभा में सांसद सतीश चंद्र दुबे के सवाल पर कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा, “राष्ट्रीय किसान नीति, 2007 के मुताबिक “एक व्यक्ति जो सक्रिय तौर पर आर्थिक अथवा आजीविका गतिविधियों के लिए फसल उत्पादन करता है और अन्य प्राथमिक कृषि उत्पादों का उत्पादन करता है, और इसमें सभी भू-जोत व खेती, कृषि मजदूर, बटाईदार, किराएदार, पॉल्ट्री व पशु पालक, मधुमक्खी पालक, बागवानी, चरवाहे, गैर व्यावसायिक बागान मालिक, बागान मजदूर, सेरीकल्चर, वर्मीकल्चर और कृषि-वानिकी से जुड़े व्यक्ति शामिल हैं। साथ ही इसमें आदिवासी परिवार या वे व्यक्ति भी शामिल है जो खेती के साथ ही संग्रहण आदि का काम करते हैं। या फिर माइनर व नॉन टिंबर फॉरेस्ट प्रोड्यूस का इस्तेमाल व बिक्री करते हैं।”
क्या कहता है राष्ट्रीय किसान नीति?
प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग (एनसीएफ) ने अक्तूबर 2006 में सरकार को सौंपा गया था, जिसे 11 सितंबर, 2007 को स्वीकृति मिली। इसमें विशेष किसानों के संरक्षण और संवर्धन के लिए भी कहा गया है।
राष्ट्रीय किसान नीति, 2007 के अनुसार इस विशेष श्रेणी वाले किसानों की सूची में सबसे पहला नाम आदिवासी किसानों का है। रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि किसानों में सबसे हाशिए पर और लाभ से वंचित तबके का किसान इस श्रेणी में है जो कि मुख्य रूप से वन और पशुपालन से आजीविका चलाता है। इनकी भी संख्या स्पष्ट नहीं है।
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वहीं जानकारों का कहना है कि किसान सिर्फ परिभाषा तक सीमित नहीं होना चाहिए। कृषि मामलों के जानकार डॉ. सुजीत यादव कहते हैं सरकार को कृषि के सभी क्षेत्रों से लोगों को लाभार्थियों की सूची में भी शामिल करना चाहिए। आप पीएम कृषि सम्मान निधि को देखेंगे तो इसमें सिर्फ 14.5 करोड़ खेती की जमीन का उत्तराधिकार रखने वाले परिवारों को ही लाभार्थी की सूची में शामिल किया गया है।
वह कहते हैं यदि इसमें बटाईदार और किराएदार किसानों को शामिल कर दिया जाए तो किसानों की संख्या का यह आंकड़ा काफी बड़ा हो सकता है।
सरकार ने पहले ही कह चुकी है कि पीएम किसान सम्मान निधि योजना में किराएदार या बटाईदार किसानों को शामिल नहीं किया गया है।
आंकड़ों के अनुसार सरकार ने 18 सितंबर तक 102,171,345 किसानों तक ही इस योजना का लाभ पहुंचाया है। सरकार का कहना है कि भूमिहीन, किराएदार और बटाईदार किसानों के लिए मनरेगा के जरिए सहायता दिया जा रहा है। वे इस योजना में शामिल नहीं हैं।
सरकार का यह भी कहना है कि उनकेे जरिये मॉडल एग्रीकल्चरल लैंड एक्ट 2016 राज्यों को लागू करने के लिए कहा गया है। अब जब यह एक्ट लागू करना राज्यों पर निर्भर है तो सवाल यह है कि ऐसे किसानों की असल संख्या क्या है?
डॉ. सुजीत यादव कहते हैं कि एग्रीकल्चर सेंसस का आंकड़ा किसानों के संख्या की सही तस्वीर नहीं पेश करता है। खासतौर से किराए या बटाईदार किसानों के बारे में इससे सटीक संख्या की जानकारी नहीं मिलती है।
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वहीं, एनएसएसओ के आंकड़े एग्रीकल्चर सेंसस के मुकाबले थोड़े ठीक होते हैं, जबकि एनएसएसओ के आखिरी आंकड़े 2013 के ही उपलब्ध हैं।
दरअसल देश में ज्यादातर परिवार लीज के बारे में जानकारी नहीं देते हैं क्योंकि कई राज्यों में लीज अवैध माना जाता है। ऐसे में अभी तक ऐसा कोई अध्ययन या सर्वे नहीं हो पाया है जो किराए और बटाईदारी के भूमिहीन किसानों की वास्तविक स्थितियां सामने रखे।